निज प्रशंसारत स्वयंमुख,
पर-प्रशंसा सुनि
सकथि नहि I सतत परनिंदा
निरत, आलोचना
निज सुनि सकथि नहि II
परोन्नति लखिकय
जरनि उर, पर-पराभव
स’ मुदित छथि I बिन बजाओल पञ्च
छथि ओ, मर्म
शास्त्रक किछु बुझथि नहि II मुदा सदिखन
करथि भड-भड, तत्त्व के
ने ज्ञान जिनका I अखड़ दिग्विजयी
सदृश, पर
ज्ञान के ने छूति हिनकाII
विना मंगनहि रायदाता, राय लेब’ मे हो हेठी I राय नीको
जे ने लै छथि, मूर्खराजे
बुझू तिनका II
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