Wednesday, May 26, 2021

दादाजी के संस्मरण :-(1)


1. मित्रों से न झगड़ें :-

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यह उन दिनों की बात है जब मैं करमौली प्राथमिक विद्यालय में दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था । उसी दौड़ान बड़े भैया के साथ धनबाद जाने का प्रोग्राम बना । मैं खबर सुनकर खुशी से नाचने लगा ।

बड़े भैया भारतीय रेल में ड्राइवर थे । पूर्व में स्टीम इंजिन चलाते थे, बाद में इलेक्ट्रिक इंजिन चलाने लगे । प्रारंभ में मालगाड़ी और बाद में यात्री गाड़ी चलाते थे । कभी-कभी राजधानी एक्सप्रेस भी चलाते थे ।

धनबाद जाकर नए माहौल में मुझे काफी प्रसन्नता हुई । शुद्ध देहाती वातावरण से सीधे आधुनिक शहरी  लोगों के बीच पहुँचकर मैं प्रसन्नता से खिल उठा । कहाँ गाँव का अनियमित जीवन जहाँ न समय पर स्नान, न जलपान, न भोजन ! और कहाँ पूर्ण नियमबद्ध शहरी जीवन । सभी दैनिक कार्यों का समय निर्धारित था ।

यद्यपि मैं दुबला-पतला था लेकिन

गाँव के स्वच्छ वातावरण में पले होने के कारण मेरा शरीर बहुत बलबान था । धनबाद में अपने से अधिक उम्र के बच्चों को भी मैं खेल-खेल में पटक देता था । पढ़ाई में भी मैं काफी मेधाबी था । दूसरी कक्षा में उन दिनों मात्र दो विषय हिन्दी और गणित पढ़ाए जाते थे । मैंने दोनों विषयों की किताबों को रट लिया था । जहाँ धनबाद के मेरी कक्षा के बच्चे क ट करते हुए रुक-रुककर पढ़ते थे वहीं मैं धरधराकर ननस्टॉप पूरी किताब पढ़ जाता था । उसी तरह गणित भी प्रारम्भ से अन्त तक कुछ ही समय में बना जाता था । फलतः मैं दूसरी कक्षा में फर्स्ट आ गया ।


कुछ लड़के मुझसे जलने लगे । चूँकि मैं बलिष्ठ था इसलिए मुझसे लड़ते नहीं थे लेकिन अन्दर-अन्दर मुझसे बदला लेने के लिए मौके की तलाश में रहते थे । 

एक रोज घर के बाहर एक नल पर मैं स्नान करने गया । लाल नाम का एक लड़का पहले से स्नान कर रहा था । मैंने उसे धक्का देकर भगा दिया और स्वयं स्नान करने लगा । मेरे मुँह पर साबुन लगा हुआ था, आँखें मूँदी हुईं थीं ।

लाल अपने घर से पीतल का एक बड़ा सा लोटा लेकर आया । मेरी नाक पर कसकर लोटे से प्रहार कर भाग गया । मेरी नाक की जड़ में लोटे के नुकीले कोर से गहरा घाव हो गया और खून बहने लगा । अस्पताल जाकर बैंडेज कराना पड़ा । काफी दिनों के बाद घाव ठीक हुआ लेकिन बचपन का वह चिन्ह अभी भी नाक पर है ।


शिक्षा :-

***बच्चों को सहपाठियों से मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए । ताकत के बल पर किसी कमजोर को नहीं दबाना चाहिए ।***


2. अपने सामान की रक्षा खुद करें :-

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यह घटना उन दिनों की है जब मैं धनबाद में रेलवे स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था । ठेठ गाँव से पहले-पहल शहर जाने के कारण नए माहौल में मुझे बड़ा आनन्द आता था और पढ़ने-लिखने में भी बहुत मन लगता था । दूसरी कक्षा में प्रथम आने के चलते मैं सबका चहेता हो गया था और स्कूल के सभी शिक्षकगण मुझसे  अत्यधिक स्नेह रख़ते थे । 


मेरा प्रिय विषय गणित था । उन दिनों पाठ्यपुस्तक के अलावा 'चक्रवर्ती' द्वारा लिखित गणित की एक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध थी । गणित में रुचि रखनेवाले मेधाबी छात्र निश्चित रूप से चक्रवर्ती की पुस्तक से सवाल बनाते थे और विशेषज्ञता प्राप्त करते थे । आजकल भी विद्यार्थी 'कुमौन' क्लासेज में गणित के प्रश्न हल करते हैं ।

जाड़े का समय था । एक दिन मैं क्वार्टर के आगे खुले स्थान में जमीन पर चादर बिछाकर धूप में चक्रवर्ती की किताब से गणित के प्रश्न हल कर रहा था । कुछ कार्यवश किताब-कॉपी को वहीं छोड़कर क्वार्टर के अन्दर गया । कुछ देर के बाद लौटा दो देखता हूँ कि मेरी क़िताब को एक गाय खा रही है । जबतक मैं दौड़कर गाय के पास पहुँचा तबतक वह पूरी किताब खा चुकी थी । मैं बहुत रोया । फिर मैं उस किताब को नहीं खरीद सका । उस घटना को याद कर आज भी मैं दुखी हो जाता हूँ । 

काश! मैं उस दिन उस किताब को लावारिस खुले स्थान में छोड़कर घर नहीं जाता तो गाय नहीं खा पाती!


*****शिक्षा :-  छात्रों को अपने सामानों की हिफाजत स्वयं करनी चाहिए ।*****


3. झूठ न बोलें एवं किसी के साथ भेद-भाव न हो :-

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धनबाद के रेलवे स्कूल में मेरे नाम लिखाने से पहले उस कक्षा में एक लड़की प्रथम आती थी । उसका नाम दमयन्ती था । वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ी थी और काफी लम्बी थी । उसके पिताजी भी रेलवे में ड्राइवर थे । हमलोगों का डेरा अगल-बगल में ही था । मेरे जाने के बाद दमयन्ती सेकंड करने लगी । इसलिए सदैव मुझे कोसती रहती थी-" अगर यह नहीं आता तो मैं ही हमेशा फर्स्ट आती रहती, कहाँ से यह मेरे दुर्भाग्य से टपक पड़ा!"

लेकिन मैं नहीं समझ पाता कि इसमें मेरा क्या दोष है! सब कोई प्रथम आना चाहता है और मिहनत करता है ।

तीसरी कक्षा में भी मैं प्रथम आया । काफी शाबाशी मिली । 


चौथी में मेरा नाम लिखाया गया । पूरे स्कूल में सबसे मेधाबी छात्र के रूप में मेरा नाम लिया जाने लगा । जो गणित पाँचवीं के छात्रों से नहीं बनता था वह भी मैं बना देता था । मैंने अंग्रेजी भी सीखना शुरू किया और प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । इतिहास, भूगोल, समाज अध्ययन की भी पढ़ाई होने लगी ।

कुछ दिन के बाद मैंने देखा कि बारी-बारी से बच्चों के अभिभावक आते थे और प्रधानाचार्य उन्हें बच्चे के लिए पुस्तकें, स्कूल बैग, स्कूल ड्रेस ...आदि देते थे । मुझे आश्चर्य होता था कि प्रथम आने के बावजूद मुझे वे सब क्यों नहीं मिल रहे हैं । मेरे सब्र का बांध टूट गया । मैंने घर आकर भैया से झूठ बोल दिया कि आपको प्रधानाचार्य ने बुलाया है । मेरे मन में यह भ्रम पैदा हो गया था कि अभिभावक के आने पर ही वे सब चीजें मिलती हैं ।

दूसरे दिन बड़े भैया प्रधानाचार्य से मिलने स्कूल पहुँच गए । प्रधानाचार्य ने अनभिज्ञता प्रकट की-" मैंने तो नहीं बुलाया था" । मुझे बुलाया गया । मुझसे पूछा गया तो मैंने मन की बात प्रकट कर दी-" मैं प्रतिदिन देख रहा था कि सभी लड़कों को अच्छे-अच्छे उपहार मिल रहे हैं । मैंने सोचा कि शायद अभिभावकों के आने पर ही मिलते हैं, अतः मैंने भैया को बुला लिया ।"

सभी शिक्षकगण और भैया भी मेरे बाल्य मन पर हँसने लगे ।

प्रधानाचार्य ने मेरी पीठ को ठोककर  मुझे एनुअल डे पर सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार देने का आश्वासन दिया और विदा किया ।

घर आकर भैया बोले कि जिसके पिताजी रेलवे में हैं उसी को वे सारे उपहार मिलेंगे । जिसके भाई हैं उसको नहीं । मुझे रेलवे के इस  नियम पर बहुत गुस्सा आया ।

बच्चों को नियम-कानून से क्या मतलब! उसे तो किसी भी तरह उपहार मिलना चाहिए !!!



****शिक्षा :- झूठ नहीं बोलना चाहिए । ऐसा नियम नहीं होना चाहिए जो विद्यार्थियों के साथ भेद-भाव करे और जिससे बच्चों के कोमल दिल को ठेस पहुँचे ।*****


4. केवल किताबें रखने से नहीं, पढ़ने से विद्या आती है :-

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धनबाद में चौथी कक्षा में पढ़ने के दौड़ान अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त करमौली आने का प्रोग्राम बन गया । पढ़ाई के बीच सत्र में ही मुझे गाँव आना पड़ा । उन दिनों गाँव में पढ़ाई में इस तरह का व्यवधान कोई मायने नहीं रखता था ।

उपनयन संस्कार में लगभग एक माह मैं व्यस्त रहा । फिर कपरिया माध्यमिक विद्यालय में चौथी कक्षा में नाम लिखाया ।

करमौली में भी प्राथमिक विद्यालय था लेकिन अमीरजी और चन्दूजी जैसे सीनियर मित्रों की संगति प्राप्त करने के निमित्त मैंने कपरिया में पढ़ने को प्राथमिकता दी । सीनियर लोगों की संगति से मुझे काफी लाभ हुआ, जो प्रश्न नहीं समझ में आता था उनलोगों से पूछ कर समझ लेता था ।

चूँकि मैं बीच सत्र में अप्रैल के अंत मे आया था अतः कपरिया स्कूल में चार महीने की पढ़ाई हो चुकी थी । सिलेबस भी बदल गया था । मात्र हिन्दी और गणित की पुस्तकें एक ही थीं, बाँकी सब बदल गईं थीं । मैंने सहपाठियों के सहयोग से पढ़ाई शुरू की । खूब परिश्रम करने लगा । दोस्तों से किताबें माँगकर लाता और एक ही दिन में कई-कई चैप्टर कण्ठस्थ कर लेता । गर्मी की छुट्टियों में मैंने सारी पुस्तकों को पढ़ लिया । सारे गणित के प्रश्न हल कर लिए । सीनियर मित्रों का सहयोग बहुत काम आया । सुबह में तीन बजे ही उठ जाता और पढ़ने लगता । सरस्वती माता की कृपा से पढ़ाई में काफी लगन आ गई ।

जब आप समझने लगते हैं तो पढ़ाई में मजा आने लगता है । मजा आने लगे तो और पढ़ने से ज्ञान की काफी वृद्धि होती है ।

कपरिया स्कूल में चारों तरफ के दसों गांवों के काफी मेधाबी विद्यार्थियों के रहने के बावजूद लगन और परिश्रम के बल पर मैंने चौथी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया ।

दूसरे की किताब माँगकर पढ़ने से  मुझे कुछ अधिक ही लाभ हुआ । सोचता था कि लौटाना है इसलिए जल्दी-जल्दी पढ़ लूँ ।


****शिक्षा :- * अगर किसी से कोई किताब माँगे तो जल्दी से पढ़ लें और लोटा दें ।

**जहाँ भी जो चीज नहीं समझ सकें तो सीनियर छात्र, शिक्षक अथवा अभिभावक से निःसंकोच पूछकर समझ लें ।

***मात्र घर में किताब रख लेने से ज्ञान नहीं होता, पढ़ने से ही ज्ञान होता है ।

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5. तपस्या का फल मीठा होता है :-

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उन दिनों गाँव के स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई छट्ठी कक्षा से प्रारंभ होती थी । मैं धनबाद में चौथी कक्षा में ही अंग्रेजी का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त कर चुका था । छट्ठी कक्षा तक जाते-जाते अच्छी तरह  पढ़ने लगा था । ट्रांसलेशन और ग्रामर भी काफी कुछ सीख चुका था । फलस्वरूप छट्ठी के लड़के जब ए, बी, सी, डी.... सीख रहे थे तब मैं धुरझार अंग्रेजी रीडिंग दे रहा था । मैं अंग्रेजी में अपने सहपाठियों के बीच गुरु की भूमिका में आ गया था ।

गर्मी की छुट्टियों का मैं पढ़ाई-लिखाई में भरपूर उपयोग करता था । आम के बगीचे में चादर बिछाकर बैठ जाता और गणित के प्रश्न हल करता रहता । फलतः पूरी किताबें गर्मी छुट्ठी में हल कर लेता । छुट्टी के बाद तो मेरा रिविजन चलता रहता ।

घर पर भी छोटे-छोटे बच्चे (महेन्द्र, नवल, युगल, प्रबल...) सुबह-शाम मेरे साथ पढ़ने बैठ जाते थे । मैं उनलोगों के ट्यूटर की भूमिका में रहता था ।

आप स्वयं के लिए पढ़ते समय जितना ज्ञान अर्जित करते हैं उससे सैकड़ों गुना ज्ञान किसी को पढ़ाने पर अर्जित कर लेते हैं । किसी अन्य पदार्थों के दान करने से भौतिक रूप से वह घटता है लेकिन विद्या के दान करने से उसमें काफी वृद्धि होती है । बच्चों को पढ़ाने के फलस्वरूप मुझमें काफी परिपक्वता आने लगी । मैं पाँचवी कक्षा में भी प्रथम आया ।

****शिक्षा :- विद्या दान करने से वृद्धि होती है ।*****


 6. भाग्य अच्छा हो तो अच्छे संयोग भी बनते हैं:-

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उन्हीं दिनों कपरिया मिडिल स्कूल के परिसर में ही कपरिया उच्च विद्यालय प्रारंभ किया गया । उसके मुख्य कर्ता-धर्ता मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य स्वर्गीय यमुना प्रसाद सिंह ही थे । उच्च विद्यालय में नए-नए उच्चकोटि के शिक्षकों की बहाली हुई । जो भी शिक्षक उच्च विद्यालय में आते उन्हें मिडिल स्कूल में भी भेजा जाता । उन शिक्षकों के आधुनिक उच्च ज्ञान से हमलोग भी काफी लाभान्वित हुए । एक से बढ़कर एक अच्छे शिक्षक योगदान करते थे । कम वेतन मिलने के कारण वहाँ अधिक दिन नहीं टिक पाते थे । जैसे ही कहीं दूसरी नोकरी मिलती भाग जाते थे । 

राजकर्ण बाबू, अभिमन्यु सिंहजी, प्रताप नारायण झा, राजेन्द्र प्रसाद...उनमें से कुछ नामी शिक्षक थे ।

उन योग्य शिक्षकों के उच्च ज्ञान से हमलोग काफी लाभान्वित हुए ।

राजकर्ण बाबू हिस्ट्री, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । राजेन्द प्रसादजी का गणित पर पूरा अधिकार था । अभिमन्यु सिंहजी विज्ञान के महारथी थे । प्रताप नारायण बाबू  विज्ञान और गणित के विद्वान थे ।

हमलोग कठिन से कठिन प्रश्न उनलोगों से पूछते और वे लोग हँसी-हँसी में हल कर देते । राजेन्द्र बाबू से मैथ सीखने के लिए तो हमलोग करमौली से शाम में भी जाते थे । खाना घर से ले जाते, रात में उनसे पढ़ने के पश्चात् खाना खाकर वहीं बेंच पर सो जाते । सुबह में भी उनसे पढ़कर घर आते और स्नान- भोजन कर फिर स्कूल जाते ।

घर से स्कूल करीब 2 किलोमीटर था । अतः यह कार्य बहुत कठिन था । गर्मी के समय मॉर्निंग स्कूल में यह लाभदायक होता था । सुबह का क्लास करके ही घर आते तो दुबारा नहीं जाना पड़ता । लेकिन शाम को जानेवाला  कार्यक्रम हमेशा नहीं होता था ।

जब कुछ विशेष समझना होता तभी शाम में जाते थे ।


इस तरह हमलोगों के ज्ञान में काफी वृद्धि होने लगी । बल्कि उन अच्छे शिक्षकों की संगति से हमलोग विशेष ज्ञान प्राप्त करने लगे जिसका लाभ उच्चशिक्षा में काफी हुआ । हाई स्कूल में जाने पर हमलोगों को पूर्व का ज्ञान बहुत काम आया ।

शिक्षा :-परिश्रम का फल मीठा होता है । पढ़नेवालों को संयोग भी अच्छे मिलते हैं ।


7. कभी-कभी निर्दोष को भी दंड मिल जाता है :-

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उन दिनों छात्रों की छोटी-छोटी गलतियों पर भी खूब पिटाई होती थी । कुछ शिक्षक तो पीटते समय जल्लाद बन जाते थे । कभी-कभी तो किसी-किसी लड़के के अभिभावक विद्यालय आकर पीटनेवाले शिक्षकों से झगड़ भी जाते थे । यदा-कदा वैसे शिक्षकों की पिटाई भी हो जाती थी ।

वर्ग में प्रथम आने के कारण सभी शिक्षक मुझे बहुत मानते थे । लेकिन कुछ भुसकॉल शिक्षक  मुझसे चिढ़े भी रहते थे क्योंकि मैं बहुत प्रश्न करता था और उनकी स्थिति असहज हो जाती थी । वे मुझे पढ़ाई से इतर कार्यों में प्रताड़ित करके मन की भड़ास निकालते थे ।

मैं छट्ठी कक्षा में भी प्रथम आया । सातवीं कक्षा में नामांकन हुआ ।

नामांकन के तुरत बाद सरस्वती पूजा का समय आया । मुझे ही पूजा का पुजारी बनाया गया । मुझे बड़ी खुशी हुई । पूर्ण श्रध्दा से मैंने माँ वाग्देवी की पूजा की । अत्यन्त उल्लासपूर्ण माहौल में माँ वाणी का पूजनकार्य और प्रसाद वितरण सम्पन्न हुआ । 

रात में सभी शिक्षकों और कुछ छात्रों का भोजन स्कूल में ही बना । मैं चूँकि पुजारी बना था अतः पवित्रता के ख्याल से कुछ करता नहीं था और दूर में ही बैठकर सभी क्रिया-कलापों का आनन्द ले रहा था । प्रधानाचार्य चावल पक जाने पर माँड़ पसा रहे थे ।

मुझे बैठा देखकर एक शिक्षक स्व0 घूरन झा सर मेरे पीछे में चुपचाप पैर मारकर आए । वे भूल गए कि मैं पुजारी हूँ और मुझे पवित्रतापूर्वक रहना है । उन्हें तो प्रधानाचार्य को खुश करना था और मुझ पर अन्दर की  भड़ास निकालनी थी । मुझे जोर से डाँटा "प्रधानाचार्य खाना पका रहे हैं और तुम लाट साहब की तरह बैठे हुए हो!" इतना कहकर उन्होंने मुझे कसकर एक थप्पड़ जड़ दिया । मेरा कान सुन्न हो गया । मैं हड़बड़ा गया । माँड़ पसाने के लिए दौड़ा, लेकिन प्रधानाचार्य ने मुझे छूने नहीं दिया । उल्टे घूरन सर को ही उन्होंने डाँट पिलाई ।

मुझे समझ में नहीं आया कि मेरी क्या गलती थी क्योंकि मुझे लोगों ने पवित्रतापूर्वक रहने को कहा था और कुछ भी छूने से मना किया था । 

वह घटना इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है । स्व0 घूरन सर ने अनावश्यक मुझे थप्पड़ मार दिया था ।

शिक्षा :- कभी-कभी निर्दोष को भी दंड मिल जाता है । लेकिन दंड देनेवाले को अन्दर-अन्दर ग्लानि जरूर महसूस होती होगी ।


8. क्रोध विवेक को खा जाता है, क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है ।

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 अब मैं सातवाँ में आ गया था । मिडिल स्कूल के सबसे सीनियर कक्षा का प्रथम छात्र! सभी छात्र मुझसे कुछ-कुछ पूछते रहते थे जिससे मेरे ज्ञान की वृद्धि होती रहती थी और अपने वर्ग के विषयों में अनायास ही परिपक्वता आ रही थी । अमीरजी और चंदूजी कपरिया उच्च विद्यालय में क्रमशः दसवीं और ग्यारहवीं के छात्र थे । दरबाजे पर बैठकर उन्हीं लोगों के साथ मैं भी होमवर्क करता रहता था । 

उन दिनों सातवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड द्वारा संचालित होती थी । पूरे बिहार के छात्रों के बीच कंपीटिशन होता था । सातवीं की पढ़ाई बहुत महत्वपूर्ण थी । मैं अपनी तैयारी से पूर्ण आस्वस्त था । परीक्षा से कोई भय नहीं था । ऐसा कोई प्रश्न नहीं था जिसे मैं नहीं जानता था । मेरी अंग्रेजी भी अच्छी हो गई थी । एक दिन दरबाजे पर पढ़ते समय मेरी नजर अमीरजी की दसवीं की अंग्रेजी ट्रांसलेशन की किताब पर पड़ी । मैं उसे उलटने लगा । उसमें से मैंने अंग्रेजी में ट्रांसलेशन करने के लिए हिन्दी का एक वाक्य अपनी कॉपी में नोट कर लिया । वह काफी लम्बा था । मैं उसका ट्रांसलेशन नहीं जानता था । वाक्य इस प्रकार था -"केवल तुम ही नहीं तुम्हारा भाई भी तुम्हारे साथ कल मेरे यहॉं आया था "।

स्कूल पहुँचने पर जब प्रधानाचार्य मेरी कक्षा में पढ़ाने आए तो मैंने अपनी कॉपी उनके आगे कर ट्रांसलेशन बनाने का अनुरोध किया । कॉपी देखकर अचानक उन्हें मुझपर बहुत क्रोध आ गया । उन्होंने समझा कि मैं उनके ज्ञान का टेस्ट ले रहा हूँ । वे उस जमाने के आर्ट्स ग्रैजुएट थे जब इलाके में गिनेचुने ही ग्रैजुएट थे । उन्हें अंग्रेजी का बहुत अच्छा ज्ञान था । मैं महज सातवीं कक्षा का छात्र उनका टेस्ट क्या लेता! मैं तो मात्र सीखने की दृष्टि से कौतूहलवश उनसे पूछ बैठा था ।

क्रोध में ही उन्होंने उस ट्रांसलेशन को बोर्ड पर बनाया और सभी छात्रों पर अपने ज्ञान का अहंकार प्रकट किया-" तुम्हारा प्रधानाचार्य एक ग्रैजुएट है । इस इलाके के सभी प्रधानाचार्यों से अधिक ज्ञान रखता है....."। 

इसके बाद पैर पटकते हुए उसी क्रोधित मुद्रा में जोड़ से बोलते हुए क्लास से निकल गए । 

उनको क्रोधित देख सभी शिक्षक घबड़ाकर उनके कक्ष की ओर दौड़े । प्रधानाचार्य ने उनलोगों से मेरी धृष्टता के बारे में बताया ।

स्व0 घूरन सर क्लास में आए और मुझे मेरी गलती का एहसास कराया । 

मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी । मेरा उद्देश्य सीखने का था लेकिन प्रधानाचार्य ने उसका उल्टा अर्थ लगा लिया था।

थोथी दलील देकर अपने को निर्दोष साबित करने की अपेक्षा

मैंने प्रधानाचार्य के कक्ष में जाकर उनसे क्षमा याचना करना श्रेयस्कर समझा ।

उनके अहंकार की तुष्टि हुई और उनका क्रोध शान्त हुआ । उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया ।

मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि उनसे ट्रांसलेशन पूछकर क्या वास्तव में मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी थी!

ख़ैर, क्षमा माँगकर मेरे द्वारा उनकी नजर में हुई भूल का मैंने प्रायश्चित कर लिया । 


मेरे सौम्य और आज्ञाकारी व्यवहार के चलते उस घटना को प्रधानाचार्य भूल गए और उनका स्नेह बाद में भी मुझपर वैसा ही बना रहा । वे इस बात को समझते थे कि मैं उनके स्कूल का गौरव हूँ और बोर्ड परीक्षा में भी मुझसे ही स्कूल का नाम ऊँचा होना था ।

शिक्षा :- भूल से भी गलती होने पर क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है ।


9. कपरिया मिडिल स्कूल में कुश्ती प्रतियोगिता :-

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मैं दुबला-पतला सामान्य कदकाठी का होते हुए भी अंदर से बहुत ताकतवर और ऊर्जावान था । खेलकूद में भी औवल आता था । बहुत अच्छा फुटबॉल का खिलाड़ी था । दौड़ प्रतियोगिता, कबड्डी प्रतियोगिता.... सबमें प्रथम आता था ।

विद्यालय में कुश्ती का आयोजन हो रहा था । करमौली से कपरिया स्कूल जाने के बीच में भलनी गाँव पड़ता है । भलनी में रास्ते के किनारे भगतजी(फूल विक्रेता) के यहाँ एक साधु आए थे । हमलोग स्कूल जा रहे थे तो भीड़ देखकर रुक गए । साधु को देखकर हमलोगों ने प्रणाम किया । साधु ने आशीर्वाद दिया और कुछ पूछने को कहा । मैंने कुस्ती में जीतने का उपाय पूछा । साधु ने पश्चिम-दक्षिण कोना में खड़ा होकर उत्तर-पूरब मुखकर हनुमानजी का स्मरण कर कुश्ती लड़ने पर विजय निश्चित होने का वचन दिया ।

मुझे कुश्ती में रुचि नहीं थी । वैसे भी कुश्ती लड़ना मंदबुद्धि लोगों का काम माना जाता है । मैं वर्ग में प्रथम आने के कारण मंदबुद्धि का कार्य कुश्ती से दूर रहना चाहता था ।

निर्धारित समय पर कुश्ती प्रतियोगिता शुरू हुई । मैं दर्शक दीर्घा में खड़ा था । कुश्ती लड़नेवाले छात्र अलग खड़े थे । कई जोड़े छात्रों ने कुश्तियाँ लड़ीं । मेधानन्द नाम का एक लड़का बहुत ही मसखरा था । जब उसकी बारी आई तो वह उछलकर आखाड़ा में कूदा और मेरे साथ लड़ने का प्रस्ताव रखा । निर्णायक के रूप में रामस्वार्थ सर थे । उन्होंने मुझे पूछा तो मैंने मना कर दिया । लेकिन मेधानन्द बार-बार ताल ठोककर मेरा ही नाम लेकर ललकार  रहा था । दूसरी बार सर के पूछने पर मैं तैयार हो गया । 

साधु के कहे अनुसार दक्षिण-पश्चिम कोने में उत्तर-पूरब मुख करके हनुमानजी का नाम लेकर मैंने लड़ना शुरू किया । कुछ सेकंड के बाद ही मैंने एक ऐसा दाँव मारा कि वह धड़ाम से गिरा और चारों खाने चित्त हो गया । उसका बायाँ हाथ टूट गया । सब लड़के उसको टांगकर गाँव लाए ।

वह रास्ते भर कुहरता रहा औऱ मुझे कोसता रहा ।

मुझे अन्दर-अन्दर खूब खुशी हो रही थी, साधु की बात पर विश्वास हो गया था ।

शिक्षा :- ईश्वर का नाम लेकर समर्पित भाव से काम करने पर सफलता जरूर मिलती है ।



10. सातवीं बोर्ड की परीक्षा :-

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1966 ई0 के दिसम्बर माह में सातवीं बोर्ड परीक्षा का समय आया । बोर्ड द्वारा परीक्षा केन्द्र दूसरे विद्यालय में रखा जाता था ताकि परीक्षा कदाचार मुक्त हो सके । मेरे विद्यालय का परीक्षा-केंद्र उच्च विद्यालय लोहा रखा गया था जो मेरे गाँव से करीब 10 किलोमीटर दूर था । पिताजी के मौसेरे भाई स्व0 गणेश चाचाजी का घर लोहा स्कूल से सटे कपसिया गाँव में था । पिताजी मेरा बक्सा लेकर और मैं खाली हाथ कलुआही तक पैदल पहुँचे । फिर बस पकड़कर कपसिया गए । 

गणेश चाचाजी मुजफ्फरपुर कोर्ट में नोकरी करते थे । चाची गाँव में ही रहती थी । चाचाजी का मलमल गाँव का एक भगिना चंद्रकांत भी परीक्षा देने के लिए उन्हीं के यहाँ ठहरा हुआ था । 

चाची बहुत अच्छे स्वभाव की थी । उस समय तक उन्हें कोई संतान नहीं थी । हमलोगों का माँ की तरह खयाल रखती थी । समय पर भोजन, जलपान कराती रहती थी ।

मैं अच्छी तरह परीक्षा दे रहा था । मेरे स्कूल के अन्य छात्रगण चाचाजी के घर के बगल में ही कपसिया खादी भंडार में ठहरे हुए थे । परीक्षा देकर हमलोग टहलते हुए दस-पन्द्रह मिनट में डेरा पहुँच जाते थे ।

दूसरे दिन की परीक्षा देकर हमलोग डेरा लौट रहे थे । मेरा एक साथी बाबूपाली गाँव का खड़ानन एक बस के पीछे लटक गया । कपसिया में बस रुकी नहीं । चलती बस से वह कूद गया । वह मुँह के बल गिरा । नाक, मुँह और ललाट पर काफी चोटें आईं । उसे अस्पताल ले जाया गया । वह फिर परीक्षा नहीं दे सका ।

बच्चों को कभी भी इस तरह की गलत हरकतें नहीं करनी चाहिए । बहुत ही सावधानीपूर्वक स्कूल जाना और आना चाहिए । भूलकर भी बस, ट्रक के पीछे नहीं लटकना चाहिए । कितने दुःख की बात है कि उसका एक साल बरबाद हो गया । 

विद्यार्थियों को अच्छी पढ़ाई के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य का भी ख्याल रखना चाहिए ।

हमलोगों ने  खूब अच्छी तरह परीक्षा दी । परीक्षा सात दिन चली । पिताजी के साथ मैं आठवें दिन करमौली आ गया ।

****शिक्षा :- बच्चों को स्कूल जाने-आने में खूब सावधानी बरतनी चाहिए, गलत हरकत से दुर्घटना घट सकती है ।*****



 11. कलुआही उच्च विद्यालय में नामांकन :-

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सातवीं बोर्ड का रिजल्ट निकाला । मुझे 600 में 459 अर्थात् कुल 76.5% अंक प्राप्त हुए । कपरिया स्कूल में मेरा सर्वोच्च अंक तो था ही अन्य बहुत सारे दूसरे स्कूलों में भी मेरे जितना अंक किसी को नहीं आया था ।

अब आठवीं में नाम लिखाने की बात थी । 

कलुआही उच्च विद्यालय का उस समय इलाके में बहुत नाम था । मेरा मन वहीं लिखाने का था ।

रिजल्ट के कुछ दिनों बाद पिताजी और रामचन्द्र काका के साथ विद्यालय त्यजन प्रमाण पत्र (SLC=School leaving Certificate) के लिए कपरिया मिडिल स्कूल गया । मैं बाहर ही बैठा । चाचाजी और पिताजी प्रधानाचार्य के कक्ष में गए । प्रधानाचार्य ने एसएलसी देने से मना कर दिया और कपरिया उच्च विद्यालय में ही नाम लिखाने का आग्रह किया ।

दोनों ने आकर मुझे सारी बातें बताईं । मैं कलुआही जाने के लिए अड़ गया । पिताजी जाकर मेरी बात बोले तो भी वो नहीं माने । वे बोले कि उन्हीं लोगों के लिए मैंने उच्च विद्यालय खोला है, अगर मेरा प्रथम छात्र ही चला जायगा तो उच्च विद्यालय कैसे चलेगा ।

मैं हिम्मत करके अंदर गया और कलुआही जाने की जिद्द कर दी ।

प्रधानाचार्य को क्रोध आ गया और उन्होंने आवेश में ही एसएलसी दे दिया । एसएलसी मिल जाने पर मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा ।

 मैंने दूसरे ही दिन कलुआही उच्च विद्यालय में नाम लिखा लिया । कलुआही हाइ स्कूल में चारों तरफ के पचीसों गाँवों के मेधाबी छात्र आए थे । केवल एक छात्र भोगेन्द्र को सातवीं बोर्ड में मुझसे 6 अंक अधिक 465 अंक मिला था । मुझे उन मेधाबी छात्रों और विद्वान शिक्षकों का सान्निध्य बहुत अच्छा लगा । खूब मन लगाकर पढ़ने लगा ।

तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कपरिया स्कूल नया था । नई-नई पढ़ाई शुरू हुई थी, मात्र चार साल पूर्व से स्कूल चल रहा था । चंदूजी प्रथम बैच के थे । अभी एक भी बैच की मैट्रिक की परीक्षा नहीं हुई थी । अच्छे शिक्षकगण भाग रहे थे । 

एक-दो साल के बाद दूसरे अच्छे छात्र भी भागकर कलुआही स्कूल आए, लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी । कलुआही जाकर वे लोग बहुत अच्छा नहीं कर पाए क्योकि जड़ कमजोर हो चुका था । मैंने कलुआही स्कूल में नाम लिखाकर कितना अच्छा किया यह वर्णनातीत है । अगर कपरिया स्कूल में नाम लिखाता तो अपना करियर ही बर्बाद करता ।

**** शिक्षा :-  अपने बुरा-भला का निर्णय स्वयं करना चाहिए, दूसरे की खुशी के लिए अपना करियर दाँव पर नहीं लगाना चाहिए ।****



 12. कलुआही स्कूल में आठवीं कक्षा :-

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आठवीं कक्षा की पढ़ाई शुरू हुई । नया माहौल, नए-नए मेधावी छात्रों का सान्निध्य और विद्वान शिक्षकों के मार्गदर्शन का मुझे बहुत लाभ मिला । पढ़ाई में खूब मन लगने लगा । भोगेन्द्र को मुझसे 6 अंक अधिक था । मेरा 459/600 और उसका 465/600 प्राप्तांक था । बाँकी लड़के काफी पीछे थे । मेरे पर और भोगेन्द्र पर सभी शिक्षकों का ध्यान अधिक रहता था । बल्कि भोगेन्द्र पर कुछ अधिक । वह कलुआही मिडिल स्कूल का ही छात्र था । वह छे भाई था । उसका स्थान चौथा था । सभी भाई पढ़ने में बहुत मेधावी थे और वर्ग में प्रथम आते थे । उससे बड़े तीनों भाई कलुआही स्कूल के टॉपर रह चुके थे । भोगेन्द्र को भी तो सातवीं बोर्ड में कलुआही स्कूल में नाम लिखानेवाले सभी छात्रों में सबसे अधिक अंक था ही । एक शिक्षक स्व0 उपेन्द्र ठाकुरजी की भतीजी से उसके बड़े भाई की शादी हुई थी । अतः उसका पलड़ा मुझसे बहुत भारी था ।

लेकिन इस सबसे अनजान मैं अपनी धुन में लगा हुआ पढ़ाई कर रहा था ।

छमाही की परीक्षा की कॉपी जाँचकर छात्रों को देखने के लिए दी जाती थी । उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य स्व0 तपस्वी झा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे । अंग्रेजी की कॉपी का एक-एक अक्षर जाँचते थे । अंग्रेजी में मात्र तीन छात्र पास हुए, बाँकी सब फेल । मुझको 56, भोगेन्द्र को 36 और कासिम को 30 अंक मिले । प्रधानाचार्य के हाथ से अभी तक किसी को 50 से अधिक अंक नहीं मिला था । मेरा काफी नाम हो गया ।

आठवीं की वार्षिक परीक्षा के ठीक पहले बागवानी के दौड़ान भोगेन्द्र का पाँव काफी कट गया । वह लंगड़ाते हुए ही आता और परीक्षा देता । उसके लंगड़ाने के कारण सभी शिक्षकों की सहानुभूति उसके साथ हो गई ।

परीक्षा के बाद भोगेन्द्र के बड़े भाई द्वारा स्व0 उपेन्द्र सर को कहते सुना गया कि हमारे घर का रिकार्ड नहीं टूटना चाहिए । वे उनलोगों के सम्बन्धी भी थे ही ।

उपेन्द्र बाबू सभी विषयों का मार्क्स जोड़ लिए । उनके पास हिन्दी और समाज अध्ययन की कॉपी थी । अन्य सभी विषयों को मिलाकर मुझे 9 अंक अधिक थे । उपेन्द्र सर ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में 6-6 अंक मुझसे अधिक देकर भोगेन्द्र को मुझसे तीन अंक अधिक कर दिया । इस तरह मुझे 705/1000 और भोगेन्द्र को 708/1000 आया और वह प्रथम आ गया ।

उपेन्द्र बाबू की इस बेईमानी का पता किसी को नहीं चला, लेकिन मैंने जब सभी विषयों के अपने और भोगेन्द्र के अंकों की तुलना की तो मुझे उनकी चालाकी समझते देर नहीं हुई ।

फिर भी मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि उसी स्कूल में उन्हीं शिक्षकों से मुझे पढ़ना था । मंद शिक्षक होते हुए भी स्कूल के बगल में घर होने के कारण उपेन्द्र सर का काफी होल्ड था । मैं बिना पैरवी-पैगाम का छात्र गाँव से पाँच किलोमीटर दूर के स्कूल में उनसे कैसे भिड़ सकता था!

मेरी अहिंसक नीति और सभी शिक्षकों को खूब आदर देने के स्वभाव ने उपेन्द्र सर को अन्दर ही अन्दर जरूर ग्लानि महसूस कराई होगी ।

*****शिक्षा :- धैर्य रखने से दीर्घकालिक लाभ होता है ।*****




13. कलुआही स्कूल में नौवीं कक्षा :-

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आठवीं के रिजल्ट से मैं थोड़ा भी हतोत्साहित नहीं हुआ । तीन अंक के अंतर का क्या महत्व है और वो भी एक शिक्षक की बेईमानी से मिले 12 अंक! मैंने इस बार और जोड़-शोर से पढ़ना शुरू किया ।

छमाही की परीक्षा में मुझे सभी विषयों में भोगेन्द्र से अच्छे अंक मिले । चूँकि कानो-कान उपेन्द्र बाबू की बेईमानी की खबर फैल चुकी थी अतः इस बार वे सावधान थे, कॉपी दिखाना भी था । अतः वे तटस्थ होने का नाटक कर नम्बर दिए थे । मुझे उनके विषयों में भी अधिक अंक मिले थे । लेकिन मेरे दुर्भाग्य से भोगेन्द्र के गणित की कॉपी गायब हो गई या कर दी गई ।अतः किस छात्र को उच्चतम अंक मिले यह पता नहीं चल सका । हालाँकि इस बार मुझे बाँकी सारे नौ विषयों में उससे अधिक अंक थे । दसवें विषय गणित में मुझे 100/100 अंक थे । अतः अगर भोगेन्द्र को गणित में 100/100 भी मिलते तब भी मुझे ऑभरऑल अधिक होते ।

छमाही के मार्क्स से मेरा हौसला बुलन्द था । वार्षिक परीक्षा के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिया । मेरी परीक्षा बहुत अच्छी हुई । रिजल्ट से ठीक चार दिन पहले मुझे महेंद्र की जिला स्तरीय पाँचवीं परीक्षा दिलाने के लिए दरभंगा जाना पड़ा । 

उस यात्रा का दरभंगा का मेरा अनुभा बहुत ही कटु रहा । करमौली स्कूल का एक बहुत ही कुसंस्कारी शिक्षक हमलोगों के साथ गया था । उसका घर मधुबनी जिला के बैंगरा गाँव में था । उसके कुकृत्यों के बारे में अधिक लिखकर मैं अपनी लेखनी को अशुद्ध नहीं करना चाहता हूँ । वह अत्यन्त भुसकॉल, घटिया और चरित्रहीन शिक्षक था । नित्य सिनेमा देखता, मेरे पैसों का भोजन- नाश्ता के साथ-साथ अपव्यय भी करता, जबकि उसकी वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी ।


महेंद्र की परीक्षा जिला स्कूल में थी । परीक्षा कक्ष के पीछे के मैदान में मेरे सहित बहुत अभिभावक बैठे हुए थे । मैं नौवीं का छात्र कद-काठी में छोटा और दुबला-पतला ही था । चुपके से परीक्षा कक्ष की खिड़की में झाँककर महेन्द्र से प्रश्न के बारे में पूछने लगा । मेरी तरह और भी लोग खिड़कियों पर  लटके हुए थे । पीछे से दो मुस्टंडे भोलन्टियर ने आकर मुझे पकड़ लिया । सभी अन्य लोग भाग गए । भोलन्टियर्स मुझे एक शिक्षक के पास ले गए । उक्त शिक्षक ने मुझे पूरी ताकत से एक चाँटा मारा । मेरा माथा झनझना गया । मैं भागा और सीधा डेरा आ गया । उस दिन खूब रोया और भविष्य में ऐसा कोई भी कार्य न करने की प्रतिज्ञा की ।

एक सप्ताह के बाद गाँव आया । गाँव में खुशखबरी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । नौवीं का रिजल्ट निकल चुका था और मैंने फर्स्ट किया था । मुझे 818/1000 और भोगेन्द्र को 790/1000 अंक मिले थे । इस प्रकार मुझे भोगेन्द्र से 28 अंक अधिक प्राप्त हुए थे । इस अनुपम खुशी के आगे दरभंगा की दुःखद स्मृति काफूर हो गई ।

***शिक्षा :- परिश्रम और धैर्य का फल हमेशा अच्छा होता है । कभी भी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए । असफलता से सीख लेकर और अधिक ताकत से आगे की तैयारी करनी चाहिए ।*****




 14. कलुआही स्कूल में दसवीं कक्षा :-

-------------------------------------------नौवीं कक्षा में रेकर्ड अंक 818/1000 लाने के कारण मैं स्टार बन गया था । दसवीं कक्षा का प्रथम दिन मेरे लिए सबसे अधिक आनन्द का दिन था । सभी लड़कों ने मेरा स्वागत किया  । अच्छा अंक प्राप्त होने के कारण मुझे मेधा छात्रवृत्ति मिली । पढ़ाई में भी खूब मन लगने लगा । गाँव में भी काफी सम्मान मिला । गाँव के संस्कृत विद्यालय के प्रधानाचार्य श्रद्धेय गुरूजी सहित सभी अध्यापकों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की ।

करमौली गाँव का कलुआही उच्च विद्यालय में अभी तक कोई भी छात्र प्रथम नहीं आया था ।

इधर मैं आनन्दमग्न पढ़ाई में लगा हुआ था उधर सृष्टिकर्ता मेरे लिए कुछ दूसरा ही नाटक रच रहे थे ।  कलुआही स्कूल के कई शिक्षकों की नजर अपनी बच्चियों की शादी के लिए मुझ पर पड़ी । उम्र के हिसाब से सब कोई मुझको तौलने लगे । अंत में सबों ने मिलकर उम्र के अनुसार गणित के शिक्षक श्री महावीर झा की पुत्री के लिए मुझे उपयुक्त समझा ।

शायद 1969 के फरवरी के मध्य का समय रहा होगा । एक शिक्षक ने मुझे कहा कि कल हमलोग तुम्हारे घर पर आएँगे । मैं कुछ नहीं समझ पाया कि मेरे यहाँ क्यों आएँगे । कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य गुरुजी के बहनोई लगते थे । किसी छात्र द्वारा दूसरे दिन करमौली आने  के कार्यक्रम के बारे में उन्होंने गुरुजी को खबर कर दिया । स्कूल से शाम में घर लौटने के क्रम में गुरुजी के चरणस्पर्श करने गया तो उन्होंने मेरी शादी के सम्बन्ध में दूसरे दिन शिक्षकों के करमौली आने की बात कही । मैं स्तब्ध रह गया । मेरे चेहरे पर उदासी छा गई । एक बकरे को बलि चढ़ाने के पूर्व की स्थिति मेरी लगने लगी । गुरुजी के चरण पकड़कर किसी भी तरह शादी रुकवाने का अनुरोध किया । गुरुजी मान गए ।

दूसरे दिन कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य सहित सारे शिक्षक गुरुजी को भी साथ लेकर मेरे दरबाजे पर पहुँच गए । गाँव भर के लोग दरबाजे पर आ गए । 

गाँववालों के लिए शादी-ब्याह की  बातचीत बहुत आनंददायक होती है । सभी लोग लड़कीवालों की तरफ हो जाते हैं और किसी भी तरह शादी तय हो जाय यही सबों की इच्छा रहती है ।

पिताजी संत स्वभाव के थे । एक ही साथ गुरुजी और प्रधानाचार्य सहित कलुआही स्कूल के सभी शिक्षकों को दरबाजे पर देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था । वे इसे अपना अहोभाग्य समझ रहे थे । नहीं बोलने का तो प्रश्न ही नहीं था । एक साथ पिताजी, भैया... सभी लोगों ने स्वीकृति दे दी । अगले माह 6 मार्च को शादी करना तय हो गया । मैं स्कूल से घर आया तो पता चला कि सभी शिक्षकगण आए हुए हैं । मुझे बुलाया गया लेकिन शर्म के मारे मैं दरबाजे पर नहीं गया । उस समय मेरी सहमति-असहमति पूछने का प्रचलन ही नहीं था । अभिभावक जो तय करते थे उसे सिरोधार्य करना था ।

****शिक्षा :- विवाहोजन्ममरणंच यदायत्र भविष्यति ।*****





 15. शादी (06.03.2021) :-

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दूसरे दिन जब मैं ब्रह्मचर्याश्रम गुरुजी के दर्शन करने गया तो कल्हवाली बात पर ही चर्चा प्रारम्भ हो गई । गुरुजी बोले- "शायद ईश्वर की यही इच्छा है  और इसी में आपका कल्याण लिखा हुआ है । मैं तो इस शादी के खिलाफ था लेकिन वे लोग अपने पक्ष में मुझे भी आपके यहाँ लेकर चले गए ।"

मैं बहुत शर्मीले स्वभाव का था । अपनी शादी के सम्बंध में बात करते हुए काफी शर्म महसूस हो रही थी । अरघाबा गाँव का लक्ष्मीकान्त (गोल्डेन) करमौली में अपनी नानी के यहाँ रहता था । हर्ष नारायण, गोल्डन, तिरपित, चंद्रमोहन ....आदि मौसेरे भाई थे । सभी लोग मात्र भोजन करने नानी के घर जाते थे । बाँकी सारे समय गुरुजी के सान्निध्य में संस्कृत विद्यालय पर ही बिताते थे । मुझे भी विद्यालय पर गुरुजी और उनलोगों के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता था ।

कभी-कभी मैं रात में भी वहाँ रुक जाता लेकिन पिताजी को यह पसन्द नहीं था । अतः बेमन से मैं घर आने को मजबूर हो जाता । गोल्डेन के साथ शादी से दो रोज पहले भागने का सोचा लेकिन समय आने पर पिताजी की इज़्ज़त का खयाल कर चुपचाप नियति के चक्र को देखता रहा ।

इस अवधि में स्कूल में सहपाठियों के भी मजाक को झेलता रहा, चुहल का आनंद भी लेता रहा । कभी-कभी शिक्षकों द्वारा भी मजाक किया जाता । कभी-कभी प्रधानाचार्य के डेरा पर तो कभी-कभी अन्य शिक्षकों के डेरा पर मुझे देखने के लिए महिलाएँ बुलाया करतीं । मैं सर झुकाए चुपचाप जाता और चेहरा दिखाकर पूछे गए प्रश्नों का मात्र हाँ/ना में जबाव देकर लौट आता ।


निर्धारित तिथि 06.03.2021 की शाम को बारात के साथ डोकहर भगवती का दर्शन करते हुए शादी करने के लिए नाजिरपुर(बेलाही) पहुँच गया । दरबाजे पर पहुँचा तो मैंने देखा कि सभी शिक्षकगण भरे हुए हैं । मैं चुपचाप सर झुकाए हुए एक किनारे बैठ गया ।

कुछ देर के बाद बहुत सारे लड़के आकर मुझसे विषय सम्बन्धी प्रश्न करने लगे । यह मैथिल ब्राह्मणों में परिपाटी है कि सारात पक्ष द्वारा बारातियों और दूल्हे से खूब प्रश्न पूछते हैं । नहीं जवाब देने या गलत जवाब देने पर ठहाके लगते हैं और लोग खूब आनन्द लेते हैं । जब विषय सम्बन्धी बातें होने लगी तो मैंने अपना मौन तोड़ा । मैं अधिकांश लड़कों को जानता था जो मेरे साथ पढ़ते थे या मुझसे जूनियर थे । उनलोगों को मैंने समुचित जवाब देकर चुप करा दिया । कुछ सीनियर लोग भी थे, उनलोगों को चुप कराना मेरे बस की बात नहीं थी । जो जवाब फुराया वो दिया, नहीं जानने पर मौन रहा । लेकिन साराती पक्ष के लोगों को मालूम हो गया कि लड़का डल नहीं है । मास्टर साहब ने दामाद के रूप में एक अच्छे लड़के का चयन किया है ।

खूब खुशी के माहौल में शादी सम्पन्न हो गई ।


****शिक्षा :- जब कुछ भी समझ  में न आबे तो चुपचाप नियति द्वारा निर्धारित चक्र में चलते रहने में ही भलाई है ।****

Tuesday, May 25, 2021

प्रकृतिक सम्मान

 सब कियो करैत अछि 

विपैतमे भगवानक स्मरण,

सब कियो बजैत अछि जे

भगवान हमरा सँ 

विमुख भ' गेल छथि,

भ' सकैत अछि 

सत्तेमे ओ आँखि मूनि लेने होथि,

हमहूँ सब तँ घोर सांसारिकतामे डूबि 

हुनका साफे बिसरि गेल छी ।


पूर्वकालमे लोकसब 

प्रकृति सँ ततेक प्रेम करैत छलाह जे 

प्रकृति सेहो

हुनका सबहक इच्छाक आदर करैत छलि । 

हमसब अनैतिकतामे डूबि,

दिग्भ्रमित भ',

प्रकृतिक प्रतिकूले 

सबटा आचरण करैत छी,

हुनका संग खेलबार करैत छी,

हुनका कुपित करैत रहैत छी ।

मुदा विपतिक बेर 

हा दैव! हा दैव! करैत छी ।


जकरा सँ विपरीत सोच रखबैक, 

जकर अनादर करबैक, 

जकर सदिखन जड़ि कोरबैक,

जकरा कुपित करैत रहबैक,

ओकरा सँ 

की उमेद करैत छी? 

ओहो तँ उल्टे प्रत्युत्तर देत ने!


सब कियो प्रकृतिक सम्मान करी, 

हुनकर संरक्षण लेल

जी-जान सँ जुटल रही, 

जगत के आत्मरूप बूझी,

सब जीव के 

शिवस्वरूप बूझि पूजन करी...। 

निश्चितरूप सँ 

सबकिछु अनुकूले रहतैक!!!

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माया

 रैन-दिवस हम माया सेबल,

तात्विक ज्ञान कोना भ' पायत!

उरगक भ्रम रज्जूमे होमय,

ज्ञान-ज्योति सँ दूर पड़ायत ।।


छाउर सत्य के झाँपि लेने अछि,

अथक प्रयासें सँ हटि पायत ।

जे भटकय अज्ञान-तिमिरमे

गुरु-ज्ञानक-द्युति सँ लखि पायत ।।


स्वाद अपूर्व होइछ मायाकेर,

मोहपाशमे कसिक' फाँसय ।

धन्य-धन्य सद्गुरु केर किरपा,

भेड़ा बनबा सँ क्यो बाँचय ।।


क्षणभंगुर मायाक फेरमे,

जइड़ एक-दोसर के काटथि ।

बिसरि जीव अपना स्वरूप के,

कुड़हड़ि सँ अपनहि पद छाँटथि ।।


व्यर्थ अरारि करै छथि सब क्यो,

होमय आन कियो नहि जैठाँ ।

एक्के तत्त्व बसय सबहक उर,

बुधुए लोक लड़इ अछि तैठाँ ।।

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कोरोना दैत्य

 आब ककरो भेट करबाक 

कोनो जरूरति नहि,

दूरे सँ बन्धु-बाँधबक 

सब हालचाल  लैत रहू ।

जिनगी बचाबक अछि 

ऐ दुष्ट सँ महायुद्धमे,

गेहक सुदृढ़ किलामे रहि 

कोरोना दैत्य सँ बचैत रहू ।।


जे सब काल्हि तक हरदम 

पार्टीमे जुटैत छल,

आइ हमरा बेमार देखि 

दूरे-दूर भागि रहल ।

बूझि पड़ैछ अपनो लोक

दुश्मन बनि गेल अछि,

अन्तिमो समयमे हमरा सँ सब

कन्नी अछि काटि रहल ।।


एतबो निसोख नै भ' जाउ 

हे हमर मित्रगण!

अपने सुरक्षित रहि 

हित-अपेक्षितोक ध्यान रहय ।

प्रलयकाल निश्चय 

बीति जेबे करतैक एकदिन,

जँ बाँचि गेलहुँ तँ जाहिसँ 

आँखि ने चोराब' पड़य ।।


एक्केटा संदेश अछि 

दूरी के खियाल हो,

मास्क के हरदम 

लगाक' राखू सब ।

काढ़ा,भाफ,गाडगिल 

बचायत सबहक जान,

वैक्सीने पर पूर्ण आश 

लगाक' राखू सब ।। 

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