हरा गेल जँ कथू तँ
कानब उचित नहि,
अहाँ लग जे बस्तु अछि
सब अही जगतक ।
कथी ल' क' छलहुँ आयल
अहि जगत मे,
जे भेटल से बस्तु अछि
सब अही जगतक।।
आइ जे किछु अहाँ लग
सम्पत्ति भौतिक,
सकल दोसर केर से सब
काल्हि तक छल ।
फेर परसू यैह सब
तेसर के होयत,
जे हमर नहि, हरा गेल तँ
कथी बिगड़ल?
जते संग्रह कएल
सब छल अहीठामक,
खुशी होउ किछु भार माथक
घटा लेल जँ ।
बिदा बेर मे संग मे नहि
जाइछ किछुओ,
माथ हल्लुक बुझी किछुओ
हरा गेल जँ ।।
***************************
No comments:
Post a Comment