
Wednesday, February 12, 2025
दादाजी के संस्मरण (d):-
मेरे बड़े भैया स्व0 टी एन झा के एक मित्र थे स्व0 चौधरी । वे रेलवे में गार्ड थे । भैया के साथ कभी-कभी मैं भी उनके यहाँ जाता था। उनका दामाद मुझसे एक साल जूनियर था और बी.आइ.टी., मेसरा से सिंदरी ट्रांसफर करा लिया था । चौधरीजी ने मेरे हॉस्टल का पता अपने दामाद को दिया और वे मेरे पास आए । मेरे रूम में अपना सामान रखकर घर चले गए, लेकिन काफी समय तक नहीं लौटे । उन दिनों मैं हॉस्टल सं0 14 में रहता था। थर्ड इयर पास कर फ़ोर्थ इयर में गया तो ए जोन का हॉस्टल 5 एलॉट हुआ । मैं तो चला गया लेकिन चौधरीजी के दामाद का सामान हॉस्टल 14 के मेरे कमरे मे पड़ा रहा । रूम खाली करने के समय मैंने चीफ वार्डन साहब से सारी बातें बताई तो उन्होंने उनके सामान को कौमन रूम मे रख देने के लिए कहा । गार्ड ने उनके सामान को कॉमन रूम में रख दिया और मैं चैन से अपने हॉस्टल में रहने लगा। कुछ दिन के बाद एक रोज मैँ सो कर उठा ही था कि हॉस्टल 14 के दरबान को अपने गेट पर पाया । वह जोड़-जोड़ से मेरा दरबाजा खटखटा रहा था । मैंने दरबाजा खोला तो दरवान को देखकर मन खट्टा हो गया, मैं समझ गया कि यह अधकपारी फिर मेरा माथा चाटने आ गया । मेरे पूछने पर कि क्या बात है, उसने हॉस्टल वार्डन साहब प्रोफेसर आर. एन. सिंह का फरमान सुनाया कि आज ही कॉमन रूम खाली करना है । मेरा मूड अच्छा नहीं था, सो मैंने उसे यह कहते हुए डाँटकर भागा दिया- " जाओ, जो करना हो करो, मैं खाली नहीं करूँगा; चीफ वार्डन साहब ने सामान वहाँ रखबाया है ।" दरवान ने मेरे सारे शब्दों में नामक-मिर्च लगाकर वार्डन साहब को जाकर कह दिया । संयोग देखिए कि वार्डन साहब मेरे ही विभाग के प्रोफेसर थे । जैसे ही मैं क्लास करने डिपार्टमेंट पहुँचा वार्डन साहब का फरमान आया- "साहब बुला रहे हैं ।" मैं भयभीत हो गया कि अब खैर नहीं है । वार्डन साहब नॉलेज मे कमजोड़ जरूर थे लेकिन हड़काने में राजपूती शान रखते थे। ईश कृपा से मुझे एक उपाय सूझा । मैंने उनके पास जाकर बिना कुछ कहे-सुने दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना कर दी । क्षमा याचना ऐसा ब्रह्मास्त्र है कि क्रोधित से क्रोधित व्यक्ति को भी शान्त कर देता है। क्रोध अहंकार का ही बेटा है, जब अहंकार की तुष्टि हो जाती है तो क्रोध भी शान्त हो जाता है और फिर सारे अपराध माफ हो जाते हैं। उन्होंने मुझे माफ कर तो दिया लेकिन अहंकार मे कुछ गलत भी बोल गए जो मेरी समझ में एक प्रोफेसर के अनुकूल नहीं है । यथा-" देखो मिस्टर झा, हॉस्टल के मामले मे वार्डन सुप्रीम है, चीफ वार्डन से भी ऊपर ।" यह बात मेरे पल्ले नहीं चढ़ी। यद्यपि फाइनल इयर का छात्र मित्रवत् समझा जाता है, तथापि मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा, वरना बनी हुई बात बिगड़ जाती ।
जब काम लेना हो तो चुप रहना ही श्रेयस्कर है, दूसरे के अहंकार की तुष्टि होने दें, अपने अहं का त्याग सदैव श्रेयस्कर होता है । साँप अगर चोटाया रहता है तो कभी न कभी जरूर डँसता है । मुझे भी इसी का भय बना हुआ था, लेकिन जब ईश सहायक हों तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । इंजीनियरिंग मे प्रोफेसर के हाथ मे छात्र का करियर रहता है। लेकिन ईश्वर की कृपा देखिए कि प्रोफेसर आर. एन. सिंह कुछ ही दिनों के बाद पी. एच. डी . करने के लिए विदेश चले गए और मैं सदा के लिए निश्चिंत हो गया । उनसे मेरी 35 साल बाद पटना में एक मीटिंग में भेंट हुई जब मैं सचिव प्रावैधिक(अभि0 प्रमुख) था और वे निदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी थे। पता नहीं उन्हें पुरानी बातें याद थी कि नहीं, मुझे तो वह घटना आज भी वैसी की वैसी ही याद है ।
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