कटि रहल अछि गाछ सौंसे,
भू-क्षरण अछि भ' रहल ।
वायु के धूआँ आ गर्दें,
प्रदूषित सब क' रहल ।।
प्रकृति संग व्यवहार अनुचित,
लोक निश-दिन क' रहल ।
जेहन करनी तेहन प्रतिफल,
ओहो बदला ल' रहल ।।
ग्रीष्म धधकाबय जगत के,
धाह स' जिबिते जराबय ।
जाड़ भेल निर्मोह, जीवक-
हड्डियो तक के गलाबय ।।
कतहु अतिशय वृष्टि, दाही-
घ'र आँगन तक दहाबय ।
कतहु होमय महारौदी,
जजातो सबके जराबय ।।
प्रदूषित पर्यावरण अछि,
श्वास दुर्लभ भ' रहल ।
अपन किरदानी स' मानव,
प्राण अपनहि ल' रहल ।।
पठाक' भुवकम्प तांडव-
प्रकृति कुपितें क' रहलि ।
ढाहिक' असमय हिमनद
जान सबके ल' रहलि ।।
वृक्ष के रोपबाक जँ
सब लोक के संकल्प होमय,
फलें पुष्पें भरय धरणी,
प्रदूषण अत्यल्प होमय ।।
गाछ-बिरिछक वृद्धिएँ
सब जीव-जंतुक हएत रक्षण ।
सैह हो पूजा प्रकृति केर,
बनत धरणी अति विलक्षण ।।
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