Friday, January 29, 2021

प्रेम आ अहंता

 अहंता आ प्रेम एक्के-

वृक्ष के दू शाख होमय ।

प्रेम त्यागक लेल आतुर,

अहंता लेबाक सोचय ।।

अहंता लेबाक सोचय,

झुकाओल सबके करै अछि।

प्रेम तँ देबाक आकुल

सतत ओ नमले रहै अछि ।।

जे ने चिखलथि स्वाद प्रेमक

प्रेम रस की बूझि सकता ।

उर तकर रसहीन-उस्सर

जे सतत डूबल अहंता ।। 


बसय सबमे एके ईश्वर,

प्रेम सबसँ करी सदिखन ।

बात ज्ञानक से की बुझता,

अहंमे डूबल जे सदिखन ।।

अहंमे डूबल जे सदिखन,

स्वार्थ पाछाँ रहय पागल ।

सुधा के की स्वाद बूझत,

गोबरक कीड़ा अभागल ।।

बात ई कहियो ने बिसरी,

ईश सबहक उर बसय ।

आन क्यो नहि छथि जगतमे,

एके ईश्वर सबमे बसय ।।

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