दक्ष छथि गृहकार्य मे आ
नीक सँ घर के सजाबथि ।
शिशुक पालन खूब उत्तम,
स्वादयुत भोजन बनाबथि ।।
अतिथि सेवा मे निपुण आ
कुशलतें घर के चलाबथि ।
सुशीला छथि जनिक घरनी,
भाग्यशाली से कहाबथि ।।
भले हो समृद्धि, भार्या-
हराशंखी रहथि जैठाँ ।
भरल कलहे रहय सदिखन,
नर्क के हो बास तैठाँ ।।
प्रेममय व्यवहार, वाणी-
मधुर गृहिणी जनिक घरमे ।
ततय कटुता टिकि सकत नहि,
दृश्य स्वर्गक तनिक घर मे ।।
पतिव्रता पति-परायणा
पति छोड़ि जे अनका ने सोचथि ।
पतिक से अनुगामिनी,
पतिए तनिक सर्वस्व होबथि ।।
बजय थोपड़ी दुनू हाथे,
एक पत्नीव्रत हो पतिओ ।
मातृवत पर नारि, भार्या-
के ने दुख क्यो देथु कहिओ ।।
गृहस्थाश्रम शकट के
चक्काके मजगुत खूब राखू ।
जगत प्रगतिक रेस मे
तखनहि अहाँ रहि सकब आगू ।।
जतय माता जानकी सम,
पिता होयत राम सम ।
ततय किछु संदेह नहि जे
लव-कुशक होयत जनम ।।
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