Sunday, January 28, 2024

अहंता आओर प्रेम

अहंता आ प्रेम एक्के- वृक्ष के दू शाख होमय । प्रेम त्यागक लेल आतुर, अहंता लेबाक सोचय ।। अहंता लेबाक सोचय, झुकाओल सबके करै अछि। प्रेम तँ देबाक आकुल सतत ओ नमले रहै अछि ।। जे ने चिखलथि स्वाद प्रेमक प्रेम रस की बूझि सकता । उर तकर रसहीन-उस्सर जे सतत डूबल अहंता ।। बसय सबमे एके ईश्वर, प्रेम सबसँ करी सदिखन । बात ज्ञानक से की बुझता, अहंमे डूबल जे सदिखन ।। अहंमे डूबल जे सदिखन, स्वार्थ पाछाँ रहय पागल । सुधा के की स्वाद बूझत, गोबरक कीड़ा अभागल ।। बात ई कहियो ने बिसरी, ईश सबहक उर बसय । आन क्यो नहि छथि जगतमे, एके ईश्वर सबमे बसय ।। ******************************आ

Friday, January 26, 2024

सत्य-पथ आ मूल्य

जीवनक अदहा अबधि तँ नींदमे बीतैछ सबहक । बँचल अदहा केर अदहा खेलमे बीतैछ सबहक ।। तकर अदहा अवधि के तँ अध्ययनमे सब लगाबय । शेष बाँचल केर बेसी नित्यकर्मेमे बिताबय ।। गप्प-सप हँस्सी-ठहक्का मनोरंजन सँ जे बाँचय । सैह अत्यल्पे अवधि तँ धर्म-कर्मक लेल बाँचय ।। कलह-निंदा-व्यसनमे जुनि क्यो बिताबी ऐ समय के । धर्म-कर्मे-ज्ञान-उपकारे बिताबी ऐ समय के ।। कथू ने ल' क' अबै अछि कथू ने ल' जा सकै अछि । त्याग-जश-आ कीर्ति जिनकर सैह टा बाँचल रहै अछि ।। मात्र स्वप्ने टा ने देखी कठिन श्रम सँ सच बनाबी । स्वप्न के साकार क' क' पार बेड़ा के लगाबी ।। जड़ि ने बिसरी यैह दै अछि खाध-जल आ जीवनक रस । शुष्क जीवन कोन काजक जँ ने बाँचल जीवनक रस ।। अत्यधिक श्रमसाध्य जिनगी समारब अतिशय कठिन अछि । जीवनक रस भेटि गेनहुँ, मनुखता भेटब कठिन अछि ।। नीक संबंधी बनायब, जगतमे अतिशय कठिन छै । मुदा संबंधक निमाहब अहू सँ बेसी कठिन छै ।। लोभ-भय के बसमे कथमपि मूल्य कहियो ने गमाबी । सत्य-पथ निज आचरण के जान दइयो क' बचाबी ।। ****************************

Wednesday, January 24, 2024

शुक्रिया तै ईश के

शुक्रिया तै ईश के जे, हवा मुफ्ते मे देलनि । आर एतबा ख्याल रखलनि, जलक संग भोजन पठेलनि ।। जलक संग भोजन पठेलनि, व्यर्थ क्यो उपराग दै छनि । जे जरूरति होइछ हमरा, भार सब हुनके रहै छनि ।। जे रहय उपयुक्त जहिया, सैह सबटा भेटल तहिया । रहू अति संतुष्ट सब क्यो, करू ईशक शुक्रिया ।। *********************

Wednesday, January 17, 2024

निन्दक नियरे राखिए

दाग चेहरा पर देखाबय जखन दर्पण
लगा साबुन क्रीम चेहरा के मलै छी ।
दाग चेहरा स' हटायब लक्ष्य होमय
दोख दर्पण के मुदा कहियो ने दै छी ।।

जँ कियो इंगित करै छथि त्रूटि दिस तँ
होइ हुनक कृतज्ञ निज त्रुटिए भगाबी ।
क्रोध हुनका पर करब नै उचित होयत
करी स्वागत हुनक, मैत्री के बढ़ाबी ।।

बनाक' बढियाँ हुनक आँगन कुटी,
घोर निंदक लोक के नजदीक राखी ।
करथि निर्मल चित्त साबुन पानि बिन,
प्यार करियनु किमपि नै अपशब्द भाखी ।।

आन क्यो नै बुझि पड़त ऐ जगत भरिमे,
जँ अहाँ बुझबैक सबके सदृश अपनहि ।
माथपर रखने रहत सबलोक सदिखन,
बूझि जेतै ओ अहँक हृदयक भाव जखनहि ।।

Sunday, January 7, 2024

स्वर्गात् उच्चत्तरः पिता

जननि-जन्मस्थान के परतर ने स्वर्गो क' सकै अछि । मुदा जननी मातृभू स' सतत् ऊपरमे रहै अछि ।। पिता सन्तति लेल सब किछु त्याग लेल तत्पर रहै छथि । जदपि सुत निर्मोह, नै पित- त्याग मोहक क' सकै छथि ।। सकल नर दुनिया मे सबतरि विजय के इच्छा करै अछि । मात्र सुत सँ पराजय के पिता के इच्छा रहै अछि ।। त्याग-इच्छा-मोह तैं, नहि- पित जगह क्यो ल' सकै छथि । मात्र दुनिया टा सँ नहि, पित- स्वर्ग स' ऊपर रहै छथि ।।