Thursday, June 3, 2021

दादाजी के संस्मरण (2)

16. शादी के बाद कलुआही स्कूल  :-

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शादी के बाद मेरी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन आया । पहले जिन्दगी अव्यवस्थित चल रही थी, अब व्यवस्थित ढंग से रहना पड़ता था । ससुराल में इम्प्रेशन बनाने के लिए बहुत मितभाषी होना पड़ता है । जो अधिक बोलेगा वह झूठ भी खूब बोलेगा, डींग खूब हाँकेगा, बड़बोला तो रहेगा ही । अधिक बोलनेवाले का वैल्यू घट जाना स्वाभाविक है । 

मेरे कपड़े पहनने का ढ़ंग भी बदल गया । नए-नए कपड़े भी पर्याप्त हो गए । बोलचाल, हावभाव, रहन-सहन सभी बदल गए ।


 ससुरजी के छोटे भाई डॉ0 श्याम हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे । उनके सम्पर्क में आने से मेरी भी हिन्दी खूब अच्छी हो गई । वे हमेशा सक्रिय रहते थे । सदैव अध्ययन करते रहते थे । स्वभावतः मुझे भी और अधिक अध्ययन करने की इच्छा होने लगी ।

 ससुरजी गणित के प्रकाण्ड विद्वान थे, अतः गणित की कोई भी समस्या मिनटों में हल हो जाती थी । 


लगभग तीन महीने तक मैं ससुराल से ही स्कूल जाता रहा ।

दूसरे शिक्षकों का भी कुछ अधिक ही स्नेह मिलने लगा । पहले मुझे शिक्षकों से बात करने में कुछ झिझक महसूस होती थी लेकिन अब जो भी पूछना होता बेझिझक पूछ लेता । विज्ञान के शिक्षक श्री यादवजी ने प्रयोगशाला की चाभी मुझे दे दी । मैं रविवार और अन्य छुट्टी के दिनों में प्रयोगशाला में घुसकर चुपचाप प्रयोग करता रहता । गर्मी की छुट्टी में तो पूरा महीना मैं प्रयोगशाला कक्ष में डूबा रहा ।

प्रधानाचार्य अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे । उन्होंने मुझे अंग्रेजी ट्रांसलेशन की एक किताब दी । प्रत्येक दिन एक लेशन बनाकर उनके दराज में रख देता था । वे चेक कर उसी दराज में रख देते थे । शाम को छुट्टी होने पर चुपचाप मैं दराज खोलकर अपनी कॉपी ले लेता । त्रुटियों को समझ लेता । फिर नया लेशन बनाता और दूसरे दिन प्रधानाचार्य के टेबुल की दराज में रख देता । इस प्रकार ट्रांसलेशन बनाना और प्रधानाचार्य द्वारा करेक्शन करना मुझे कितना लाभ पहुँचाया यह शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ।

इस सबका लाभ मुझे ये मिला कि मैं अपने वर्ग के छात्रों के बीच अग्रणी हो गया । भोगेन्द्र मुझसे काफी पीछे छूट गया ।

दसवीं की परीक्षा में काफी अधिक मार्क्स के अंतर से मैं प्रथम आया ।


****शिक्षा :- विद्वान लोगों की संगति से वर्णनातीत लाभ होता है, गूढ़ विषयों को भी समझना आसान हो जाता है और शिक्षा की सही दिशा की सम्पुष्टि हो जाती है ।****



17. कलुआही स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा :-

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उन दिनों उच्च विद्यालय में ग्यारहवीं तक की पढ़ाई होती थीं ।  उसके बाद कॉलेज में दो साल इंटरमीडिएट, तीन साल स्नातक प्रतिष्ठा और विश्वविद्यालय में दो साल स्नातकोत्तर की पढ़ाई होती थी । ग्यारहवीं को मैट्रिक भी कहा जाता था । 

मैट्रिक की परीक्षा का अत्यधिक महत्व था क्योंकि इसीके अच्छे प्राप्तांक के आधार पर ही अच्छे-अच्छे कॉलेजों में नामांकन होते थे । मैट्रिक की परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने लिए विद्यार्थीगण जी जान लगा देते थे ।

मैंने कलुआही में ही उच्च विद्यालय परिसर में ससुरजी द्वारा निर्मित एक कमरे में रहकर तैयारी शुरू की । भोजन की व्यवस्था शिक्षकों के लिए चल रहे मेंस में ही थी । मुसाई भनसीया बहुत अच्छा खाना बनाता था ।


 कलुआही में रहने से काफी लाभ हुआ । वैसे मैं करमौली में भी घर का कोई काम नहीं करता था, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ व्यवधान तो हो ही जाता था । कलुआही में तो मात्र अध्ययन करना ही काम था । 

साथ में कुछ और लड़के भी थे । मजरही टोला का मदन मेरा रूममेट था । साथ के (स्व0 काशी बाबू द्वारा निर्मित) दूसरे कमरे में नारायणजी और राम चन्द्र प्रसाद रहते थे । वे लोग भी अच्छे छात्र थे । 

50 फ़ीट दूर शिव नारायण क्लब के भवन में भोगेन्द्र, चंद्रमोहन और चंद्रकांत रहते थे ।

पढ़ाई के साथ-साथ मित्रों के साथ खेल-कूद, मधुर वार्तालाप और पढ़ाई संबंधी वाद-विवाद भी चलता रहता था । शिक्षकों का मार्गदर्शन भी मिलता रहता था । वह बहुत आनन्ददायक समय था ।


इस प्रकार तैयारी करते हुए मैट्रिक परीक्षा का समय आ गया । वाट्सन उच्च विद्यालय, मधुबनी में परीक्षा केन्द्र निर्धारित हुआ । वाट्सन स्कूल के बगल में क्यौटा गाँव के स्व0 कारी झा का मकान था । वे ससुरजी के दयाद लगते थे । परीक्षा से चार दिन पहले मैं और सुधीर(यादव सर का साला) कारी झाजी के मकान में रहने लगा । 

मधुबनी जिला परिषद में यादव सर के सम्बन्धी डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर थे । उनके कारण हमलोग जिला परिषद के डाकबंगला में परीक्षा से एक दिन पहले आ गए । डाकबंगले का हॉल बहुत बड़ा था । हमलोगों के कारण भोगेन्द्र सहित और भी बहुत से हमारे साथी वहाँ आ गए । डाकबंगले का खानसामा हमलोगों के लिए बहुत स्वादिष्ट खाना बनाता था ।

परीक्षा निर्धारित तिथि को प्रारंभ हुई । उन दिनों कदाचार चरम पर था । मैंने दरभंगा में जिला स्कूल में थप्पड़ खाने के बाद कभी भी कदाचार नहीं करने की कसम खाई थी । उसी प्रतिज्ञा के निर्वहन में पूरे परीक्षा केंद्र में केवल मैं और भोगेन्द्र ने अपने को कदाचार से मुक्त रखा । किसी को विश्वास नहीं होता था कि ऐसे भी दो छात्र हैं जो कदाचार नहीं कर रहे हैं । हमदोनों को देखने के लिए भीड़ लगी रहती थी । 

सुशील बाबू सर का लड़का विनोद थर्ड स्टूडेंट था । हमलोगों के चलते वह भी प्रतिज्ञाबद्ध हो गया था । लेकिन उसके पिताजी ने स्वयं शिक्षक होते हुए भी उसे प्रतिज्ञा भंग करने को बाध्य कर दिया । 

वाह रे नैतिक शिक्षा! एक शिक्षक को छात्रों के बीच नैतिकता का आदर्श माना जाता है । लेकिन व्यवहार में कितना अन्तर हो जाता है । कथनी और करनी का यही फर्क आजकल छात्रों के बीच शिक्षकों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर चुका है जिसको पुनर्स्थापित करने में दशकों लग जाएंगे ।


****शिक्षा :- 

1. किसी भी परिस्थिति में प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए । 

2. कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए ।

3. शिक्षकों को छात्रों के बीच नैतिकता का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए ।

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18.  सी.एम. कॉलेज में इंटरमीडिएट साइंस प्रथम वर्ग में नामांकन :-

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उस साल मैट्रिक परीक्षा में इतना अधिक कदाचार हुआ था कि परीक्षकों के मन में यह बात बैठ गई थी कि शत-प्रतिशत छात्रों ने कदाचार किया है । इसलिए उनलोगों ने आँख मूँदकर कॉपी जाँचा और मार्किंग किया । जब शूक्ष्म दृष्टि से कॉपी जाँची जाएगी तभी तो सदाचार और कदाचार के अंतर का पता चल सकेगा!

फिर भी मुझे कलुआही स्कूल में सर्वोच्च अंक 646/900 प्राप्त हुए और राष्ट्रीय मेधा छात्रवृत्ति मिलनी प्रारम्भ हुई जो अभियांत्रिकी के अन्तिम वर्षों तक मिली । बल्कि सत्र बिलम्ब के कारण एक साल अधिक तक भी छात्रवृत्ति मिली । 

नैतिकता के दामन को थाम्हे रहने के कारण भोगेन्द्र बहुत पीछे छूट गया । मेरे और उसके बीच में कदाचार के कारण बहुत सारे साधारण छात्र भी घुस गए । 


कॉलेज में नाम लिखाने की बात हुई तो ससुरजी की इच्छा थी कि मैं आर.के.कॉलेज, मधुबनी में नाम लिखाऊँ । लेकिन मैं मधुबनी छोड़कर कहीं भी अन्यत्र किसी भी कॉलेज में नाम लिखाना चाहता था । ससुरजी मार्कशीट लेकर एप्लाइ करने के लिए बाहर निकले लेकिन अधिक दूर नहीं जा सके । सी.एम. कॉलेज, दरभंगा में एप्लाइ करके आ गए । हालाँकि एप्लाइ करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । 600/900 एवं इससे ऊपर के मार्क्सवालों का डायरेक्ट एडमिशन होना था । इस बात की जानकारी उन्हें शायद नहीं हो सकी थी । वे तो एक सीधे-सादे शिक्षक थे जो आँख मूँदकर लीक पर चलते थे । जो मन में बैठ गया उसी पर अड़े रहना जानते थे । जो चालू-पुर्जा रहेगा वही न अधिक दिन-दुनियाँ की जानकारी रखेगा । वे आँख मूँदकर गए, एडमिशन फॉर्म लिए और भरकर जमा किए और विना किसी से बात किए चुपचाप बस में बैठकर घर आ गए । कभी-कभी अपनी ज़िद्द पर अड़ जाते और बोलते कि मुझे जो करना था मैंने कर दिया, अब आपको जो करना हो स्वयं करें ।

कॉलेज द्वारा बाद में एडमिशन के लिए जो लिस्ट निकला उसमें 600 से कम मार्क्सवालों का ही नाम था । लिस्ट में अपना नाम नहीं देखकर मैं बहुत दु:खी हो गया । नामांकन प्रभारी से पूछने पर उन्होंने बताया कि आपलोगों के नामांकन का डेट बीत गया । अब 600 से कम मार्क्सवालों का ही एडमिशन होगा ।

ससुरजी की छोटी सी गलती के कारण मुझे कितनी कठिनाई हुई कह नहीं सकता हूँ । मेरे जैसे और भी कुछ लड़के थे जिनका 600 से अधिक मार्क्स था और वे डायरेक्ट एडमिशन नहीं ले सके थे । ऐसे सभी लड़कों द्वारा काफी पैरवी-पैगाम लगाने के बाद लगभग 30 लोगों की सूची निकली । अन्ततः मैं नाम लिखाने में कामयाब हो गया । 

मेरे नामांकन कराने में मुख्य पैरवीकार मजरही टोला के श्री गंगाधर बाबू थे जो मुजफ्फरपुर में संस्कृत से पी.जी कर रहे थे । वे जयमंत बाबू के भतीजा हैं ।


कभी-कभी उचित समय पर कोई काम नहीं करने पर समय बीत जाने पर उसका काफी मूल्य चुकाना पड़ता है ।

मेरे जैसे छोटी कद-काठी के शुद्ध देहाती परिवेश से आनेवाले लड़के के लिए तो दरभंगा बहुत बड़ा शहर लगता था । कॉलेज में नामांकन से पूर्व मैं करमौली और कलुआही तक ही सीमित था, अब सीधे कमिश्नरी शहर दरभंगा आ गया था । ससुरजी को तो शायद थोड़ा भी मलाल नहीं हुआ होगा कि उनकी एक भूल के कारण मुझे कितनी परेशानी हुई । काश! वे एप्लाइ नहीं कर सीधे एडमिशन ले लिए रहते! 

लेकिन सभी बातों में कुछ-कुछ अच्छाइयाँ छिपी होती हैं । स्वयं दौड़-धूप अधिक करने से मुझमें निर्भीकता आ गई और आत्मविश्वास काफी बढ़ गया ।


**** शिक्षा :-

पूरी जानकारी प्राप्त कर ही कोई काम करना चाहिए । उचित समय पर काम नहीं करने से भारी कीमत चुकानी पड़ती है । अनुभव से निर्भीकता और आत्मविश्वास बढ़ते हैं ।***

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19. सी.एम. कॉलेज, दरभंगा का अनुभव :- 

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उन दिनों बिहार विश्वविद्यालय के अंतर्गत चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय एक अंगीभूत कॉलेज था । इस कॉलेज के दो ब्लॉक थे । दरभंगा टावर के सटे दक्षिण में गोलबाजार था जिसमें साइंस ब्लॉक चलता था । बागमती नदी के किनारे क़िलाघाट में नया-नया आर्ट्स ब्लॉक बना था । नदी के पूरब आर्ट्स ब्लॉक और पश्चिम में पी.जी. छात्रावास था । दोनों किनारों पर तार के पेड़ों में रस्सी बाँधकर एक फ्लैट नाव चलाया जाता था ताकि पी.जी. होस्टल के छात्र कॉलेज आ-जा सकें ।


मैं राज स्कूल के बगल में हसनचक के उत्तर एक प्राइवेट होस्टल विद्यामंदिर छात्रावास में रहता था । चंद्रमोहन के बड़े भैया स्व0 कृष्णमोहन जी उस छात्रावास के प्रीफेक्ट थे । वे सी.एम.कॉलेज, दरभंगा के पी.जी. के छात्र थे ।

सी.एम. कॉलेज में नामांकन के बाद डेरा नहीं रहने के कारण मैं गाँव लौट रहा था । बस स्टैंड में कृष्णमोहन जी से भेट हो गई । उन्हें जब मैंने बताया कि डेरा नहीं मिला है तो उन्होंने अपने बेड पर जाकर विश्राम करने को कहा । वे अपने गाँव कालिकापुर जा रहे थे, बोले कि लौटकर आने पर आपके रहने की व्यवस्था कर दूँगा । मैं आकर विद्यामंदिर छात्रावास में उनके कमरे में रहने लगा । वहाँ मेंस भी चलता था, अतः भोजन की समस्या भी हल हो गई । कृष्णमोहनजी के आने पर ग्राउंड फ्लोर पर 4 बेड के एक कमरे में एक बेड मिल गया और मैं आराम से वहीं रहकर कॉलेज जाने लगा । हीरा नंद आचार्य मेरे रूममेट थे जो आजकल राजनगर कॉलेज के प्रिंसिपल हैं ।

नामांकन में विलम्ब होने के कारण कुछ क्लास छूट गए थे । काफी मिहनत कर छूट चुके क्लास का मेकअप कर पाया ।

नई जगह, नए माहौल में एडजस्ट करने में काफी समय लगा । कोई मार्गदर्शक भी नहीं था । अपने से पढ़ना और अपने से गुनना भी था । किसी शिक्षक से परिचय नहीं था जिनसे किसी विषय में मदद लिया जा सके ।

उन दिनों छात्रों में बड़ी उच्छृंखलता फैल गई थी । छात्र-आन्दोलन चरम पर था । हमेशा क्लास बाधित होता रहता था । देखते-देखते परीक्षा का समय आ गया । 

किसी भी विषय में पूरे पाठ्यक्रम की पढ़ाई नहीं हो सकी । मेरी आर्थिक तंगी भी मुझे बहुत परेशान कर रही थी । जब खाने-पीने और रहने के भी खर्चों को वहन करना कठिन था तो फिर किसी शिक्षक से ट्यूशन पढ़कर मेकअप करने का सोच भी नहीं सकता था ।

विद्यामंदिर में कुछ उद्दण्ड किस्म के छात्र रहते थे । उनलोगों के चलते पढ़ाई में भी बाधा पहुँचती थी ।

 विद्यामंदिर छात्रावास छोड़कर एम.आर.एम. कॉलेज के बगल में मण्डल निवास में मैं और हीराजी चले गए । कुछ महीने वहाँ रहने के बाद कहीं दूसरी जगह चले गए और मैं भी हसनचक पर अवस्थित राम मन्दिर पर एक कमरे में आकर रहने लगा । बगल के कमरे लीलाजी और उनके पिताजी रहते थे । लीलाजी के पिताजी सी.एम.कॉलेज पोस्ट ऑफिस में दौड़ाहा प्यून थे । वे राम मंदिर पर रहते थे और मन्दिर में पुजारी का भी काम करते थे ।

यहीं पर लीलाजी से दोस्ती हुई ।


लीलाजी सौम्य और मेधावी छात्र थे । बहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति थे । जमीनी व्यक्तित्व था ।मेरे साथ बैठकर इंजीनियरिंग की तैयारी करते थे । हमदोनों ने अच्ची तैयारी की ।

बागमती नदी के कबड़ाघाट मंदिर पर अरघाबा निवासी लक्ष्मीकान्त के पिताजी पुजारी थे । लक्ष्मीकांत करमौली से ही मेरा दोस्त था । उसके चचेरे भाई अमरनाथजी संस्कृत ऑनर्स कर रहे थे । उनसे भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गई ।

****शिक्षा :- विभिन्न जगहों पर जाने आने से कई तरह के लोगों से भेट होती है, उन्हीं लोगों में से कोई अभिन्न मित्र बन जाता है ।****




20. दरभंगा के कुछ विशेष अनुभव :-

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लक्ष्मीकांत और अमरनाथजी कबड़ाघाट मन्दिर पर रहते थे । वे दोनों हमेशा मुझसे मिलने राम मंदिर पर आते रहते थे । अमरनाथजी बड़े ही विनोदी स्वभाव के थे । उनके आने पर हमलोग घंटों हास-परिहास में डूबे रहते थे । रविवार को तो वे जरूर आया करते थे । उन दिनों सी.एम. कॉलेज बिहार विश्वविद्यालय के अन्तर्गत था जिसका मुख्यालय मुजफ्फरपुर था । अमरनाथजी को संस्कृत ऑनर्स प्राप्त हो जाने पर वे मुजफ्फरपुर पी.जी. करने चले गए । जाने से पहले मुझे कबड़ाघाट मंदिर पर रहने के लिए जिद्द करने लगे । 

दरभंगा राज का कबड़ाघाट मंदिर बागमती नदी के किनारे नदी से सटे पूरब अवस्थित है । शहर से सुदूर लगभग डेढ़ एकड़ में चहारदीवारी से घिरा हुआ कृत्रिम जंगल के बीच बहुत ही शान्त स्थान है । लक्ष्मीकांत के पिताजी उस मन्दिर के पुजारी थे । अमरनाथजी और लक्ष्मीकांत के दुराग्रह को मैं टाल न सका । एकान्त साधना के लिए उपयुक्त स्थल लगा और भाड़ा भी नहीं लगना था । मैं डेरा-डंडा लेकर कबड़ाघाट चला गया ।अमरनाथजी मुजफ्फरपुर चले गए । लक्ष्मीकांत कुछ दिन साथ में रहा । वह जबतक साथ में रहा बहुत आनन्द आया । कुछ दिन के बाद वह घर चला गया और महीना-दो महीना पर कभी-कभार एक-आध दिन के लिए ही आता था । मैं और लक्ष्मी के पिताजी दो ही व्यक्ति वहाँ बच गए । वे लगभग 55 वर्ष के थे । मेरी उम्र लगभग 19 साल थी ।  उम्र के अनुसार विचारों में काफी अंतर थे । 

प्रारम्भ के कुछ दिन बहुत ही आनन्ददायक थे । मंदिर के गेट के सटे दक्षिण में राज के लेखापाल रमाकांत बाबू रहते थे । उनका लड़का लाल और भगिना उदय यदा-कदा मन्दिर पर आता रहता था । उनलोगों के साथ पढ़ाई-लिखाई संबंधी खूब बातचीत होती रहती थी । 

मन्दिर परिसर में बहुत सारे फलदार वृक्ष आम, जामुन, कटहल, पपीता, अमरूद, शरीफ़ा आदि थे । नींबू के पौधे भरे हुए थे । चठैल की लत्ती चारों तरफ फैली हुई थी । सी.एम. कॉलेज का लैबोरेटरी ब्वॉय वासुदेव मंदिर परिसर में खूब साग-शब्जी उपजाता था । आधा वह ले जाता था और आधा हमलोगों को दे देता था । कभी शब्जी खरीदने की आवश्यकता नहीं हुई ।

लकड़ी के चूल्हे पर खाना मैं ही बनाता था । पूजा के लिए फूल तोड़ना भी मेरा ही काम था । कभी-कभी पूजा का भार भी मुझ पर ही सौंपकर पण्डितजी बाहर चले जाते ।

बागमती नदी में स्नान करने में बहुत आनन्द आता । कॉलेज काफी दूर था । अतः क्लास के बाद शाम में काफी देर से आता । फिर तुरत रात का भोजन बनाना पड़ता । शरीर चूर-चूर हो जाता । पढ़ने बैठता तो नींद आने लगती । सुबह फिर फूल तोड़ना, भोजन बनाना आदि काम करते-करते कॉलेज का समय हो जाता । लगभग 45 मिनट कॉलेज जाने में लगता । होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता ।


कबड़ाघाट में एक सबसे बड़ा आकर्षण भी था । मन्दिर के सटे मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट था । वहाँ संस्कृत के स्नातकोत्तर की पढ़ाई और शोधकार्य होते थे । संस्कृत के एक से एक प्रकाण्ड विद्वान इंस्टीट्यूट में थे । पण्डित शोभाकांत झा संस्थान के निदेशक थे । एक पण्डित बलराम अग्निहोत्री बहुत ही प्रतिष्ठित ख्यातिप्राप्त विद्वान थे । उनके एक पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं । सबसे बड़ी पुत्री आइ.ए.एस, दूसरी पुत्री डॉक्टर और सबसे छोटा एकमात्र लड़का सतीश अग्निहोत्री था जो फीजिक्स ऑनर्स में टॉप किया था । वह भी बाद में आइएएस बन गया ।

ससुरजी की इच्छा थी कि मैं फिजिक्स ऑनर्स की पढ़ाई करूँ । अतः फिजिक्स के टॉपर और उसके विशिष्ट परिवार के प्रत्येक विशिष्ट सदस्य की संगति का लाभ प्राप्त करना मेरे लिए बड़े ही सौभाग्य की बात थी । मैं प्रत्येक रविवार को उनके यहाँ जाता और घंटों सतीशजी से फिजिक्स पर डिस्कसन करता । धीरे-धीरे मुझे भी भौतिकी में रुचि बढ़ने लगी ।उनलोगों की संगति अप्रतिम थी जिसे जीवन पर्यन्त भूल नहीं पाऊँगा । एक तृषित व्यक्ति को जैसे गंगाजल का भंडार प्राप्त हो गया था ।


शिक्षा :- सत्संगति का लाभ अनुपम है ।

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21. कबड़ाघाट मन्दिर :-

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कबड़ाघाट मन्दिर पर करीब तीन माह का समय आनन्दपूर्वक बीता । अब पण्डितजी का असली चेहरा सामने आया । अब उन्हें मेरे हाथ के भोजन का स्वाद अच्छा नहीं लगता । एक रोज स्वयं बनाने चले गए । मुझे अच्छा ही हुआ, भोजन बनाने के समय की बचत हुई और वह समय पढ़ाई के काम आया । 

मैं लकड़ी के कोयलेवाले कूकर पर छोटे-छोटे तीनो डब्बों में चावल, दाल, आलू डाल देता । कोयला सुलगा देता । इधर मैं जबतक स्नान-ध्यान कर कपड़े पहनता तबतक उधर मेरा भोजन तैयार हो जाता । आलू के चोखा में नमक, प्याज और सरसों का तेल मिला देता । नित्य भात-दाल-चोखा या खिचड़ी-चोखा मेरा भोजन होता ।

कुछ दिन इस तरह चला । लेकिन पण्डितजी को यह कैसे वर्दाश्त होता । उनको मेरी पढ़ाई से क्या मतलब, उन्हें तो अपने काम के लिए मात्र एक सहायक की आवश्यकता थी । अब मैं उनका कोई हेल्प नहीं कर रहा था । वे अब हमेशा वासुदेव से मेरी शिकायत किया करते । मेरे प्रत्येक क्रिया-कलाप की आलोचना करते ।

 एकदिन वासुदेव के माध्यम से उन्होंने मुझे मेरे वहाँ रहने से उन्हें कोई लाभ नहीं होने की बात कहबा दी । मैं दूसरे ही दिन पेटी-बाकस, किताब, कपड़े, बिस्तर लेकर मिश्रटोला में दारोगा लॉज आ गया ।

कबड़ाघाट से निकलते ही ऐसा अनुभव हुआ मानो पिंजरे का पक्षी मुक्त गगन में उड़ान भरने लगा हो । वहाँ लगभग 35 छात्र रहते होंगे । छात्रों में आपस में खूब डिस्कसन होता । पढ़ाई की दृष्टि से यह मेरे लिए अनुकूल स्थान था । यहाँ 8 रुपए भाड़ा लगता था लेकिन मन की शान्ति और प्रसन्नता के आगे उसे फ्री से भी अच्छा समझना चाहिए ।

केवल एकान्त जगह होने से नहीं होता, मन की शान्ति और प्रसन्नता का असली महत्व है ।

मेरे एक ग्रामीण मित्र स्व0 भवनाथजी मेरे साथ पढ़ाई करने के उद्देश्य से मधुबनी से दरभंगा आ गए । अब तो और अधिक मन लगने लगा । खाना बनाने में भी उनका सहयोग मिलने लगा । स्टोव पर स्वादिष्ट भोजन बनने लगा ।

इंजीनियरिंग प्रतियोगिता की असली तैयारी मैंने यहीं से की ।

पढ़ाई में कितना मन लग रहा था वर्णन नहीं कर सकता ! 

यहीं से मैं, कमलेशजी और लीलाजी अभियांत्रिकी प्रतियोगिता परीक्षा देने पटना गए । गुलज़ारबाग़ पॉलिटेक्निक में सेंटर था ।

दरभंगा में राम मन्दिर पर RSS का कार्यालय था । वहाँ दरभंगा के प्रचारक श्री राम सेवक शरण रहते थे । उनके कारण हमलोग भी RSS की शाखाओं में काफी सक्रिय थे ।

राम सेवकजी का पत्र लेकर हमलोग RSS के कदमकुआं स्थित मुख्यालय भवन में ठहरे थे । बहुत साफ-सुथरा भव्य दो मंजिला भवन था । हमलोग ग्राउंड फ़्लोर पर हॉल में अंटके थे । कमलेश जी का ज़िक्र पत्र में नहीं था अतः कुछ आपत्ति हुई, लेकिन फिर उन्हें भी रहने की स्वीकृति मिल गई । शायद चार-पाँच दिन रहना पड़ा ।


पटना जैसे विशाल शहर में घूमने का कुछ अलग ही आनंद था । उस समय फुरसत मिलते ही पैदल पूरा पटना छान मारता था । गाँधीमैदान, गोलघर, चिड़ियाघर, गवर्नरहाउस तो हमलोग बातचीत करते टहल लेते थे । 

अभी लगभग 31 वर्षों से पटना में रह रहा हूँ लेकिन अधिक समय घर या ऑफिस में ही बीता है । बिना काम का कहीं नहीं गया हूँ । उस समय की बात ही कुछ और थी । एक -आध मित्र साथ रहे तो सुबह से शाम तक कदमकुआं से गुलज़ारबाग, कंकड़बाग से सचिवालय तक पैदल यात्रा करना आम बात थी ।

हँसते-खेलते हमलोगों ने परीक्षा दी । परीक्षा के बाद आपस में प्रश्न-उत्तर पर खूब डिस्कसन होता, खूब मजा आता । बातचीत करते हुए गुलज़ारबाग से कदमकुआं आ जाते, बीच में गाँधीमैदान में भी टहल लेते ।


****शिक्षा :- केवल एकान्त स्थान से कुछ नहीं होता, मन अगर शान्त और प्रसन्न रहे तो भीड़-भाड़वाले जगह में भी कोई अच्छी साधना/पढ़ाई कर सकता है ।****

Wednesday, May 26, 2021

दादाजी के संस्मरण :-(1)


1. मित्रों से न झगड़ें :-

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यह उन दिनों की बात है जब मैं करमौली प्राथमिक विद्यालय में दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था । उसी दौड़ान बड़े भैया के साथ धनबाद जाने का प्रोग्राम बना । मैं खबर सुनकर खुशी से नाचने लगा ।

बड़े भैया भारतीय रेल में ड्राइवर थे । पूर्व में स्टीम इंजिन चलाते थे, बाद में इलेक्ट्रिक इंजिन चलाने लगे । प्रारंभ में मालगाड़ी और बाद में यात्री गाड़ी चलाते थे । कभी-कभी राजधानी एक्सप्रेस भी चलाते थे ।

धनबाद जाकर नए माहौल में मुझे काफी प्रसन्नता हुई । शुद्ध देहाती वातावरण से सीधे आधुनिक शहरी  लोगों के बीच पहुँचकर मैं प्रसन्नता से खिल उठा । कहाँ गाँव का अनियमित जीवन जहाँ न समय पर स्नान, न जलपान, न भोजन ! और कहाँ पूर्ण नियमबद्ध शहरी जीवन । सभी दैनिक कार्यों का समय निर्धारित था ।

यद्यपि मैं दुबला-पतला था लेकिन

गाँव के स्वच्छ वातावरण में पले होने के कारण मेरा शरीर बहुत बलबान था । धनबाद में अपने से अधिक उम्र के बच्चों को भी मैं खेल-खेल में पटक देता था । पढ़ाई में भी मैं काफी मेधाबी था । दूसरी कक्षा में उन दिनों मात्र दो विषय हिन्दी और गणित पढ़ाए जाते थे । मैंने दोनों विषयों की किताबों को रट लिया था । जहाँ धनबाद के मेरी कक्षा के बच्चे क ट करते हुए रुक-रुककर पढ़ते थे वहीं मैं धरधराकर ननस्टॉप पूरी किताब पढ़ जाता था । उसी तरह गणित भी प्रारम्भ से अन्त तक कुछ ही समय में बना जाता था । फलतः मैं दूसरी कक्षा में फर्स्ट आ गया ।


कुछ लड़के मुझसे जलने लगे । चूँकि मैं बलिष्ठ था इसलिए मुझसे लड़ते नहीं थे लेकिन अन्दर-अन्दर मुझसे बदला लेने के लिए मौके की तलाश में रहते थे । 

एक रोज घर के बाहर एक नल पर मैं स्नान करने गया । लाल नाम का एक लड़का पहले से स्नान कर रहा था । मैंने उसे धक्का देकर भगा दिया और स्वयं स्नान करने लगा । मेरे मुँह पर साबुन लगा हुआ था, आँखें मूँदी हुईं थीं ।

लाल अपने घर से पीतल का एक बड़ा सा लोटा लेकर आया । मेरी नाक पर कसकर लोटे से प्रहार कर भाग गया । मेरी नाक की जड़ में लोटे के नुकीले कोर से गहरा घाव हो गया और खून बहने लगा । अस्पताल जाकर बैंडेज कराना पड़ा । काफी दिनों के बाद घाव ठीक हुआ लेकिन बचपन का वह चिन्ह अभी भी नाक पर है ।


शिक्षा :-

***बच्चों को सहपाठियों से मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए । ताकत के बल पर किसी कमजोर को नहीं दबाना चाहिए ।***


2. अपने सामान की रक्षा खुद करें :-

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यह घटना उन दिनों की है जब मैं धनबाद में रेलवे स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था । ठेठ गाँव से पहले-पहल शहर जाने के कारण नए माहौल में मुझे बड़ा आनन्द आता था और पढ़ने-लिखने में भी बहुत मन लगता था । दूसरी कक्षा में प्रथम आने के चलते मैं सबका चहेता हो गया था और स्कूल के सभी शिक्षकगण मुझसे  अत्यधिक स्नेह रख़ते थे । 


मेरा प्रिय विषय गणित था । उन दिनों पाठ्यपुस्तक के अलावा 'चक्रवर्ती' द्वारा लिखित गणित की एक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध थी । गणित में रुचि रखनेवाले मेधाबी छात्र निश्चित रूप से चक्रवर्ती की पुस्तक से सवाल बनाते थे और विशेषज्ञता प्राप्त करते थे । आजकल भी विद्यार्थी 'कुमौन' क्लासेज में गणित के प्रश्न हल करते हैं ।

जाड़े का समय था । एक दिन मैं क्वार्टर के आगे खुले स्थान में जमीन पर चादर बिछाकर धूप में चक्रवर्ती की किताब से गणित के प्रश्न हल कर रहा था । कुछ कार्यवश किताब-कॉपी को वहीं छोड़कर क्वार्टर के अन्दर गया । कुछ देर के बाद लौटा दो देखता हूँ कि मेरी क़िताब को एक गाय खा रही है । जबतक मैं दौड़कर गाय के पास पहुँचा तबतक वह पूरी किताब खा चुकी थी । मैं बहुत रोया । फिर मैं उस किताब को नहीं खरीद सका । उस घटना को याद कर आज भी मैं दुखी हो जाता हूँ । 

काश! मैं उस दिन उस किताब को लावारिस खुले स्थान में छोड़कर घर नहीं जाता तो गाय नहीं खा पाती!


*****शिक्षा :-  छात्रों को अपने सामानों की हिफाजत स्वयं करनी चाहिए ।*****


3. झूठ न बोलें एवं किसी के साथ भेद-भाव न हो :-

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धनबाद के रेलवे स्कूल में मेरे नाम लिखाने से पहले उस कक्षा में एक लड़की प्रथम आती थी । उसका नाम दमयन्ती था । वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ी थी और काफी लम्बी थी । उसके पिताजी भी रेलवे में ड्राइवर थे । हमलोगों का डेरा अगल-बगल में ही था । मेरे जाने के बाद दमयन्ती सेकंड करने लगी । इसलिए सदैव मुझे कोसती रहती थी-" अगर यह नहीं आता तो मैं ही हमेशा फर्स्ट आती रहती, कहाँ से यह मेरे दुर्भाग्य से टपक पड़ा!"

लेकिन मैं नहीं समझ पाता कि इसमें मेरा क्या दोष है! सब कोई प्रथम आना चाहता है और मिहनत करता है ।

तीसरी कक्षा में भी मैं प्रथम आया । काफी शाबाशी मिली । 


चौथी में मेरा नाम लिखाया गया । पूरे स्कूल में सबसे मेधाबी छात्र के रूप में मेरा नाम लिया जाने लगा । जो गणित पाँचवीं के छात्रों से नहीं बनता था वह भी मैं बना देता था । मैंने अंग्रेजी भी सीखना शुरू किया और प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । इतिहास, भूगोल, समाज अध्ययन की भी पढ़ाई होने लगी ।

कुछ दिन के बाद मैंने देखा कि बारी-बारी से बच्चों के अभिभावक आते थे और प्रधानाचार्य उन्हें बच्चे के लिए पुस्तकें, स्कूल बैग, स्कूल ड्रेस ...आदि देते थे । मुझे आश्चर्य होता था कि प्रथम आने के बावजूद मुझे वे सब क्यों नहीं मिल रहे हैं । मेरे सब्र का बांध टूट गया । मैंने घर आकर भैया से झूठ बोल दिया कि आपको प्रधानाचार्य ने बुलाया है । मेरे मन में यह भ्रम पैदा हो गया था कि अभिभावक के आने पर ही वे सब चीजें मिलती हैं ।

दूसरे दिन बड़े भैया प्रधानाचार्य से मिलने स्कूल पहुँच गए । प्रधानाचार्य ने अनभिज्ञता प्रकट की-" मैंने तो नहीं बुलाया था" । मुझे बुलाया गया । मुझसे पूछा गया तो मैंने मन की बात प्रकट कर दी-" मैं प्रतिदिन देख रहा था कि सभी लड़कों को अच्छे-अच्छे उपहार मिल रहे हैं । मैंने सोचा कि शायद अभिभावकों के आने पर ही मिलते हैं, अतः मैंने भैया को बुला लिया ।"

सभी शिक्षकगण और भैया भी मेरे बाल्य मन पर हँसने लगे ।

प्रधानाचार्य ने मेरी पीठ को ठोककर  मुझे एनुअल डे पर सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार देने का आश्वासन दिया और विदा किया ।

घर आकर भैया बोले कि जिसके पिताजी रेलवे में हैं उसी को वे सारे उपहार मिलेंगे । जिसके भाई हैं उसको नहीं । मुझे रेलवे के इस  नियम पर बहुत गुस्सा आया ।

बच्चों को नियम-कानून से क्या मतलब! उसे तो किसी भी तरह उपहार मिलना चाहिए !!!



****शिक्षा :- झूठ नहीं बोलना चाहिए । ऐसा नियम नहीं होना चाहिए जो विद्यार्थियों के साथ भेद-भाव करे और जिससे बच्चों के कोमल दिल को ठेस पहुँचे ।*****


4. केवल किताबें रखने से नहीं, पढ़ने से विद्या आती है :-

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धनबाद में चौथी कक्षा में पढ़ने के दौड़ान अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त करमौली आने का प्रोग्राम बन गया । पढ़ाई के बीच सत्र में ही मुझे गाँव आना पड़ा । उन दिनों गाँव में पढ़ाई में इस तरह का व्यवधान कोई मायने नहीं रखता था ।

उपनयन संस्कार में लगभग एक माह मैं व्यस्त रहा । फिर कपरिया माध्यमिक विद्यालय में चौथी कक्षा में नाम लिखाया ।

करमौली में भी प्राथमिक विद्यालय था लेकिन अमीरजी और चन्दूजी जैसे सीनियर मित्रों की संगति प्राप्त करने के निमित्त मैंने कपरिया में पढ़ने को प्राथमिकता दी । सीनियर लोगों की संगति से मुझे काफी लाभ हुआ, जो प्रश्न नहीं समझ में आता था उनलोगों से पूछ कर समझ लेता था ।

चूँकि मैं बीच सत्र में अप्रैल के अंत मे आया था अतः कपरिया स्कूल में चार महीने की पढ़ाई हो चुकी थी । सिलेबस भी बदल गया था । मात्र हिन्दी और गणित की पुस्तकें एक ही थीं, बाँकी सब बदल गईं थीं । मैंने सहपाठियों के सहयोग से पढ़ाई शुरू की । खूब परिश्रम करने लगा । दोस्तों से किताबें माँगकर लाता और एक ही दिन में कई-कई चैप्टर कण्ठस्थ कर लेता । गर्मी की छुट्टियों में मैंने सारी पुस्तकों को पढ़ लिया । सारे गणित के प्रश्न हल कर लिए । सीनियर मित्रों का सहयोग बहुत काम आया । सुबह में तीन बजे ही उठ जाता और पढ़ने लगता । सरस्वती माता की कृपा से पढ़ाई में काफी लगन आ गई ।

जब आप समझने लगते हैं तो पढ़ाई में मजा आने लगता है । मजा आने लगे तो और पढ़ने से ज्ञान की काफी वृद्धि होती है ।

कपरिया स्कूल में चारों तरफ के दसों गांवों के काफी मेधाबी विद्यार्थियों के रहने के बावजूद लगन और परिश्रम के बल पर मैंने चौथी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया ।

दूसरे की किताब माँगकर पढ़ने से  मुझे कुछ अधिक ही लाभ हुआ । सोचता था कि लौटाना है इसलिए जल्दी-जल्दी पढ़ लूँ ।


****शिक्षा :- * अगर किसी से कोई किताब माँगे तो जल्दी से पढ़ लें और लोटा दें ।

**जहाँ भी जो चीज नहीं समझ सकें तो सीनियर छात्र, शिक्षक अथवा अभिभावक से निःसंकोच पूछकर समझ लें ।

***मात्र घर में किताब रख लेने से ज्ञान नहीं होता, पढ़ने से ही ज्ञान होता है ।

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5. तपस्या का फल मीठा होता है :-

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उन दिनों गाँव के स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई छट्ठी कक्षा से प्रारंभ होती थी । मैं धनबाद में चौथी कक्षा में ही अंग्रेजी का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त कर चुका था । छट्ठी कक्षा तक जाते-जाते अच्छी तरह  पढ़ने लगा था । ट्रांसलेशन और ग्रामर भी काफी कुछ सीख चुका था । फलस्वरूप छट्ठी के लड़के जब ए, बी, सी, डी.... सीख रहे थे तब मैं धुरझार अंग्रेजी रीडिंग दे रहा था । मैं अंग्रेजी में अपने सहपाठियों के बीच गुरु की भूमिका में आ गया था ।

गर्मी की छुट्टियों का मैं पढ़ाई-लिखाई में भरपूर उपयोग करता था । आम के बगीचे में चादर बिछाकर बैठ जाता और गणित के प्रश्न हल करता रहता । फलतः पूरी किताबें गर्मी छुट्ठी में हल कर लेता । छुट्टी के बाद तो मेरा रिविजन चलता रहता ।

घर पर भी छोटे-छोटे बच्चे (महेन्द्र, नवल, युगल, प्रबल...) सुबह-शाम मेरे साथ पढ़ने बैठ जाते थे । मैं उनलोगों के ट्यूटर की भूमिका में रहता था ।

आप स्वयं के लिए पढ़ते समय जितना ज्ञान अर्जित करते हैं उससे सैकड़ों गुना ज्ञान किसी को पढ़ाने पर अर्जित कर लेते हैं । किसी अन्य पदार्थों के दान करने से भौतिक रूप से वह घटता है लेकिन विद्या के दान करने से उसमें काफी वृद्धि होती है । बच्चों को पढ़ाने के फलस्वरूप मुझमें काफी परिपक्वता आने लगी । मैं पाँचवी कक्षा में भी प्रथम आया ।

****शिक्षा :- विद्या दान करने से वृद्धि होती है ।*****


 6. भाग्य अच्छा हो तो अच्छे संयोग भी बनते हैं:-

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उन्हीं दिनों कपरिया मिडिल स्कूल के परिसर में ही कपरिया उच्च विद्यालय प्रारंभ किया गया । उसके मुख्य कर्ता-धर्ता मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य स्वर्गीय यमुना प्रसाद सिंह ही थे । उच्च विद्यालय में नए-नए उच्चकोटि के शिक्षकों की बहाली हुई । जो भी शिक्षक उच्च विद्यालय में आते उन्हें मिडिल स्कूल में भी भेजा जाता । उन शिक्षकों के आधुनिक उच्च ज्ञान से हमलोग भी काफी लाभान्वित हुए । एक से बढ़कर एक अच्छे शिक्षक योगदान करते थे । कम वेतन मिलने के कारण वहाँ अधिक दिन नहीं टिक पाते थे । जैसे ही कहीं दूसरी नोकरी मिलती भाग जाते थे । 

राजकर्ण बाबू, अभिमन्यु सिंहजी, प्रताप नारायण झा, राजेन्द्र प्रसाद...उनमें से कुछ नामी शिक्षक थे ।

उन योग्य शिक्षकों के उच्च ज्ञान से हमलोग काफी लाभान्वित हुए ।

राजकर्ण बाबू हिस्ट्री, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । राजेन्द प्रसादजी का गणित पर पूरा अधिकार था । अभिमन्यु सिंहजी विज्ञान के महारथी थे । प्रताप नारायण बाबू  विज्ञान और गणित के विद्वान थे ।

हमलोग कठिन से कठिन प्रश्न उनलोगों से पूछते और वे लोग हँसी-हँसी में हल कर देते । राजेन्द्र बाबू से मैथ सीखने के लिए तो हमलोग करमौली से शाम में भी जाते थे । खाना घर से ले जाते, रात में उनसे पढ़ने के पश्चात् खाना खाकर वहीं बेंच पर सो जाते । सुबह में भी उनसे पढ़कर घर आते और स्नान- भोजन कर फिर स्कूल जाते ।

घर से स्कूल करीब 2 किलोमीटर था । अतः यह कार्य बहुत कठिन था । गर्मी के समय मॉर्निंग स्कूल में यह लाभदायक होता था । सुबह का क्लास करके ही घर आते तो दुबारा नहीं जाना पड़ता । लेकिन शाम को जानेवाला  कार्यक्रम हमेशा नहीं होता था ।

जब कुछ विशेष समझना होता तभी शाम में जाते थे ।


इस तरह हमलोगों के ज्ञान में काफी वृद्धि होने लगी । बल्कि उन अच्छे शिक्षकों की संगति से हमलोग विशेष ज्ञान प्राप्त करने लगे जिसका लाभ उच्चशिक्षा में काफी हुआ । हाई स्कूल में जाने पर हमलोगों को पूर्व का ज्ञान बहुत काम आया ।

शिक्षा :-परिश्रम का फल मीठा होता है । पढ़नेवालों को संयोग भी अच्छे मिलते हैं ।


7. कभी-कभी निर्दोष को भी दंड मिल जाता है :-

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उन दिनों छात्रों की छोटी-छोटी गलतियों पर भी खूब पिटाई होती थी । कुछ शिक्षक तो पीटते समय जल्लाद बन जाते थे । कभी-कभी तो किसी-किसी लड़के के अभिभावक विद्यालय आकर पीटनेवाले शिक्षकों से झगड़ भी जाते थे । यदा-कदा वैसे शिक्षकों की पिटाई भी हो जाती थी ।

वर्ग में प्रथम आने के कारण सभी शिक्षक मुझे बहुत मानते थे । लेकिन कुछ भुसकॉल शिक्षक  मुझसे चिढ़े भी रहते थे क्योंकि मैं बहुत प्रश्न करता था और उनकी स्थिति असहज हो जाती थी । वे मुझे पढ़ाई से इतर कार्यों में प्रताड़ित करके मन की भड़ास निकालते थे ।

मैं छट्ठी कक्षा में भी प्रथम आया । सातवीं कक्षा में नामांकन हुआ ।

नामांकन के तुरत बाद सरस्वती पूजा का समय आया । मुझे ही पूजा का पुजारी बनाया गया । मुझे बड़ी खुशी हुई । पूर्ण श्रध्दा से मैंने माँ वाग्देवी की पूजा की । अत्यन्त उल्लासपूर्ण माहौल में माँ वाणी का पूजनकार्य और प्रसाद वितरण सम्पन्न हुआ । 

रात में सभी शिक्षकों और कुछ छात्रों का भोजन स्कूल में ही बना । मैं चूँकि पुजारी बना था अतः पवित्रता के ख्याल से कुछ करता नहीं था और दूर में ही बैठकर सभी क्रिया-कलापों का आनन्द ले रहा था । प्रधानाचार्य चावल पक जाने पर माँड़ पसा रहे थे ।

मुझे बैठा देखकर एक शिक्षक स्व0 घूरन झा सर मेरे पीछे में चुपचाप पैर मारकर आए । वे भूल गए कि मैं पुजारी हूँ और मुझे पवित्रतापूर्वक रहना है । उन्हें तो प्रधानाचार्य को खुश करना था और मुझ पर अन्दर की  भड़ास निकालनी थी । मुझे जोर से डाँटा "प्रधानाचार्य खाना पका रहे हैं और तुम लाट साहब की तरह बैठे हुए हो!" इतना कहकर उन्होंने मुझे कसकर एक थप्पड़ जड़ दिया । मेरा कान सुन्न हो गया । मैं हड़बड़ा गया । माँड़ पसाने के लिए दौड़ा, लेकिन प्रधानाचार्य ने मुझे छूने नहीं दिया । उल्टे घूरन सर को ही उन्होंने डाँट पिलाई ।

मुझे समझ में नहीं आया कि मेरी क्या गलती थी क्योंकि मुझे लोगों ने पवित्रतापूर्वक रहने को कहा था और कुछ भी छूने से मना किया था । 

वह घटना इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है । स्व0 घूरन सर ने अनावश्यक मुझे थप्पड़ मार दिया था ।

शिक्षा :- कभी-कभी निर्दोष को भी दंड मिल जाता है । लेकिन दंड देनेवाले को अन्दर-अन्दर ग्लानि जरूर महसूस होती होगी ।


8. क्रोध विवेक को खा जाता है, क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है ।

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 अब मैं सातवाँ में आ गया था । मिडिल स्कूल के सबसे सीनियर कक्षा का प्रथम छात्र! सभी छात्र मुझसे कुछ-कुछ पूछते रहते थे जिससे मेरे ज्ञान की वृद्धि होती रहती थी और अपने वर्ग के विषयों में अनायास ही परिपक्वता आ रही थी । अमीरजी और चंदूजी कपरिया उच्च विद्यालय में क्रमशः दसवीं और ग्यारहवीं के छात्र थे । दरबाजे पर बैठकर उन्हीं लोगों के साथ मैं भी होमवर्क करता रहता था । 

उन दिनों सातवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड द्वारा संचालित होती थी । पूरे बिहार के छात्रों के बीच कंपीटिशन होता था । सातवीं की पढ़ाई बहुत महत्वपूर्ण थी । मैं अपनी तैयारी से पूर्ण आस्वस्त था । परीक्षा से कोई भय नहीं था । ऐसा कोई प्रश्न नहीं था जिसे मैं नहीं जानता था । मेरी अंग्रेजी भी अच्छी हो गई थी । एक दिन दरबाजे पर पढ़ते समय मेरी नजर अमीरजी की दसवीं की अंग्रेजी ट्रांसलेशन की किताब पर पड़ी । मैं उसे उलटने लगा । उसमें से मैंने अंग्रेजी में ट्रांसलेशन करने के लिए हिन्दी का एक वाक्य अपनी कॉपी में नोट कर लिया । वह काफी लम्बा था । मैं उसका ट्रांसलेशन नहीं जानता था । वाक्य इस प्रकार था -"केवल तुम ही नहीं तुम्हारा भाई भी तुम्हारे साथ कल मेरे यहॉं आया था "।

स्कूल पहुँचने पर जब प्रधानाचार्य मेरी कक्षा में पढ़ाने आए तो मैंने अपनी कॉपी उनके आगे कर ट्रांसलेशन बनाने का अनुरोध किया । कॉपी देखकर अचानक उन्हें मुझपर बहुत क्रोध आ गया । उन्होंने समझा कि मैं उनके ज्ञान का टेस्ट ले रहा हूँ । वे उस जमाने के आर्ट्स ग्रैजुएट थे जब इलाके में गिनेचुने ही ग्रैजुएट थे । उन्हें अंग्रेजी का बहुत अच्छा ज्ञान था । मैं महज सातवीं कक्षा का छात्र उनका टेस्ट क्या लेता! मैं तो मात्र सीखने की दृष्टि से कौतूहलवश उनसे पूछ बैठा था ।

क्रोध में ही उन्होंने उस ट्रांसलेशन को बोर्ड पर बनाया और सभी छात्रों पर अपने ज्ञान का अहंकार प्रकट किया-" तुम्हारा प्रधानाचार्य एक ग्रैजुएट है । इस इलाके के सभी प्रधानाचार्यों से अधिक ज्ञान रखता है....."। 

इसके बाद पैर पटकते हुए उसी क्रोधित मुद्रा में जोड़ से बोलते हुए क्लास से निकल गए । 

उनको क्रोधित देख सभी शिक्षक घबड़ाकर उनके कक्ष की ओर दौड़े । प्रधानाचार्य ने उनलोगों से मेरी धृष्टता के बारे में बताया ।

स्व0 घूरन सर क्लास में आए और मुझे मेरी गलती का एहसास कराया । 

मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी । मेरा उद्देश्य सीखने का था लेकिन प्रधानाचार्य ने उसका उल्टा अर्थ लगा लिया था।

थोथी दलील देकर अपने को निर्दोष साबित करने की अपेक्षा

मैंने प्रधानाचार्य के कक्ष में जाकर उनसे क्षमा याचना करना श्रेयस्कर समझा ।

उनके अहंकार की तुष्टि हुई और उनका क्रोध शान्त हुआ । उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया ।

मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि उनसे ट्रांसलेशन पूछकर क्या वास्तव में मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी थी!

ख़ैर, क्षमा माँगकर मेरे द्वारा उनकी नजर में हुई भूल का मैंने प्रायश्चित कर लिया । 


मेरे सौम्य और आज्ञाकारी व्यवहार के चलते उस घटना को प्रधानाचार्य भूल गए और उनका स्नेह बाद में भी मुझपर वैसा ही बना रहा । वे इस बात को समझते थे कि मैं उनके स्कूल का गौरव हूँ और बोर्ड परीक्षा में भी मुझसे ही स्कूल का नाम ऊँचा होना था ।

शिक्षा :- भूल से भी गलती होने पर क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है ।


9. कपरिया मिडिल स्कूल में कुश्ती प्रतियोगिता :-

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मैं दुबला-पतला सामान्य कदकाठी का होते हुए भी अंदर से बहुत ताकतवर और ऊर्जावान था । खेलकूद में भी औवल आता था । बहुत अच्छा फुटबॉल का खिलाड़ी था । दौड़ प्रतियोगिता, कबड्डी प्रतियोगिता.... सबमें प्रथम आता था ।

विद्यालय में कुश्ती का आयोजन हो रहा था । करमौली से कपरिया स्कूल जाने के बीच में भलनी गाँव पड़ता है । भलनी में रास्ते के किनारे भगतजी(फूल विक्रेता) के यहाँ एक साधु आए थे । हमलोग स्कूल जा रहे थे तो भीड़ देखकर रुक गए । साधु को देखकर हमलोगों ने प्रणाम किया । साधु ने आशीर्वाद दिया और कुछ पूछने को कहा । मैंने कुस्ती में जीतने का उपाय पूछा । साधु ने पश्चिम-दक्षिण कोना में खड़ा होकर उत्तर-पूरब मुखकर हनुमानजी का स्मरण कर कुश्ती लड़ने पर विजय निश्चित होने का वचन दिया ।

मुझे कुश्ती में रुचि नहीं थी । वैसे भी कुश्ती लड़ना मंदबुद्धि लोगों का काम माना जाता है । मैं वर्ग में प्रथम आने के कारण मंदबुद्धि का कार्य कुश्ती से दूर रहना चाहता था ।

निर्धारित समय पर कुश्ती प्रतियोगिता शुरू हुई । मैं दर्शक दीर्घा में खड़ा था । कुश्ती लड़नेवाले छात्र अलग खड़े थे । कई जोड़े छात्रों ने कुश्तियाँ लड़ीं । मेधानन्द नाम का एक लड़का बहुत ही मसखरा था । जब उसकी बारी आई तो वह उछलकर आखाड़ा में कूदा और मेरे साथ लड़ने का प्रस्ताव रखा । निर्णायक के रूप में रामस्वार्थ सर थे । उन्होंने मुझे पूछा तो मैंने मना कर दिया । लेकिन मेधानन्द बार-बार ताल ठोककर मेरा ही नाम लेकर ललकार  रहा था । दूसरी बार सर के पूछने पर मैं तैयार हो गया । 

साधु के कहे अनुसार दक्षिण-पश्चिम कोने में उत्तर-पूरब मुख करके हनुमानजी का नाम लेकर मैंने लड़ना शुरू किया । कुछ सेकंड के बाद ही मैंने एक ऐसा दाँव मारा कि वह धड़ाम से गिरा और चारों खाने चित्त हो गया । उसका बायाँ हाथ टूट गया । सब लड़के उसको टांगकर गाँव लाए ।

वह रास्ते भर कुहरता रहा औऱ मुझे कोसता रहा ।

मुझे अन्दर-अन्दर खूब खुशी हो रही थी, साधु की बात पर विश्वास हो गया था ।

शिक्षा :- ईश्वर का नाम लेकर समर्पित भाव से काम करने पर सफलता जरूर मिलती है ।



10. सातवीं बोर्ड की परीक्षा :-

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1966 ई0 के दिसम्बर माह में सातवीं बोर्ड परीक्षा का समय आया । बोर्ड द्वारा परीक्षा केन्द्र दूसरे विद्यालय में रखा जाता था ताकि परीक्षा कदाचार मुक्त हो सके । मेरे विद्यालय का परीक्षा-केंद्र उच्च विद्यालय लोहा रखा गया था जो मेरे गाँव से करीब 10 किलोमीटर दूर था । पिताजी के मौसेरे भाई स्व0 गणेश चाचाजी का घर लोहा स्कूल से सटे कपसिया गाँव में था । पिताजी मेरा बक्सा लेकर और मैं खाली हाथ कलुआही तक पैदल पहुँचे । फिर बस पकड़कर कपसिया गए । 

गणेश चाचाजी मुजफ्फरपुर कोर्ट में नोकरी करते थे । चाची गाँव में ही रहती थी । चाचाजी का मलमल गाँव का एक भगिना चंद्रकांत भी परीक्षा देने के लिए उन्हीं के यहाँ ठहरा हुआ था । 

चाची बहुत अच्छे स्वभाव की थी । उस समय तक उन्हें कोई संतान नहीं थी । हमलोगों का माँ की तरह खयाल रखती थी । समय पर भोजन, जलपान कराती रहती थी ।

मैं अच्छी तरह परीक्षा दे रहा था । मेरे स्कूल के अन्य छात्रगण चाचाजी के घर के बगल में ही कपसिया खादी भंडार में ठहरे हुए थे । परीक्षा देकर हमलोग टहलते हुए दस-पन्द्रह मिनट में डेरा पहुँच जाते थे ।

दूसरे दिन की परीक्षा देकर हमलोग डेरा लौट रहे थे । मेरा एक साथी बाबूपाली गाँव का खड़ानन एक बस के पीछे लटक गया । कपसिया में बस रुकी नहीं । चलती बस से वह कूद गया । वह मुँह के बल गिरा । नाक, मुँह और ललाट पर काफी चोटें आईं । उसे अस्पताल ले जाया गया । वह फिर परीक्षा नहीं दे सका ।

बच्चों को कभी भी इस तरह की गलत हरकतें नहीं करनी चाहिए । बहुत ही सावधानीपूर्वक स्कूल जाना और आना चाहिए । भूलकर भी बस, ट्रक के पीछे नहीं लटकना चाहिए । कितने दुःख की बात है कि उसका एक साल बरबाद हो गया । 

विद्यार्थियों को अच्छी पढ़ाई के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य का भी ख्याल रखना चाहिए ।

हमलोगों ने  खूब अच्छी तरह परीक्षा दी । परीक्षा सात दिन चली । पिताजी के साथ मैं आठवें दिन करमौली आ गया ।

****शिक्षा :- बच्चों को स्कूल जाने-आने में खूब सावधानी बरतनी चाहिए, गलत हरकत से दुर्घटना घट सकती है ।*****



 11. कलुआही उच्च विद्यालय में नामांकन :-

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सातवीं बोर्ड का रिजल्ट निकाला । मुझे 600 में 459 अर्थात् कुल 76.5% अंक प्राप्त हुए । कपरिया स्कूल में मेरा सर्वोच्च अंक तो था ही अन्य बहुत सारे दूसरे स्कूलों में भी मेरे जितना अंक किसी को नहीं आया था ।

अब आठवीं में नाम लिखाने की बात थी । 

कलुआही उच्च विद्यालय का उस समय इलाके में बहुत नाम था । मेरा मन वहीं लिखाने का था ।

रिजल्ट के कुछ दिनों बाद पिताजी और रामचन्द्र काका के साथ विद्यालय त्यजन प्रमाण पत्र (SLC=School leaving Certificate) के लिए कपरिया मिडिल स्कूल गया । मैं बाहर ही बैठा । चाचाजी और पिताजी प्रधानाचार्य के कक्ष में गए । प्रधानाचार्य ने एसएलसी देने से मना कर दिया और कपरिया उच्च विद्यालय में ही नाम लिखाने का आग्रह किया ।

दोनों ने आकर मुझे सारी बातें बताईं । मैं कलुआही जाने के लिए अड़ गया । पिताजी जाकर मेरी बात बोले तो भी वो नहीं माने । वे बोले कि उन्हीं लोगों के लिए मैंने उच्च विद्यालय खोला है, अगर मेरा प्रथम छात्र ही चला जायगा तो उच्च विद्यालय कैसे चलेगा ।

मैं हिम्मत करके अंदर गया और कलुआही जाने की जिद्द कर दी ।

प्रधानाचार्य को क्रोध आ गया और उन्होंने आवेश में ही एसएलसी दे दिया । एसएलसी मिल जाने पर मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा ।

 मैंने दूसरे ही दिन कलुआही उच्च विद्यालय में नाम लिखा लिया । कलुआही हाइ स्कूल में चारों तरफ के पचीसों गाँवों के मेधाबी छात्र आए थे । केवल एक छात्र भोगेन्द्र को सातवीं बोर्ड में मुझसे 6 अंक अधिक 465 अंक मिला था । मुझे उन मेधाबी छात्रों और विद्वान शिक्षकों का सान्निध्य बहुत अच्छा लगा । खूब मन लगाकर पढ़ने लगा ।

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कपरिया स्कूल नया था । नई-नई पढ़ाई शुरू हुई थी, मात्र चार साल पूर्व से स्कूल चल रहा था । चंदूजी प्रथम बैच के थे । अभी एक भी बैच की मैट्रिक की परीक्षा नहीं हुई थी । अच्छे शिक्षकगण भाग रहे थे । 

एक-दो साल के बाद दूसरे अच्छे छात्र भी भागकर कलुआही स्कूल आए, लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी । कलुआही जाकर वे लोग बहुत अच्छा नहीं कर पाए क्योकि जड़ कमजोर हो चुका था । मैंने कलुआही स्कूल में नाम लिखाकर कितना अच्छा किया यह वर्णनातीत है । अगर कपरिया स्कूल में नाम लिखाता तो अपना करियर ही बर्बाद करता ।

**** शिक्षा :-  अपने बुरा-भला का निर्णय स्वयं करना चाहिए, दूसरे की खुशी के लिए अपना करियर दाँव पर नहीं लगाना चाहिए ।****



 12. कलुआही स्कूल में आठवीं कक्षा :-

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आठवीं कक्षा की पढ़ाई शुरू हुई । नया माहौल, नए-नए मेधावी छात्रों का सान्निध्य और विद्वान शिक्षकों के मार्गदर्शन का मुझे बहुत लाभ मिला । पढ़ाई में खूब मन लगने लगा । भोगेन्द्र को मुझसे 6 अंक अधिक था । मेरा 459/600 और उसका 465/600 प्राप्तांक था । बाँकी लड़के काफी पीछे थे । मेरे पर और भोगेन्द्र पर सभी शिक्षकों का ध्यान अधिक रहता था । बल्कि भोगेन्द्र पर कुछ अधिक । वह कलुआही मिडिल स्कूल का ही छात्र था । वह छे भाई था । उसका स्थान चौथा था । सभी भाई पढ़ने में बहुत मेधावी थे और वर्ग में प्रथम आते थे । उससे बड़े तीनों भाई कलुआही स्कूल के टॉपर रह चुके थे । भोगेन्द्र को भी तो सातवीं बोर्ड में कलुआही स्कूल में नाम लिखानेवाले सभी छात्रों में सबसे अधिक अंक था ही । एक शिक्षक स्व0 उपेन्द्र ठाकुरजी की भतीजी से उसके बड़े भाई की शादी हुई थी । अतः उसका पलड़ा मुझसे बहुत भारी था ।

लेकिन इस सबसे अनजान मैं अपनी धुन में लगा हुआ पढ़ाई कर रहा था ।

छमाही की परीक्षा की कॉपी जाँचकर छात्रों को देखने के लिए दी जाती थी । उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य स्व0 तपस्वी झा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे । अंग्रेजी की कॉपी का एक-एक अक्षर जाँचते थे । अंग्रेजी में मात्र तीन छात्र पास हुए, बाँकी सब फेल । मुझको 56, भोगेन्द्र को 36 और कासिम को 30 अंक मिले । प्रधानाचार्य के हाथ से अभी तक किसी को 50 से अधिक अंक नहीं मिला था । मेरा काफी नाम हो गया ।

आठवीं की वार्षिक परीक्षा के ठीक पहले बागवानी के दौड़ान भोगेन्द्र का पाँव काफी कट गया । वह लंगड़ाते हुए ही आता और परीक्षा देता । उसके लंगड़ाने के कारण सभी शिक्षकों की सहानुभूति उसके साथ हो गई ।

परीक्षा के बाद भोगेन्द्र के बड़े भाई द्वारा स्व0 उपेन्द्र सर को कहते सुना गया कि हमारे घर का रिकार्ड नहीं टूटना चाहिए । वे उनलोगों के सम्बन्धी भी थे ही ।

उपेन्द्र बाबू सभी विषयों का मार्क्स जोड़ लिए । उनके पास हिन्दी और समाज अध्ययन की कॉपी थी । अन्य सभी विषयों को मिलाकर मुझे 9 अंक अधिक थे । उपेन्द्र सर ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में 6-6 अंक मुझसे अधिक देकर भोगेन्द्र को मुझसे तीन अंक अधिक कर दिया । इस तरह मुझे 705/1000 और भोगेन्द्र को 708/1000 आया और वह प्रथम आ गया ।

उपेन्द्र बाबू की इस बेईमानी का पता किसी को नहीं चला, लेकिन मैंने जब सभी विषयों के अपने और भोगेन्द्र के अंकों की तुलना की तो मुझे उनकी चालाकी समझते देर नहीं हुई ।

फिर भी मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि उसी स्कूल में उन्हीं शिक्षकों से मुझे पढ़ना था । मंद शिक्षक होते हुए भी स्कूल के बगल में घर होने के कारण उपेन्द्र सर का काफी होल्ड था । मैं बिना पैरवी-पैगाम का छात्र गाँव से पाँच किलोमीटर दूर के स्कूल में उनसे कैसे भिड़ सकता था!

मेरी अहिंसक नीति और सभी शिक्षकों को खूब आदर देने के स्वभाव ने उपेन्द्र सर को अन्दर ही अन्दर जरूर ग्लानि महसूस कराई होगी ।

*****शिक्षा :- धैर्य रखने से दीर्घकालिक लाभ होता है ।*****




13. कलुआही स्कूल में नौवीं कक्षा :-

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आठवीं के रिजल्ट से मैं थोड़ा भी हतोत्साहित नहीं हुआ । तीन अंक के अंतर का क्या महत्व है और वो भी एक शिक्षक की बेईमानी से मिले 12 अंक! मैंने इस बार और जोड़-शोर से पढ़ना शुरू किया ।

छमाही की परीक्षा में मुझे सभी विषयों में भोगेन्द्र से अच्छे अंक मिले । चूँकि कानो-कान उपेन्द्र बाबू की बेईमानी की खबर फैल चुकी थी अतः इस बार वे सावधान थे, कॉपी दिखाना भी था । अतः वे तटस्थ होने का नाटक कर नम्बर दिए थे । मुझे उनके विषयों में भी अधिक अंक मिले थे । लेकिन मेरे दुर्भाग्य से भोगेन्द्र के गणित की कॉपी गायब हो गई या कर दी गई ।अतः किस छात्र को उच्चतम अंक मिले यह पता नहीं चल सका । हालाँकि इस बार मुझे बाँकी सारे नौ विषयों में उससे अधिक अंक थे । दसवें विषय गणित में मुझे 100/100 अंक थे । अतः अगर भोगेन्द्र को गणित में 100/100 भी मिलते तब भी मुझे ऑभरऑल अधिक होते ।

छमाही के मार्क्स से मेरा हौसला बुलन्द था । वार्षिक परीक्षा के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिया । मेरी परीक्षा बहुत अच्छी हुई । रिजल्ट से ठीक चार दिन पहले मुझे महेंद्र की जिला स्तरीय पाँचवीं परीक्षा दिलाने के लिए दरभंगा जाना पड़ा । 

उस यात्रा का दरभंगा का मेरा अनुभा बहुत ही कटु रहा । करमौली स्कूल का एक बहुत ही कुसंस्कारी शिक्षक हमलोगों के साथ गया था । उसका घर मधुबनी जिला के बैंगरा गाँव में था । उसके कुकृत्यों के बारे में अधिक लिखकर मैं अपनी लेखनी को अशुद्ध नहीं करना चाहता हूँ । वह अत्यन्त भुसकॉल, घटिया और चरित्रहीन शिक्षक था । नित्य सिनेमा देखता, मेरे पैसों का भोजन- नाश्ता के साथ-साथ अपव्यय भी करता, जबकि उसकी वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी ।


महेंद्र की परीक्षा जिला स्कूल में थी । परीक्षा कक्ष के पीछे के मैदान में मेरे सहित बहुत अभिभावक बैठे हुए थे । मैं नौवीं का छात्र कद-काठी में छोटा और दुबला-पतला ही था । चुपके से परीक्षा कक्ष की खिड़की में झाँककर महेन्द्र से प्रश्न के बारे में पूछने लगा । मेरी तरह और भी लोग खिड़कियों पर  लटके हुए थे । पीछे से दो मुस्टंडे भोलन्टियर ने आकर मुझे पकड़ लिया । सभी अन्य लोग भाग गए । भोलन्टियर्स मुझे एक शिक्षक के पास ले गए । उक्त शिक्षक ने मुझे पूरी ताकत से एक चाँटा मारा । मेरा माथा झनझना गया । मैं भागा और सीधा डेरा आ गया । उस दिन खूब रोया और भविष्य में ऐसा कोई भी कार्य न करने की प्रतिज्ञा की ।

एक सप्ताह के बाद गाँव आया । गाँव में खुशखबरी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । नौवीं का रिजल्ट निकल चुका था और मैंने फर्स्ट किया था । मुझे 818/1000 और भोगेन्द्र को 790/1000 अंक मिले थे । इस प्रकार मुझे भोगेन्द्र से 28 अंक अधिक प्राप्त हुए थे । इस अनुपम खुशी के आगे दरभंगा की दुःखद स्मृति काफूर हो गई ।

***शिक्षा :- परिश्रम और धैर्य का फल हमेशा अच्छा होता है । कभी भी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए । असफलता से सीख लेकर और अधिक ताकत से आगे की तैयारी करनी चाहिए ।*****




 14. कलुआही स्कूल में दसवीं कक्षा :-

-------------------------------------------नौवीं कक्षा में रेकर्ड अंक 818/1000 लाने के कारण मैं स्टार बन गया था । दसवीं कक्षा का प्रथम दिन मेरे लिए सबसे अधिक आनन्द का दिन था । सभी लड़कों ने मेरा स्वागत किया  । अच्छा अंक प्राप्त होने के कारण मुझे मेधा छात्रवृत्ति मिली । पढ़ाई में भी खूब मन लगने लगा । गाँव में भी काफी सम्मान मिला । गाँव के संस्कृत विद्यालय के प्रधानाचार्य श्रद्धेय गुरूजी सहित सभी अध्यापकों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की ।

करमौली गाँव का कलुआही उच्च विद्यालय में अभी तक कोई भी छात्र प्रथम नहीं आया था ।

इधर मैं आनन्दमग्न पढ़ाई में लगा हुआ था उधर सृष्टिकर्ता मेरे लिए कुछ दूसरा ही नाटक रच रहे थे ।  कलुआही स्कूल के कई शिक्षकों की नजर अपनी बच्चियों की शादी के लिए मुझ पर पड़ी । उम्र के हिसाब से सब कोई मुझको तौलने लगे । अंत में सबों ने मिलकर उम्र के अनुसार गणित के शिक्षक श्री महावीर झा की पुत्री के लिए मुझे उपयुक्त समझा ।

शायद 1969 के फरवरी के मध्य का समय रहा होगा । एक शिक्षक ने मुझे कहा कि कल हमलोग तुम्हारे घर पर आएँगे । मैं कुछ नहीं समझ पाया कि मेरे यहाँ क्यों आएँगे । कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य गुरुजी के बहनोई लगते थे । किसी छात्र द्वारा दूसरे दिन करमौली आने  के कार्यक्रम के बारे में उन्होंने गुरुजी को खबर कर दिया । स्कूल से शाम में घर लौटने के क्रम में गुरुजी के चरणस्पर्श करने गया तो उन्होंने मेरी शादी के सम्बन्ध में दूसरे दिन शिक्षकों के करमौली आने की बात कही । मैं स्तब्ध रह गया । मेरे चेहरे पर उदासी छा गई । एक बकरे को बलि चढ़ाने के पूर्व की स्थिति मेरी लगने लगी । गुरुजी के चरण पकड़कर किसी भी तरह शादी रुकवाने का अनुरोध किया । गुरुजी मान गए ।

दूसरे दिन कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य सहित सारे शिक्षक गुरुजी को भी साथ लेकर मेरे दरबाजे पर पहुँच गए । गाँव भर के लोग दरबाजे पर आ गए । 

गाँववालों के लिए शादी-ब्याह की  बातचीत बहुत आनंददायक होती है । सभी लोग लड़कीवालों की तरफ हो जाते हैं और किसी भी तरह शादी तय हो जाय यही सबों की इच्छा रहती है ।

पिताजी संत स्वभाव के थे । एक ही साथ गुरुजी और प्रधानाचार्य सहित कलुआही स्कूल के सभी शिक्षकों को दरबाजे पर देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था । वे इसे अपना अहोभाग्य समझ रहे थे । नहीं बोलने का तो प्रश्न ही नहीं था । एक साथ पिताजी, भैया... सभी लोगों ने स्वीकृति दे दी । अगले माह 6 मार्च को शादी करना तय हो गया । मैं स्कूल से घर आया तो पता चला कि सभी शिक्षकगण आए हुए हैं । मुझे बुलाया गया लेकिन शर्म के मारे मैं दरबाजे पर नहीं गया । उस समय मेरी सहमति-असहमति पूछने का प्रचलन ही नहीं था । अभिभावक जो तय करते थे उसे सिरोधार्य करना था ।

****शिक्षा :- विवाहोजन्ममरणंच यदायत्र भविष्यति ।*****





 15. शादी (06.03.2021) :-

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दूसरे दिन जब मैं ब्रह्मचर्याश्रम गुरुजी के दर्शन करने गया तो कल्हवाली बात पर ही चर्चा प्रारम्भ हो गई । गुरुजी बोले- "शायद ईश्वर की यही इच्छा है  और इसी में आपका कल्याण लिखा हुआ है । मैं तो इस शादी के खिलाफ था लेकिन वे लोग अपने पक्ष में मुझे भी आपके यहाँ लेकर चले गए ।"

मैं बहुत शर्मीले स्वभाव का था । अपनी शादी के सम्बंध में बात करते हुए काफी शर्म महसूस हो रही थी । अरघाबा गाँव का लक्ष्मीकान्त (गोल्डेन) करमौली में अपनी नानी के यहाँ रहता था । हर्ष नारायण, गोल्डन, तिरपित, चंद्रमोहन ....आदि मौसेरे भाई थे । सभी लोग मात्र भोजन करने नानी के घर जाते थे । बाँकी सारे समय गुरुजी के सान्निध्य में संस्कृत विद्यालय पर ही बिताते थे । मुझे भी विद्यालय पर गुरुजी और उनलोगों के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता था ।

कभी-कभी मैं रात में भी वहाँ रुक जाता लेकिन पिताजी को यह पसन्द नहीं था । अतः बेमन से मैं घर आने को मजबूर हो जाता । गोल्डेन के साथ शादी से दो रोज पहले भागने का सोचा लेकिन समय आने पर पिताजी की इज़्ज़त का खयाल कर चुपचाप नियति के चक्र को देखता रहा ।

इस अवधि में स्कूल में सहपाठियों के भी मजाक को झेलता रहा, चुहल का आनंद भी लेता रहा । कभी-कभी शिक्षकों द्वारा भी मजाक किया जाता । कभी-कभी प्रधानाचार्य के डेरा पर तो कभी-कभी अन्य शिक्षकों के डेरा पर मुझे देखने के लिए महिलाएँ बुलाया करतीं । मैं सर झुकाए चुपचाप जाता और चेहरा दिखाकर पूछे गए प्रश्नों का मात्र हाँ/ना में जबाव देकर लौट आता ।


निर्धारित तिथि 06.03.2021 की शाम को बारात के साथ डोकहर भगवती का दर्शन करते हुए शादी करने के लिए नाजिरपुर(बेलाही) पहुँच गया । दरबाजे पर पहुँचा तो मैंने देखा कि सभी शिक्षकगण भरे हुए हैं । मैं चुपचाप सर झुकाए हुए एक किनारे बैठ गया ।

कुछ देर के बाद बहुत सारे लड़के आकर मुझसे विषय सम्बन्धी प्रश्न करने लगे । यह मैथिल ब्राह्मणों में परिपाटी है कि सारात पक्ष द्वारा बारातियों और दूल्हे से खूब प्रश्न पूछते हैं । नहीं जवाब देने या गलत जवाब देने पर ठहाके लगते हैं और लोग खूब आनन्द लेते हैं । जब विषय सम्बन्धी बातें होने लगी तो मैंने अपना मौन तोड़ा । मैं अधिकांश लड़कों को जानता था जो मेरे साथ पढ़ते थे या मुझसे जूनियर थे । उनलोगों को मैंने समुचित जवाब देकर चुप करा दिया । कुछ सीनियर लोग भी थे, उनलोगों को चुप कराना मेरे बस की बात नहीं थी । जो जवाब फुराया वो दिया, नहीं जानने पर मौन रहा । लेकिन साराती पक्ष के लोगों को मालूम हो गया कि लड़का डल नहीं है । मास्टर साहब ने दामाद के रूप में एक अच्छे लड़के का चयन किया है ।

खूब खुशी के माहौल में शादी सम्पन्न हो गई ।


****शिक्षा :- जब कुछ भी समझ  में न आबे तो चुपचाप नियति द्वारा निर्धारित चक्र में चलते रहने में ही भलाई है ।****

Tuesday, May 25, 2021

प्रकृतिक सम्मान

 सब कियो करैत अछि 

विपैतमे भगवानक स्मरण,

सब कियो बजैत अछि जे

भगवान हमरा सँ 

विमुख भ' गेल छथि,

भ' सकैत अछि 

सत्तेमे ओ आँखि मूनि लेने होथि,

हमहूँ सब तँ घोर सांसारिकतामे डूबि 

हुनका साफे बिसरि गेल छी ।


पूर्वकालमे लोकसब 

प्रकृति सँ ततेक प्रेम करैत छलाह जे 

प्रकृति सेहो

हुनका सबहक इच्छाक आदर करैत छलि । 

हमसब अनैतिकतामे डूबि,

दिग्भ्रमित भ',

प्रकृतिक प्रतिकूले 

सबटा आचरण करैत छी,

हुनका संग खेलबार करैत छी,

हुनका कुपित करैत रहैत छी ।

मुदा विपतिक बेर 

हा दैव! हा दैव! करैत छी ।


जकरा सँ विपरीत सोच रखबैक, 

जकर अनादर करबैक, 

जकर सदिखन जड़ि कोरबैक,

जकरा कुपित करैत रहबैक,

ओकरा सँ 

की उमेद करैत छी? 

ओहो तँ उल्टे प्रत्युत्तर देत ने!


सब कियो प्रकृतिक सम्मान करी, 

हुनकर संरक्षण लेल

जी-जान सँ जुटल रही, 

जगत के आत्मरूप बूझी,

सब जीव के 

शिवस्वरूप बूझि पूजन करी...। 

निश्चितरूप सँ 

सबकिछु अनुकूले रहतैक!!!

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माया

 रैन-दिवस हम माया सेबल,

तात्विक ज्ञान कोना भ' पायत!

उरगक भ्रम रज्जूमे होमय,

ज्ञान-ज्योति सँ दूर पड़ायत ।।


छाउर सत्य के झाँपि लेने अछि,

अथक प्रयासें सँ हटि पायत ।

जे भटकय अज्ञान-तिमिरमे

गुरु-ज्ञानक-द्युति सँ लखि पायत ।।


स्वाद अपूर्व होइछ मायाकेर,

मोहपाशमे कसिक' फाँसय ।

धन्य-धन्य सद्गुरु केर किरपा,

भेड़ा बनबा सँ क्यो बाँचय ।।


क्षणभंगुर मायाक फेरमे,

जइड़ एक-दोसर के काटथि ।

बिसरि जीव अपना स्वरूप के,

कुड़हड़ि सँ अपनहि पद छाँटथि ।।


व्यर्थ अरारि करै छथि सब क्यो,

होमय आन कियो नहि जैठाँ ।

एक्के तत्त्व बसय सबहक उर,

बुधुए लोक लड़इ अछि तैठाँ ।।

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कोरोना दैत्य

 आब ककरो भेट करबाक 

कोनो जरूरति नहि,

दूरे सँ बन्धु-बाँधबक 

सब हालचाल  लैत रहू ।

जिनगी बचाबक अछि 

ऐ दुष्ट सँ महायुद्धमे,

गेहक सुदृढ़ किलामे रहि 

कोरोना दैत्य सँ बचैत रहू ।।


जे सब काल्हि तक हरदम 

पार्टीमे जुटैत छल,

आइ हमरा बेमार देखि 

दूरे-दूर भागि रहल ।

बूझि पड़ैछ अपनो लोक

दुश्मन बनि गेल अछि,

अन्तिमो समयमे हमरा सँ सब

कन्नी अछि काटि रहल ।।


एतबो निसोख नै भ' जाउ 

हे हमर मित्रगण!

अपने सुरक्षित रहि 

हित-अपेक्षितोक ध्यान रहय ।

प्रलयकाल निश्चय 

बीति जेबे करतैक एकदिन,

जँ बाँचि गेलहुँ तँ जाहिसँ 

आँखि ने चोराब' पड़य ।।


एक्केटा संदेश अछि 

दूरी के खियाल हो,

मास्क के हरदम 

लगाक' राखू सब ।

काढ़ा,भाफ,गाडगिल 

बचायत सबहक जान,

वैक्सीने पर पूर्ण आश 

लगाक' राखू सब ।। 

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Thursday, March 11, 2021

कटि रहल अछि गाछ सौंसे

कटि रहल अछि गाछ सौंसे,

भू-क्षरण अछि भ' रहल ।

वायु के धूआँ आ गर्दें,

प्रदूषित सब क' रहल ।।


प्रकृति संग व्यवहार अनुचित,

लोक निश-दिन क' रहल ।

जेहन करनी तेहन प्रतिफल,

ओहो बदला ल' रहल ।।


ग्रीष्म धधकाबय जगत के,

धाह स' जिबिते जराबय ।

जाड़ भेल निर्मोह, जीवक-

हड्डियो तक के गलाबय ।।


कतहु अतिशय वृष्टि, दाही-

घ'र आँगन तक दहाबय ।

कतहु होमय महारौदी,

जजातो सबके जराबय ।।


प्रदूषित पर्यावरण अछि,

श्वास दुर्लभ भ' रहल ।

अपन किरदानी स' मानव,

प्राण अपनहि ल' रहल ।।


पठाक' भुवकम्प तांडव-

प्रकृति कुपितें क' रहलि ।

ढाहिक' असमय हिमनद

जान सबके ल' रहलि ।।


वृक्ष के रोपबाक जँ

सब लोक के संकल्प होमय,

फलें पुष्पें भरय धरणी,

प्रदूषण अत्यल्प होमय ।।


गाछ-बिरिछक वृद्धिएँ

सब जीव-जंतुक हएत रक्षण ।

सैह हो पूजा प्रकृति केर,

बनत धरणी अति विलक्षण ।।

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मोन के मारैत रहलौं

 मोन के मारैत रहलौं

नून-रोटी खाइत रहलौं,

इत्र ने श्रृंगार कहियो

रौद मे बौआइत रहलौं ।।


गीत ने संगीत, नहिएँ-

फ़िल्म कहियो देखि सकलहुँ ।

मात्र श्रम के कएल पूजन

चैन सँ कहियो ने रहलहुँ ।।


सोचल होयब बूढ़, तखने-

स'ख़ सबटा पूर कयलेब,

चैन भ' क' गृहस्थी सँ

तीर्थ सबटा टूर कयलेब ।।


उम्र साठिक पार भेल

सब जोड़ दर्दक गेह बनिगेल,

इत्र के ख़ुशबूक बदला

गन्ध आयोडेक्स भरिगेल ।।


कनिक्को ऊर्जा ने बाँचल

स'ख सबटा सेहो मरिगेल,

सुगर, बीपी पस्त केलक

पेट सगरो गैस भरिगेल ।।


दोस्त सबटा छूटि गेल

हँस्सी-ठहक्का घुरि ने आयल,

मोन के लिलसा अपूर्णे

स'ख पूरा क' ने पायल ।।


मनोरथ पूरा कर' सँ

जे अबुझ कतराइत रहता,

बुढापा अयला सँ निश्चय

से मनुज पछताइत रहता ।।


दोस्त सब सँ हीलि मिलि क'

मजा जिनगिक ल' लिय',

बाद मे फुर्सत ने भेटत

मौज सबटा क' लिय' ।

मौज सबटा क' लिय' !!!!

**********************

समय बहुत बलवान

 समय बहुत बलवान

सबदिन लोक बजै अछि ।

लाखपति जँ दहिन, बाम- 

तँ खाक करै अछि ।।


अतिथि थिका सुख-दुःख

आबथि आर पड़ाइथ ।

अविचल जे दूहू मे

असली वीर कहाइथ ।।


अपूर्णे जिनगी तनिक

दूहूँक जे अनुभव ने केलनि ।

से थिका लप्पा-छहरिया

बोझ पिरथी के बढेलनि ।।


समय हुनके नीक जे

अधलाह ककरो ने सोचथि ।

सतत जे सद्कर्म मे रत

अलिप्तेँ धरणी के भोगथि ।।


समय हुनके नीक, पर-

उपकार मे जे रहथि पागल ।

काव्य-शास्त्रक विनोदे मे

सद्पुरुष से रहथि लागल ।।


समय अछि अधलाह तिनकर

सतत व्यसने मे जे लागल ।

कलह, निद्रा मे डुबल जे

बोझ भू पर से अभागल ।।


व्यर्थ नै जिनगी गमाबी

सूर्य सेहो देखू ढलि गेल ।

अकारथ मे अमुल जीवन

केर एक दिन फेर चलि गेल ।।

अकारथ.......... !!!!!

*********कमलजी*********

सज्जनक संगति

 सज्जनक संगति सँ भेटय 

बस्तु बहुतो बिना मंगनहि,

वृक्ष फल सरिताक जल

भेटैछ सबके बिना मंगनहिं ।।

बर्फ शीतलता, सुवासित-

करथि पुष्पो ल'ग गेनहि ।

ऊष्णता पाबैछ तुरतहिं

वह्नि के क्यो ल'ग गेनहिं ।।

पाबि जायत ज्ञान सब क्यो

गुरुक लगमे बैसि गेनहिं ।

कृपा सब क्यो पाबि जायत

ईश के सन्निकट गेनहिं ।।

*********************

लाज मम अहिना बचबिह'

 जाहिमे हम हाथ दै छी

निश्चिते से काज बिगड़य ।

बिना तोहर नाम लेने

काज हम्मर किछु ने सुधरय ।।

भोथ हम हल्लुक समस्यो-

केर हल किछुओ ने सूझय ।

किछुने प्रतिभावान छी हम

बोझ लखि मम माथ घूमय ।।

हे महेश्वर हमर इज्जत

एखन तक तोंही बचेलह ।

लाज मम अहिना बचबिह'

एखन तक जहिना बचेलह ।।

**************************

दुखिया-सुखिया

 दुखिया-सुखिया दू बहिनी छलि,

भेट ने कहियो होइत छलनि ।

सुखिया भागथि जतय कतहु

दुखियाक आगमन होइत छलनि ।।

अनचोकेमे दुनू बहिनके

चौबटिया पर भेट भेलनि ।

मुदित मोन सँ कुशल-क्षेम दुहुँ,

एक-दोसरा सँ पूछि लेलनि ।।

"भाग तोहर बड़ पैघ भेटल छौ"-

बजली बहिनी सँ दुखिया-

"तोरा पाबक लेल लोक सब

सदिखन व्याकुल गे सुखिया ।।"

सुखिया बाजलि-"हम नै, तोहीं-

अतिशय भगवंती छैं जगमे ।

हमरा पबितहिं बिसरि जाइछ सब

प्रभु आ शुभचिंतक पलमे ।।

तों जै घरमे पैर रखै छैं

दैन्य जदपि तै ठाँ पसरय ।

मुदा ने कखनो लोक ओतय के

प्रभु आ अपना के बिसरय ।।"

**********************************

कियै ब्याकुल रहै अछि क्यो

 कियै ब्याकुल रहै अछि क्यो,

पूर्ण रूपे जँ समर्पण ।

कथी के चिन्ता करै छी,

क' दियनु सर्वस्व अर्पण ।।

भक्ति मार्गक खूब चर्चा

लोकसब निशदिन करै अछि । 

बात त्यागक जँ करब तँ 

नहि समर्पण क' सकै अछि ।।

लोक माया आर ईश्वर

एके संग दूनू के चाहथि ।

व्यर्थमे पागल बनल नित

माथ पर चिन्ता के लादथि ।।

सतत माँगक लेल केवल

पत्र-पुष्पो के चढाबथि ।

पूर्णतः विश्वास नै तैं

चैन सँ रहियो ने पाबथि ।।

सकल रचना हुनक जँ छनि,

कियै आकुल रहै अछि क्यो!

जे देलनि मुख भार तिनके

कियै ब्याकुल रहै अछि क्यो !!

***********************

श्रेष्ठजन छथि सुरक्षा-कवच

 नेत्र करुणें हो भरल,

श्रद्धा नमित मम माथ हो ।

पैर सन्मार्गे चलय, 

सहयोग रत दुहुँ हाथ हो ।।


मधुर वाणी मुख सँ निकलय,

जीह सद्भाषण करय ।

श्रोत्र हरिनामक श्रवण, चित-

ध्यान मे लागल रहय ।।


हाल जे पूछय अहाँके,

स्वार्थ नै सदिखन रहय ।

अहाँसँ छै स्नेह अतिशय,

खोज तैं सदिखन करय ।।


ईश के किरपें सँ किछु जन,

अहँक जिनगी मे अबै छथि ।

अमुल नैसर्गिक वचन सँ,

भाग्य के से बदलि दै छथि ।।


श्रेष्ठजन के छत्र-छाँही,

माथ पर नहि बोझ बूझू ।

ओ सुरक्षा-कवच हम्मर,

अनिष्टक अवरोध बूझू ।।


यत्न सँ तै देवता के,

जोगाक' राखल करी ।

तनिक सेवा करी श्रद्धे,

जियाक' राखल करी ।।

जियाक' राखल करी!!!!

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नारिक महतु

 "सहस्रों पुष्प मिलिजुलिक' सुधर माला बनाबै छथि,

सहस्रों दीप मिलिक' आरतिक थारी सजाबै छथि ।

अनंतों बूँद मिलिजुलिक' करथि निर्माण सरिता के,

मुदा एसगरि सुशीला स्वर्ग सम घर के बनाबै छथि ।।"

------महिला-दिवसक हार्दिक शुभकामना!!!!

मिट्ठ बाजक गुर

 शिष्य अछि क्रोधी स्वभावक

गुरुक सम्मुख आबि बाजल-

"क्रोध हमरा सतत आबय

बना दैछ निछच्छ पागल ।।


गुरु! अहँक व्यवहार उत्तम,

सतत मिट्ठे टा बजै छी ।

क्रोध जितने छी, ने कखनो-

कटु वचन ककरो कहै छी ।।


हमर भाग्यक रेख की अछि?

कृपा क' क' ई बतबितहुँ ।

संगहि अप्पन क्रोध जितबा

के रहस सेहो सुनबितहुँ ।।"


संत-"अद्याबधि ने अप्पन,

रहस किछुओ हम जनै छी ।

मुदा तोहर भाग्यरेखा-

के रहस सबटा जनै छी ।।"


-"अहँक शरणागत छी गुरुवर!

चरण-रज सँ सब सिखल ।

कृपा क' क' बता दीतहुँ,

भागमे अछि की लिखल?"


-"लिलाटक रेखा कहै छौ,

आब बेसी दिन ने बचबैं ।

यैह लीखल छौ जे साते

दिनमे तों प्रस्थान करबैं ।।"


आन जँ ई बात कहितै,

शिष्य हँसिकय टालि दीतय ।

मुदा गुरुमुख बात, हिम्मति-

भेलै नहि जे काटि सकितय?


गुरु चरण स्पर्श क' क',

शिष्य मुँह लटका क' चलि गेल ।

ताहि दिन सँ शिष्य केर-

व्यवहार साफे क' बदलि गेल ।।


प्रेम सबसँ करय, नहिएँ-

क्रोध ककरो पर करै छल ।

भजन-पूजा-पाठ ध्यानेमे 

सतत लागल रहै छल ।।


पूर्वमे व्यवहार उल्टा-

केने छल जिनका संगें ।

माँगि माफी करय लागल-

प्रेम ओ तिनका संगें ।।


एलै सातम दिवस तँ ओ-

गुरुक सोझाँ जाय बाजल-

"क्षमा गुरु! आशीष दीय',

देह तजबा समय आयल ।।"


 -"पुत्र! बाजह सात दिन के-

कोन विधि सँ तों बितेलह?

की तों पूर्वे जेकाँ सबपर,

खूब तामस के देखेलह?"


-"गानि-गुथिक' सात टा दिन,

शेष जिनगी केर पाओल ।

पाठ-पूजे-ध्यान-प्रेमें,

डूबिक' तकरा बिताओल ।।


कष्ट देने छलहुँ उरमे

पूर्वमे जकरा सभक हम ।

क्षमा सबसँ माँगि अयलहुँ 

गेह जा तकरा सभक हम ।।"


-"बूझि गेलह मर्म सबटा,

मृदुल व्यवहारक हमर ।

सात दिन सप्ताहमे अछि,

तहीमे सबक्यो मरत ।।"


शिष्य गुरु-संकेत बुझि गेल,

ताप मोनक मे'टि गे'लै ।

मृत्युभय तँ छल बहन्ना,

सार-जिनगिक भे'टि गे'लै ।।

*****************************

बढ़य देश के मान जाहि सँ

 बढ़य देश के मान जाहि सँ 

काज करी से,

सबक्यो हिलिमिलि रही जाहि सँ 

काज करी से ।

जाति-धर्म सँ ऊपर उठिक' 

सोची सबदिन,

प्रेम बढय अति आपसमे 

सब काज करी से ।।


सार्थक राखी सोच 

जइड़ ने ककरो कोरी,

ध्येय रहय उपकारे 

मुँह ने कखनो मोरी ।

राजनीति वा खेल 

करी अवसरक प्रतीक्षा,

सेवें मेवा लाभ

ने आफ़न कखनो तोड़ी ।।


हड़बड़ जे क्यो करता 

गड़बड़ तिनका हेतनि,

हाथ विफलता लाभ 

सफलता दूर पड़ेतनि ।

उत्तम पुत्रक प्राप्ति 

धारि नओ मास गर्भमे,

ऋतु सँ पूर्वे वृक्ष 

सुफल कखनहुँ ने देतनि ।।


कहू बिना उद्यम के 

कहियो फल क्यो पायत!

मात्र मनोरथ सँ की 

भोजन मुखमे जायत !

सूतल सिंहक मुखमे 

कहियो मृग नहि पैसय,

सूतल लोकक घर सँ 

अर्थो दूर पड़ायत ।।

************************

जे बीति गेल तकरा बिसरू

 जे बीति गेल तकरा बिसरू,

आ आगाँ के आबाद करू ।

लौटय ने कहियो भूतकाल,

तँ वक्त किऐ बरबाद करू!!


सब वर्त्तमान मे अगर जीब,

सुन्दर भविष्य होयत नसीब ।

तैं वर्तमान के ठोस करू,

भ' जायत ठोसगर स्वयं नीब ।।


अछि सादा पन्ना भविष् साथ,

पकड़ू कागत आ कलम हाथ ।

लीखू स्वर्णाक्षर वर्तमान,

जै सँ जिनगी भ' जै सनाथ ।।


सब भूतकाल मे नित्य मरथि,

चिन्ता सबदिन भविषेक करथि ।

नहि वर्तमान मे क्यो जीबथि,

व्यर्थहिं चिन्तित बेचैन रहथि ।।


की हएत भविष् से नहि जानी,

भूते चिन्तनरत अज्ञानी ।

सोझाँ अछि सबहक वर्तमान,

ताही मे जीबथि विज्ञानी ।।


अछि बकसि देलक मम पिंड भूत,

बाँचल टा अछि उज्ज्वल भविष्य ।

जँ सँवरि गेल मम वर्तमान,

तँ भूत संगहिं सँवरत भविष्य ।।

तँ भूत संगहिं सँवरत भविष्य!!!

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Friday, January 29, 2021

प्रेम आ अहंता

 अहंता आ प्रेम एक्के-

वृक्ष के दू शाख होमय ।

प्रेम त्यागक लेल आतुर,

अहंता लेबाक सोचय ।।

अहंता लेबाक सोचय,

झुकाओल सबके करै अछि।

प्रेम तँ देबाक आकुल

सतत ओ नमले रहै अछि ।।

जे ने चिखलथि स्वाद प्रेमक

प्रेम रस की बूझि सकता ।

उर तकर रसहीन-उस्सर

जे सतत डूबल अहंता ।। 


बसय सबमे एके ईश्वर,

प्रेम सबसँ करी सदिखन ।

बात ज्ञानक से की बुझता,

अहंमे डूबल जे सदिखन ।।

अहंमे डूबल जे सदिखन,

स्वार्थ पाछाँ रहय पागल ।

सुधा के की स्वाद बूझत,

गोबरक कीड़ा अभागल ।।

बात ई कहियो ने बिसरी,

ईश सबहक उर बसय ।

आन क्यो नहि छथि जगतमे,

एके ईश्वर सबमे बसय ।।

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