Tuesday, June 14, 2022

श्रेष्ठ

श्रेष्ठ तिनके बुझी जिनकर, शुद्ध पूत विचार छन्हि । पूतता बिन हीन बूझी, जदपि धन अम्बार छन्हि ।। जदपि धन अम्बार छन्हि, याचकके ने भोजन भेटय । दीन रहितो पैघ से जे तुष्ट याचक के करय ।। उदधि अछि आगार वारिक, प्यास नै ककरो मेटाबय । शुद्ध वारि गँहीर कूपक, तृषा प्यासल के मेटाबय ।। *************************

संघर्ष

जै जिनगीमे रौद-घाम नै, से भ' जाइछ छहरियालप्पा । बिना चुनौतीके जिनगी तँ ठहरल पानि-थालके खत्ता ।। ठहरल पानि-थालके खत्ता, कीड़ा-साँप-जोंकके डबरा । ने पीबा-स्नाने जोगड़क, भरिए देब नीक हो तकरा।। जे जिनगी संघर्ष बिना अछि, कनिको रस नै तै जिनगीमे । व्यर्थे बोझ देहकेर ऊघब, कोनो रस नै जै जिनगीमे ।। *****************************

नीक लोक

नीक तकरे बुझी जे निन्दा ने अनकर करय कहियो । जदपि अप्पन त्रूटि लघुतम खेदके प्रगटैछ तइयो ।। पैघ गलतीयो जँ अनकर माफ ओ क' दैछ सदिखन । मदति अनकर करक, ताकथि- सुअवसर छोटो ओ सदिखन ।। मदति यद्यपि करथि, पर- एहसान नै कहियो जनाबथि । जरथि नै अनकर खुशी सँ जश्न हिरदय सँ मनाबथि ।। बूझि अनकर भावना, नै- किमपि ककरो पर हँसै छथि । बात अनकर हृदयके महसूस निज उरमे करै छथि ।। अपन हृदयक ध्वनिक ओ आदर सेहो सदिखन करै छथि । सत्यके संग देथि आ बलवान झूठो सँ लड़ै छथि ।। लेख कविता चित्रकारी गीत-संगीतोमे रुचि छन्हि । सकारात्मक काजमे रत व्यसन सँ अतिशय अरुचि छन्हि ।। आत्मविश्वासे भरल आ बाह्य-अंदर एक छथि, नीक श्रोता प्रखर वक्ता नम्र आ किरतज्ञ छथि ।। प्रकृतिप्रेमी जीवप्रेमी अहिंसक अतिशय सरल, नारियल सम बाह्य दृढ़तम हृदय करुणा सँ भरल ।।

संत :-

संत :- ********* सुभोजन तिनका कराबी, अहाँके जल जे पिऔलनि । दण्डवत तिनका करू जे अहाँ लग सिर के नमौलनि ।। एक पैसा जे कियो, खर्चा- केलनि कहियो अहँक लेल । मोह नै पैसाक राखी, सहस्रों खर्ची तिनक लेल ।। जे करथि उपकार, तिनका सौ गुना क' क' सधाबी । अहाँके जे करथि रक्षा, प्राण तिनका लए गमाबी ।। ई त' भेल व्यवहार जगतक, संत छथि अपवाद एकरो । जे करय अपकार हुनकर, ओ करथि उपकार तकरो ।। ****************************

Sunday, June 12, 2022

भक्तक रक्षाकवच

अनिष्टक भयसँ सशंकित रहै छथि नित लोकसब, किअए ने मजगूत रक्षाकवच धारथि लोकसब । व्यर्थ शंकानिवारण लेल भटकि रहला लोकसब, किअए ने हरिभक्ति रक्षाकवच धारथि लोकसब ।। नाम हरिकेर होइत अछि आधार जीवनप्राण भक्तक, प्रभुक दर्शन लेल प्यासल सतत हिरदय रहय भक्तक । हरि सेहो ब्याकुल रहै छथि सतत रक्षा लेल भक्तक, किमपि नहि ओ सहि सकै छथि कष्ट कनिको अपन भक्तक ।। हरथि दुष्टक प्राण ओ भक्तेक रक्षा केर खातिर, होइत छथि अवतार लेबा पर विवश भक्तेक खातिर । दौड़िक' आबैत छथि प्रभु द्रोपदीकेर लाज खातिर, ध्रुवक निर्मल भक्ति आ प्रह्लादकेर रक्षेक खातिर ।। प्रभुक लेल अमृत सदृश अछि ऐंठ फल शबरी खुआबथि, सुदामाकेर मित्रता प्रभु नग्न पएरे तुरत धाबथि । फलक खोंइचा खा रहल विदुरानि प्रेमें अबस गिरिधर, छाछ लोभें गोपिकागण प्रेमवश नटवर नचाबथि ।।