बढ़य देश के मान जाहि सँ
काज करी से,
सबक्यो हिलिमिलि रही जाहि सँ
काज करी से ।
जाति-धर्म सँ ऊपर उठिक'
सोची सबदिन,
प्रेम बढय अति आपसमे
सब काज करी से ।।
सार्थक राखी सोच
जइड़ ने ककरो कोरी,
ध्येय रहय उपकारे
मुँह ने कखनो मोरी ।
राजनीति वा खेल
करी अवसरक प्रतीक्षा,
सेवें मेवा लाभ
ने आफ़न कखनो तोड़ी ।।
हड़बड़ जे क्यो करता
गड़बड़ तिनका हेतनि,
हाथ विफलता लाभ
सफलता दूर पड़ेतनि ।
उत्तम पुत्रक प्राप्ति
धारि नओ मास गर्भमे,
ऋतु सँ पूर्वे वृक्ष
सुफल कखनहुँ ने देतनि ।।
कहू बिना उद्यम के
कहियो फल क्यो पायत!
मात्र मनोरथ सँ की
भोजन मुखमे जायत !
सूतल सिंहक मुखमे
कहियो मृग नहि पैसय,
सूतल लोकक घर सँ
अर्थो दूर पड़ायत ।।
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