प्रकृति संग व्यवहार अनुचित,
लोक निश-दिन क' रहल अछि ।
जेहन करनी तेहन प्रतिफल,
ओहो बदला ल' रहल अछि ।।
ग्रीष्म धधकाबय जगत के,
धाह स' जिबिते जराबय ।
जाड़ भेल निर्मोह, जीवक-
हड्डियो तक के गलाबय ।।
कतहु अतिशय वृष्टि, दाही-
घ'र आँगन तक दहेलक ।
कतहु भ' गेल महारौदी,
जजातो सबके जरेलक ।।
प्रदूषित पर्यावरण अछि,
श्वास दुर्लभ भ' रहल अछि ।
अपन किरदानी स' मानव,
प्राण अपनहि ल' रहल अछि ।।
गाछ-बिरिछक वृद्धि हो, सब-
जीव-जंतुक करी रक्षण ।
सैह थिक पूजा प्रकृति केर,
भ' जेतै धरणी विलक्षण ।।
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