क्यो ने ककरो मित्र आ ने
शत्रु जन्मे सँ रहय ।
स्वयं के व्यवहार सँ क्यो
दोस्त वा दुश्मन बनय ।।
आंतरिक अछि शत्रु असली
बाह्य रिपु के किछु ने मोजर ।
क्रोध घिरना लोभ लालच
काम मोहे होइछ जोरगर ।।
एके ईश्वर सभक उरमे
आन क्यो नहि रहय जगमे ।
स्वयं सँ के करत घिरना
प्रेम सबसँ रहय जगमे ।।
दोष अप्पन क्यो लखय नहि
मनुखमे बड़का अगुण अछि ।
अपन दोषो के ओ अनके
माथ मढ़बा मे निपुण अछि ।।
अपन जीवन के दुखी-
त्रासद स्वयं अपने बनाबी ।
शत्रु हम्मर दोष अपनहि,
नाम हम अनकर लगाबी ।।
सब जँ अप्पन अवगुणे लखि,
मेटाब' मे लागि जायत ।
गुणे अनकर जँ देखय तँ,
स्वर्ग धरणी के बनायत ।।
स्वर्ग धरणी के बनायत!!!
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