ल'ग मे रहले सँ क्यो,
नहि हृदय मे स्थान पाबय ।
दूर चलि गेनहिं सँ क्यो,
नहि हृदय सँ दूरे भ' पाबय ।।
ल'ग मे वा दूर मे हो,
भाव सबसँ पैघ अछि ।
बिना प्रेमे ल'ग दूरे,
प्रेमे ल'ग लगैत अछि ।।
निशाकर आकाश, कुमदिनि-
जले पर निबसैत छथि ।
होइत देरी शशिक दर्शन,
प्रफुल्लित विकसैत छथि ।।
ल'ग मे रहितो तँ बहुतो
लोक नित लड़िते रहय ।
गप्प-सप्पो बन्द सबदिन
दुगोला करिते रहय ।
थुक्कम-फज्झति सँ तँ दूरे
रहब बढियाँ बुझि पड़य ।
भले फोने पर हो गप-सप,
स्नेह के सरिता बहय ।।
भले क्यो दूरे किए ने,
याद हरदम जँ करय ।
डोइर मजगुत बनल रहने,
प्रेम कहियो ने घटय ।।
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