Thursday, June 3, 2021

दादाजी के संस्मरण (2)

16. शादी के बाद कलुआही स्कूल  :-

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शादी के बाद मेरी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन आया । पहले जिन्दगी अव्यवस्थित चल रही थी, अब व्यवस्थित ढंग से रहना पड़ता था । ससुराल में इम्प्रेशन बनाने के लिए बहुत मितभाषी होना पड़ता है । जो अधिक बोलेगा वह झूठ भी खूब बोलेगा, डींग खूब हाँकेगा, बड़बोला तो रहेगा ही । अधिक बोलनेवाले का वैल्यू घट जाना स्वाभाविक है । 

मेरे कपड़े पहनने का ढ़ंग भी बदल गया । नए-नए कपड़े भी पर्याप्त हो गए । बोलचाल, हावभाव, रहन-सहन सभी बदल गए ।


 ससुरजी के छोटे भाई डॉ0 श्याम हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे । उनके सम्पर्क में आने से मेरी भी हिन्दी खूब अच्छी हो गई । वे हमेशा सक्रिय रहते थे । सदैव अध्ययन करते रहते थे । स्वभावतः मुझे भी और अधिक अध्ययन करने की इच्छा होने लगी ।

 ससुरजी गणित के प्रकाण्ड विद्वान थे, अतः गणित की कोई भी समस्या मिनटों में हल हो जाती थी । 


लगभग तीन महीने तक मैं ससुराल से ही स्कूल जाता रहा ।

दूसरे शिक्षकों का भी कुछ अधिक ही स्नेह मिलने लगा । पहले मुझे शिक्षकों से बात करने में कुछ झिझक महसूस होती थी लेकिन अब जो भी पूछना होता बेझिझक पूछ लेता । विज्ञान के शिक्षक श्री यादवजी ने प्रयोगशाला की चाभी मुझे दे दी । मैं रविवार और अन्य छुट्टी के दिनों में प्रयोगशाला में घुसकर चुपचाप प्रयोग करता रहता । गर्मी की छुट्टी में तो पूरा महीना मैं प्रयोगशाला कक्ष में डूबा रहा ।

प्रधानाचार्य अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे । उन्होंने मुझे अंग्रेजी ट्रांसलेशन की एक किताब दी । प्रत्येक दिन एक लेशन बनाकर उनके दराज में रख देता था । वे चेक कर उसी दराज में रख देते थे । शाम को छुट्टी होने पर चुपचाप मैं दराज खोलकर अपनी कॉपी ले लेता । त्रुटियों को समझ लेता । फिर नया लेशन बनाता और दूसरे दिन प्रधानाचार्य के टेबुल की दराज में रख देता । इस प्रकार ट्रांसलेशन बनाना और प्रधानाचार्य द्वारा करेक्शन करना मुझे कितना लाभ पहुँचाया यह शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ।

इस सबका लाभ मुझे ये मिला कि मैं अपने वर्ग के छात्रों के बीच अग्रणी हो गया । भोगेन्द्र मुझसे काफी पीछे छूट गया ।

दसवीं की परीक्षा में काफी अधिक मार्क्स के अंतर से मैं प्रथम आया ।


****शिक्षा :- विद्वान लोगों की संगति से वर्णनातीत लाभ होता है, गूढ़ विषयों को भी समझना आसान हो जाता है और शिक्षा की सही दिशा की सम्पुष्टि हो जाती है ।****



17. कलुआही स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा :-

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उन दिनों उच्च विद्यालय में ग्यारहवीं तक की पढ़ाई होती थीं ।  उसके बाद कॉलेज में दो साल इंटरमीडिएट, तीन साल स्नातक प्रतिष्ठा और विश्वविद्यालय में दो साल स्नातकोत्तर की पढ़ाई होती थी । ग्यारहवीं को मैट्रिक भी कहा जाता था । 

मैट्रिक की परीक्षा का अत्यधिक महत्व था क्योंकि इसीके अच्छे प्राप्तांक के आधार पर ही अच्छे-अच्छे कॉलेजों में नामांकन होते थे । मैट्रिक की परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने लिए विद्यार्थीगण जी जान लगा देते थे ।

मैंने कलुआही में ही उच्च विद्यालय परिसर में ससुरजी द्वारा निर्मित एक कमरे में रहकर तैयारी शुरू की । भोजन की व्यवस्था शिक्षकों के लिए चल रहे मेंस में ही थी । मुसाई भनसीया बहुत अच्छा खाना बनाता था ।


 कलुआही में रहने से काफी लाभ हुआ । वैसे मैं करमौली में भी घर का कोई काम नहीं करता था, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ व्यवधान तो हो ही जाता था । कलुआही में तो मात्र अध्ययन करना ही काम था । 

साथ में कुछ और लड़के भी थे । मजरही टोला का मदन मेरा रूममेट था । साथ के (स्व0 काशी बाबू द्वारा निर्मित) दूसरे कमरे में नारायणजी और राम चन्द्र प्रसाद रहते थे । वे लोग भी अच्छे छात्र थे । 

50 फ़ीट दूर शिव नारायण क्लब के भवन में भोगेन्द्र, चंद्रमोहन और चंद्रकांत रहते थे ।

पढ़ाई के साथ-साथ मित्रों के साथ खेल-कूद, मधुर वार्तालाप और पढ़ाई संबंधी वाद-विवाद भी चलता रहता था । शिक्षकों का मार्गदर्शन भी मिलता रहता था । वह बहुत आनन्ददायक समय था ।


इस प्रकार तैयारी करते हुए मैट्रिक परीक्षा का समय आ गया । वाट्सन उच्च विद्यालय, मधुबनी में परीक्षा केन्द्र निर्धारित हुआ । वाट्सन स्कूल के बगल में क्यौटा गाँव के स्व0 कारी झा का मकान था । वे ससुरजी के दयाद लगते थे । परीक्षा से चार दिन पहले मैं और सुधीर(यादव सर का साला) कारी झाजी के मकान में रहने लगा । 

मधुबनी जिला परिषद में यादव सर के सम्बन्धी डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर थे । उनके कारण हमलोग जिला परिषद के डाकबंगला में परीक्षा से एक दिन पहले आ गए । डाकबंगले का हॉल बहुत बड़ा था । हमलोगों के कारण भोगेन्द्र सहित और भी बहुत से हमारे साथी वहाँ आ गए । डाकबंगले का खानसामा हमलोगों के लिए बहुत स्वादिष्ट खाना बनाता था ।

परीक्षा निर्धारित तिथि को प्रारंभ हुई । उन दिनों कदाचार चरम पर था । मैंने दरभंगा में जिला स्कूल में थप्पड़ खाने के बाद कभी भी कदाचार नहीं करने की कसम खाई थी । उसी प्रतिज्ञा के निर्वहन में पूरे परीक्षा केंद्र में केवल मैं और भोगेन्द्र ने अपने को कदाचार से मुक्त रखा । किसी को विश्वास नहीं होता था कि ऐसे भी दो छात्र हैं जो कदाचार नहीं कर रहे हैं । हमदोनों को देखने के लिए भीड़ लगी रहती थी । 

सुशील बाबू सर का लड़का विनोद थर्ड स्टूडेंट था । हमलोगों के चलते वह भी प्रतिज्ञाबद्ध हो गया था । लेकिन उसके पिताजी ने स्वयं शिक्षक होते हुए भी उसे प्रतिज्ञा भंग करने को बाध्य कर दिया । 

वाह रे नैतिक शिक्षा! एक शिक्षक को छात्रों के बीच नैतिकता का आदर्श माना जाता है । लेकिन व्यवहार में कितना अन्तर हो जाता है । कथनी और करनी का यही फर्क आजकल छात्रों के बीच शिक्षकों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर चुका है जिसको पुनर्स्थापित करने में दशकों लग जाएंगे ।


****शिक्षा :- 

1. किसी भी परिस्थिति में प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए । 

2. कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए ।

3. शिक्षकों को छात्रों के बीच नैतिकता का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए ।

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18.  सी.एम. कॉलेज में इंटरमीडिएट साइंस प्रथम वर्ग में नामांकन :-

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उस साल मैट्रिक परीक्षा में इतना अधिक कदाचार हुआ था कि परीक्षकों के मन में यह बात बैठ गई थी कि शत-प्रतिशत छात्रों ने कदाचार किया है । इसलिए उनलोगों ने आँख मूँदकर कॉपी जाँचा और मार्किंग किया । जब शूक्ष्म दृष्टि से कॉपी जाँची जाएगी तभी तो सदाचार और कदाचार के अंतर का पता चल सकेगा!

फिर भी मुझे कलुआही स्कूल में सर्वोच्च अंक 646/900 प्राप्त हुए और राष्ट्रीय मेधा छात्रवृत्ति मिलनी प्रारम्भ हुई जो अभियांत्रिकी के अन्तिम वर्षों तक मिली । बल्कि सत्र बिलम्ब के कारण एक साल अधिक तक भी छात्रवृत्ति मिली । 

नैतिकता के दामन को थाम्हे रहने के कारण भोगेन्द्र बहुत पीछे छूट गया । मेरे और उसके बीच में कदाचार के कारण बहुत सारे साधारण छात्र भी घुस गए । 


कॉलेज में नाम लिखाने की बात हुई तो ससुरजी की इच्छा थी कि मैं आर.के.कॉलेज, मधुबनी में नाम लिखाऊँ । लेकिन मैं मधुबनी छोड़कर कहीं भी अन्यत्र किसी भी कॉलेज में नाम लिखाना चाहता था । ससुरजी मार्कशीट लेकर एप्लाइ करने के लिए बाहर निकले लेकिन अधिक दूर नहीं जा सके । सी.एम. कॉलेज, दरभंगा में एप्लाइ करके आ गए । हालाँकि एप्लाइ करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । 600/900 एवं इससे ऊपर के मार्क्सवालों का डायरेक्ट एडमिशन होना था । इस बात की जानकारी उन्हें शायद नहीं हो सकी थी । वे तो एक सीधे-सादे शिक्षक थे जो आँख मूँदकर लीक पर चलते थे । जो मन में बैठ गया उसी पर अड़े रहना जानते थे । जो चालू-पुर्जा रहेगा वही न अधिक दिन-दुनियाँ की जानकारी रखेगा । वे आँख मूँदकर गए, एडमिशन फॉर्म लिए और भरकर जमा किए और विना किसी से बात किए चुपचाप बस में बैठकर घर आ गए । कभी-कभी अपनी ज़िद्द पर अड़ जाते और बोलते कि मुझे जो करना था मैंने कर दिया, अब आपको जो करना हो स्वयं करें ।

कॉलेज द्वारा बाद में एडमिशन के लिए जो लिस्ट निकला उसमें 600 से कम मार्क्सवालों का ही नाम था । लिस्ट में अपना नाम नहीं देखकर मैं बहुत दु:खी हो गया । नामांकन प्रभारी से पूछने पर उन्होंने बताया कि आपलोगों के नामांकन का डेट बीत गया । अब 600 से कम मार्क्सवालों का ही एडमिशन होगा ।

ससुरजी की छोटी सी गलती के कारण मुझे कितनी कठिनाई हुई कह नहीं सकता हूँ । मेरे जैसे और भी कुछ लड़के थे जिनका 600 से अधिक मार्क्स था और वे डायरेक्ट एडमिशन नहीं ले सके थे । ऐसे सभी लड़कों द्वारा काफी पैरवी-पैगाम लगाने के बाद लगभग 30 लोगों की सूची निकली । अन्ततः मैं नाम लिखाने में कामयाब हो गया । 

मेरे नामांकन कराने में मुख्य पैरवीकार मजरही टोला के श्री गंगाधर बाबू थे जो मुजफ्फरपुर में संस्कृत से पी.जी कर रहे थे । वे जयमंत बाबू के भतीजा हैं ।


कभी-कभी उचित समय पर कोई काम नहीं करने पर समय बीत जाने पर उसका काफी मूल्य चुकाना पड़ता है ।

मेरे जैसे छोटी कद-काठी के शुद्ध देहाती परिवेश से आनेवाले लड़के के लिए तो दरभंगा बहुत बड़ा शहर लगता था । कॉलेज में नामांकन से पूर्व मैं करमौली और कलुआही तक ही सीमित था, अब सीधे कमिश्नरी शहर दरभंगा आ गया था । ससुरजी को तो शायद थोड़ा भी मलाल नहीं हुआ होगा कि उनकी एक भूल के कारण मुझे कितनी परेशानी हुई । काश! वे एप्लाइ नहीं कर सीधे एडमिशन ले लिए रहते! 

लेकिन सभी बातों में कुछ-कुछ अच्छाइयाँ छिपी होती हैं । स्वयं दौड़-धूप अधिक करने से मुझमें निर्भीकता आ गई और आत्मविश्वास काफी बढ़ गया ।


**** शिक्षा :-

पूरी जानकारी प्राप्त कर ही कोई काम करना चाहिए । उचित समय पर काम नहीं करने से भारी कीमत चुकानी पड़ती है । अनुभव से निर्भीकता और आत्मविश्वास बढ़ते हैं ।***

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19. सी.एम. कॉलेज, दरभंगा का अनुभव :- 

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उन दिनों बिहार विश्वविद्यालय के अंतर्गत चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय एक अंगीभूत कॉलेज था । इस कॉलेज के दो ब्लॉक थे । दरभंगा टावर के सटे दक्षिण में गोलबाजार था जिसमें साइंस ब्लॉक चलता था । बागमती नदी के किनारे क़िलाघाट में नया-नया आर्ट्स ब्लॉक बना था । नदी के पूरब आर्ट्स ब्लॉक और पश्चिम में पी.जी. छात्रावास था । दोनों किनारों पर तार के पेड़ों में रस्सी बाँधकर एक फ्लैट नाव चलाया जाता था ताकि पी.जी. होस्टल के छात्र कॉलेज आ-जा सकें ।


मैं राज स्कूल के बगल में हसनचक के उत्तर एक प्राइवेट होस्टल विद्यामंदिर छात्रावास में रहता था । चंद्रमोहन के बड़े भैया स्व0 कृष्णमोहन जी उस छात्रावास के प्रीफेक्ट थे । वे सी.एम.कॉलेज, दरभंगा के पी.जी. के छात्र थे ।

सी.एम. कॉलेज में नामांकन के बाद डेरा नहीं रहने के कारण मैं गाँव लौट रहा था । बस स्टैंड में कृष्णमोहन जी से भेट हो गई । उन्हें जब मैंने बताया कि डेरा नहीं मिला है तो उन्होंने अपने बेड पर जाकर विश्राम करने को कहा । वे अपने गाँव कालिकापुर जा रहे थे, बोले कि लौटकर आने पर आपके रहने की व्यवस्था कर दूँगा । मैं आकर विद्यामंदिर छात्रावास में उनके कमरे में रहने लगा । वहाँ मेंस भी चलता था, अतः भोजन की समस्या भी हल हो गई । कृष्णमोहनजी के आने पर ग्राउंड फ्लोर पर 4 बेड के एक कमरे में एक बेड मिल गया और मैं आराम से वहीं रहकर कॉलेज जाने लगा । हीरा नंद आचार्य मेरे रूममेट थे जो आजकल राजनगर कॉलेज के प्रिंसिपल हैं ।

नामांकन में विलम्ब होने के कारण कुछ क्लास छूट गए थे । काफी मिहनत कर छूट चुके क्लास का मेकअप कर पाया ।

नई जगह, नए माहौल में एडजस्ट करने में काफी समय लगा । कोई मार्गदर्शक भी नहीं था । अपने से पढ़ना और अपने से गुनना भी था । किसी शिक्षक से परिचय नहीं था जिनसे किसी विषय में मदद लिया जा सके ।

उन दिनों छात्रों में बड़ी उच्छृंखलता फैल गई थी । छात्र-आन्दोलन चरम पर था । हमेशा क्लास बाधित होता रहता था । देखते-देखते परीक्षा का समय आ गया । 

किसी भी विषय में पूरे पाठ्यक्रम की पढ़ाई नहीं हो सकी । मेरी आर्थिक तंगी भी मुझे बहुत परेशान कर रही थी । जब खाने-पीने और रहने के भी खर्चों को वहन करना कठिन था तो फिर किसी शिक्षक से ट्यूशन पढ़कर मेकअप करने का सोच भी नहीं सकता था ।

विद्यामंदिर में कुछ उद्दण्ड किस्म के छात्र रहते थे । उनलोगों के चलते पढ़ाई में भी बाधा पहुँचती थी ।

 विद्यामंदिर छात्रावास छोड़कर एम.आर.एम. कॉलेज के बगल में मण्डल निवास में मैं और हीराजी चले गए । कुछ महीने वहाँ रहने के बाद कहीं दूसरी जगह चले गए और मैं भी हसनचक पर अवस्थित राम मन्दिर पर एक कमरे में आकर रहने लगा । बगल के कमरे लीलाजी और उनके पिताजी रहते थे । लीलाजी के पिताजी सी.एम.कॉलेज पोस्ट ऑफिस में दौड़ाहा प्यून थे । वे राम मंदिर पर रहते थे और मन्दिर में पुजारी का भी काम करते थे ।

यहीं पर लीलाजी से दोस्ती हुई ।


लीलाजी सौम्य और मेधावी छात्र थे । बहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति थे । जमीनी व्यक्तित्व था ।मेरे साथ बैठकर इंजीनियरिंग की तैयारी करते थे । हमदोनों ने अच्ची तैयारी की ।

बागमती नदी के कबड़ाघाट मंदिर पर अरघाबा निवासी लक्ष्मीकान्त के पिताजी पुजारी थे । लक्ष्मीकांत करमौली से ही मेरा दोस्त था । उसके चचेरे भाई अमरनाथजी संस्कृत ऑनर्स कर रहे थे । उनसे भी मेरी अच्छी दोस्ती हो गई ।

****शिक्षा :- विभिन्न जगहों पर जाने आने से कई तरह के लोगों से भेट होती है, उन्हीं लोगों में से कोई अभिन्न मित्र बन जाता है ।****




20. दरभंगा के कुछ विशेष अनुभव :-

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लक्ष्मीकांत और अमरनाथजी कबड़ाघाट मन्दिर पर रहते थे । वे दोनों हमेशा मुझसे मिलने राम मंदिर पर आते रहते थे । अमरनाथजी बड़े ही विनोदी स्वभाव के थे । उनके आने पर हमलोग घंटों हास-परिहास में डूबे रहते थे । रविवार को तो वे जरूर आया करते थे । उन दिनों सी.एम. कॉलेज बिहार विश्वविद्यालय के अन्तर्गत था जिसका मुख्यालय मुजफ्फरपुर था । अमरनाथजी को संस्कृत ऑनर्स प्राप्त हो जाने पर वे मुजफ्फरपुर पी.जी. करने चले गए । जाने से पहले मुझे कबड़ाघाट मंदिर पर रहने के लिए जिद्द करने लगे । 

दरभंगा राज का कबड़ाघाट मंदिर बागमती नदी के किनारे नदी से सटे पूरब अवस्थित है । शहर से सुदूर लगभग डेढ़ एकड़ में चहारदीवारी से घिरा हुआ कृत्रिम जंगल के बीच बहुत ही शान्त स्थान है । लक्ष्मीकांत के पिताजी उस मन्दिर के पुजारी थे । अमरनाथजी और लक्ष्मीकांत के दुराग्रह को मैं टाल न सका । एकान्त साधना के लिए उपयुक्त स्थल लगा और भाड़ा भी नहीं लगना था । मैं डेरा-डंडा लेकर कबड़ाघाट चला गया ।अमरनाथजी मुजफ्फरपुर चले गए । लक्ष्मीकांत कुछ दिन साथ में रहा । वह जबतक साथ में रहा बहुत आनन्द आया । कुछ दिन के बाद वह घर चला गया और महीना-दो महीना पर कभी-कभार एक-आध दिन के लिए ही आता था । मैं और लक्ष्मी के पिताजी दो ही व्यक्ति वहाँ बच गए । वे लगभग 55 वर्ष के थे । मेरी उम्र लगभग 19 साल थी ।  उम्र के अनुसार विचारों में काफी अंतर थे । 

प्रारम्भ के कुछ दिन बहुत ही आनन्ददायक थे । मंदिर के गेट के सटे दक्षिण में राज के लेखापाल रमाकांत बाबू रहते थे । उनका लड़का लाल और भगिना उदय यदा-कदा मन्दिर पर आता रहता था । उनलोगों के साथ पढ़ाई-लिखाई संबंधी खूब बातचीत होती रहती थी । 

मन्दिर परिसर में बहुत सारे फलदार वृक्ष आम, जामुन, कटहल, पपीता, अमरूद, शरीफ़ा आदि थे । नींबू के पौधे भरे हुए थे । चठैल की लत्ती चारों तरफ फैली हुई थी । सी.एम. कॉलेज का लैबोरेटरी ब्वॉय वासुदेव मंदिर परिसर में खूब साग-शब्जी उपजाता था । आधा वह ले जाता था और आधा हमलोगों को दे देता था । कभी शब्जी खरीदने की आवश्यकता नहीं हुई ।

लकड़ी के चूल्हे पर खाना मैं ही बनाता था । पूजा के लिए फूल तोड़ना भी मेरा ही काम था । कभी-कभी पूजा का भार भी मुझ पर ही सौंपकर पण्डितजी बाहर चले जाते ।

बागमती नदी में स्नान करने में बहुत आनन्द आता । कॉलेज काफी दूर था । अतः क्लास के बाद शाम में काफी देर से आता । फिर तुरत रात का भोजन बनाना पड़ता । शरीर चूर-चूर हो जाता । पढ़ने बैठता तो नींद आने लगती । सुबह फिर फूल तोड़ना, भोजन बनाना आदि काम करते-करते कॉलेज का समय हो जाता । लगभग 45 मिनट कॉलेज जाने में लगता । होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता ।


कबड़ाघाट में एक सबसे बड़ा आकर्षण भी था । मन्दिर के सटे मिथिला रिसर्च इंस्टीट्यूट था । वहाँ संस्कृत के स्नातकोत्तर की पढ़ाई और शोधकार्य होते थे । संस्कृत के एक से एक प्रकाण्ड विद्वान इंस्टीट्यूट में थे । पण्डित शोभाकांत झा संस्थान के निदेशक थे । एक पण्डित बलराम अग्निहोत्री बहुत ही प्रतिष्ठित ख्यातिप्राप्त विद्वान थे । उनके एक पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं । सबसे बड़ी पुत्री आइ.ए.एस, दूसरी पुत्री डॉक्टर और सबसे छोटा एकमात्र लड़का सतीश अग्निहोत्री था जो फीजिक्स ऑनर्स में टॉप किया था । वह भी बाद में आइएएस बन गया ।

ससुरजी की इच्छा थी कि मैं फिजिक्स ऑनर्स की पढ़ाई करूँ । अतः फिजिक्स के टॉपर और उसके विशिष्ट परिवार के प्रत्येक विशिष्ट सदस्य की संगति का लाभ प्राप्त करना मेरे लिए बड़े ही सौभाग्य की बात थी । मैं प्रत्येक रविवार को उनके यहाँ जाता और घंटों सतीशजी से फिजिक्स पर डिस्कसन करता । धीरे-धीरे मुझे भी भौतिकी में रुचि बढ़ने लगी ।उनलोगों की संगति अप्रतिम थी जिसे जीवन पर्यन्त भूल नहीं पाऊँगा । एक तृषित व्यक्ति को जैसे गंगाजल का भंडार प्राप्त हो गया था ।


शिक्षा :- सत्संगति का लाभ अनुपम है ।

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21. कबड़ाघाट मन्दिर :-

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कबड़ाघाट मन्दिर पर करीब तीन माह का समय आनन्दपूर्वक बीता । अब पण्डितजी का असली चेहरा सामने आया । अब उन्हें मेरे हाथ के भोजन का स्वाद अच्छा नहीं लगता । एक रोज स्वयं बनाने चले गए । मुझे अच्छा ही हुआ, भोजन बनाने के समय की बचत हुई और वह समय पढ़ाई के काम आया । 

मैं लकड़ी के कोयलेवाले कूकर पर छोटे-छोटे तीनो डब्बों में चावल, दाल, आलू डाल देता । कोयला सुलगा देता । इधर मैं जबतक स्नान-ध्यान कर कपड़े पहनता तबतक उधर मेरा भोजन तैयार हो जाता । आलू के चोखा में नमक, प्याज और सरसों का तेल मिला देता । नित्य भात-दाल-चोखा या खिचड़ी-चोखा मेरा भोजन होता ।

कुछ दिन इस तरह चला । लेकिन पण्डितजी को यह कैसे वर्दाश्त होता । उनको मेरी पढ़ाई से क्या मतलब, उन्हें तो अपने काम के लिए मात्र एक सहायक की आवश्यकता थी । अब मैं उनका कोई हेल्प नहीं कर रहा था । वे अब हमेशा वासुदेव से मेरी शिकायत किया करते । मेरे प्रत्येक क्रिया-कलाप की आलोचना करते ।

 एकदिन वासुदेव के माध्यम से उन्होंने मुझे मेरे वहाँ रहने से उन्हें कोई लाभ नहीं होने की बात कहबा दी । मैं दूसरे ही दिन पेटी-बाकस, किताब, कपड़े, बिस्तर लेकर मिश्रटोला में दारोगा लॉज आ गया ।

कबड़ाघाट से निकलते ही ऐसा अनुभव हुआ मानो पिंजरे का पक्षी मुक्त गगन में उड़ान भरने लगा हो । वहाँ लगभग 35 छात्र रहते होंगे । छात्रों में आपस में खूब डिस्कसन होता । पढ़ाई की दृष्टि से यह मेरे लिए अनुकूल स्थान था । यहाँ 8 रुपए भाड़ा लगता था लेकिन मन की शान्ति और प्रसन्नता के आगे उसे फ्री से भी अच्छा समझना चाहिए ।

केवल एकान्त जगह होने से नहीं होता, मन की शान्ति और प्रसन्नता का असली महत्व है ।

मेरे एक ग्रामीण मित्र स्व0 भवनाथजी मेरे साथ पढ़ाई करने के उद्देश्य से मधुबनी से दरभंगा आ गए । अब तो और अधिक मन लगने लगा । खाना बनाने में भी उनका सहयोग मिलने लगा । स्टोव पर स्वादिष्ट भोजन बनने लगा ।

इंजीनियरिंग प्रतियोगिता की असली तैयारी मैंने यहीं से की ।

पढ़ाई में कितना मन लग रहा था वर्णन नहीं कर सकता ! 

यहीं से मैं, कमलेशजी और लीलाजी अभियांत्रिकी प्रतियोगिता परीक्षा देने पटना गए । गुलज़ारबाग़ पॉलिटेक्निक में सेंटर था ।

दरभंगा में राम मन्दिर पर RSS का कार्यालय था । वहाँ दरभंगा के प्रचारक श्री राम सेवक शरण रहते थे । उनके कारण हमलोग भी RSS की शाखाओं में काफी सक्रिय थे ।

राम सेवकजी का पत्र लेकर हमलोग RSS के कदमकुआं स्थित मुख्यालय भवन में ठहरे थे । बहुत साफ-सुथरा भव्य दो मंजिला भवन था । हमलोग ग्राउंड फ़्लोर पर हॉल में अंटके थे । कमलेश जी का ज़िक्र पत्र में नहीं था अतः कुछ आपत्ति हुई, लेकिन फिर उन्हें भी रहने की स्वीकृति मिल गई । शायद चार-पाँच दिन रहना पड़ा ।


पटना जैसे विशाल शहर में घूमने का कुछ अलग ही आनंद था । उस समय फुरसत मिलते ही पैदल पूरा पटना छान मारता था । गाँधीमैदान, गोलघर, चिड़ियाघर, गवर्नरहाउस तो हमलोग बातचीत करते टहल लेते थे । 

अभी लगभग 31 वर्षों से पटना में रह रहा हूँ लेकिन अधिक समय घर या ऑफिस में ही बीता है । बिना काम का कहीं नहीं गया हूँ । उस समय की बात ही कुछ और थी । एक -आध मित्र साथ रहे तो सुबह से शाम तक कदमकुआं से गुलज़ारबाग, कंकड़बाग से सचिवालय तक पैदल यात्रा करना आम बात थी ।

हँसते-खेलते हमलोगों ने परीक्षा दी । परीक्षा के बाद आपस में प्रश्न-उत्तर पर खूब डिस्कसन होता, खूब मजा आता । बातचीत करते हुए गुलज़ारबाग से कदमकुआं आ जाते, बीच में गाँधीमैदान में भी टहल लेते ।


****शिक्षा :- केवल एकान्त स्थान से कुछ नहीं होता, मन अगर शान्त और प्रसन्न रहे तो भीड़-भाड़वाले जगह में भी कोई अच्छी साधना/पढ़ाई कर सकता है ।****

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