Tuesday, May 25, 2021

प्रकृतिक सम्मान

 सब कियो करैत अछि 

विपैतमे भगवानक स्मरण,

सब कियो बजैत अछि जे

भगवान हमरा सँ 

विमुख भ' गेल छथि,

भ' सकैत अछि 

सत्तेमे ओ आँखि मूनि लेने होथि,

हमहूँ सब तँ घोर सांसारिकतामे डूबि 

हुनका साफे बिसरि गेल छी ।


पूर्वकालमे लोकसब 

प्रकृति सँ ततेक प्रेम करैत छलाह जे 

प्रकृति सेहो

हुनका सबहक इच्छाक आदर करैत छलि । 

हमसब अनैतिकतामे डूबि,

दिग्भ्रमित भ',

प्रकृतिक प्रतिकूले 

सबटा आचरण करैत छी,

हुनका संग खेलबार करैत छी,

हुनका कुपित करैत रहैत छी ।

मुदा विपतिक बेर 

हा दैव! हा दैव! करैत छी ।


जकरा सँ विपरीत सोच रखबैक, 

जकर अनादर करबैक, 

जकर सदिखन जड़ि कोरबैक,

जकरा कुपित करैत रहबैक,

ओकरा सँ 

की उमेद करैत छी? 

ओहो तँ उल्टे प्रत्युत्तर देत ने!


सब कियो प्रकृतिक सम्मान करी, 

हुनकर संरक्षण लेल

जी-जान सँ जुटल रही, 

जगत के आत्मरूप बूझी,

सब जीव के 

शिवस्वरूप बूझि पूजन करी...। 

निश्चितरूप सँ 

सबकिछु अनुकूले रहतैक!!!

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