Tuesday, February 18, 2025

दादाजी के संस्मरण (h) :-

गया :- भारत के बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर और गया जिले का मुख्यालय है । यहाँ के लोग मगही बोलते हैं । यह अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थलों में से एक है । यहाँ विदेशी पर्यटक लाखों की संख्या में आते हैं । इस नगर का हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मों से गहरा ऐतिहासिक सम्बंध रहा है । गया का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है । गया तीन ओर से छोटी व पथरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, शृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि है । नगर के पूरब में फल्गू नदी बहती है । वैदिक काल के कीकट प्रदेश के धर्मारण्य क्षेत्र में स्थापित नगरी है गया । वाराणसी की तरह धार्मिक नगरी के रूप मे गया की प्रसिद्धि है । पितृपक्ष मे पितरों को पिंडदान के लिए लाखों श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं । यहाँ का विष्णुपद मंदिर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है । पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पाँव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है । हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है । मुक्तिधाम के रूप मे प्रसिद्ध गया तीर्थ को गया जी कहा जाता है । कहा जाता है कि भगवान विष्णु का परम भक्त गयासुर नामक दैत्य भगवान को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया कि मेरे यज्ञ करते समय मेरे दर्शन करनेवालों के सारे दोष क्षमा कर दिए जायँ । अनंत राक्षस लोग जिंदगी भर कुकर्म कर मृत्यु के समय उसके दर्शन कर मुक्त होने लगे । अतः भगवान विष्णु ने उसे धरती के भीतर यज्ञ करने को कहा और उसे धरती के भीतर अपने पैरों से भेज दिया । ऐसा करते समय भगवान के पैर के चिन्ह यहाँ पर पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते हैं । गया मौर्य काल में एक महत्वपूर्ण नगर था । खुदाई के समय सम्राट अशोक से संबंधित आदेश पत्र पाया गया है । 1787 में होल्कर वंश की (बुंदेलखंड) साम्राज्ञी महारानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था । मेगास्थनीज की इंडिका, फ़ाह्यान तथा व्हेनसांग के यात्रा वर्णन में गया को समृद्ध धर्म क्षेत्र के रूप में वर्णन किया गया है । ज्ञान की खोज मे करीब 500 ई0 पूर्व गोतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या करने बैठे । यहीं भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह स्थान बोधगया कहलाने लगा । बोधगया :- बिहार में गया से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया एक प्रमुख धार्मिक स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध को 2500 वर्ष पूर्व बोधि वृक्ष के नीचे बोध की प्राप्ति हुई थी, इसीलिए उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा । यह बौद्ध धर्म का पवित्रतम स्थल है । यहाँ के महाबोधि मंदिर का धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय पहचान है । बोधगया, पूर्व मे मगध राज्य की राजधानी भी रह चुका है । यहाँ प्रतिवर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्वारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है । यह स्थान राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है । वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया । करीब 500 ई 0 पूर्व गौतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या करने बैठे । तीन दिन और तीन रात की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद वे बुद्ध के नाम से जाने गए । उन्होंने वहाँ 7 हफ्ते अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जाकर धर्म का प्रचार शुरू किया । बुद्ध के अनुयायियों ने बैसाख पूर्णिमा के दिन उस स्थान पर जाना शुरू किया जिस दिन बुद्ध ने जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त की थी । धीरे-धीरे यह स्थान बोधगया के नाम से जाना गया और यह दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया । 528 ई 0 पूर्व कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया । वे ज्ञान प्राप्ति हेतु निरंजना नदी के तट पर भासे एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए । इसी गाँव मे एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे । एक दिन वे ध्यान में लीन थे तो गाँव की एक लड़की सुजाता एक कटोएर खीर तथा शहद लेकर आई । खीर, शहद खाने के बाद उन्हें और अच्छा ध्यान लगा । कुछ दिनों बाद अज्ञान का बादल छँट गया, उन्हे ज्ञान प्राप्त हो गया । अब वे बुद्ध थे। महाबोधि मंदिर में स्थापित मूर्ति का संबंध स्वयं भगवान बुद्ध से कहा जाता है । मंदिर निर्माण जब पूर्ण होने को था तो लोगों ने एक शिल्पकार को खोजना शुरू किया जो अच्छी मूर्ति बना सके । एक दिन एक शिल्पकार आया और बोला कि वह छह माह में मूर्ति निर्माण कर देगा लीकीन शर्त है कि समय के पहले कोई मंदिर का दरबाजा न खोले । व्यग्र ग्रामवासियों ने समय से चार दिन पहले ही मंदिर का दरबाजा खोल दिया । मंदिर के अंदर एक भव्य मूर्ति थी लेकिन छाती वाला भाग पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था । कुछ दिन बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर में रहने लगा । बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही इस मूर्ति का निर्माण किया था । बुद्ध की यह मूर्ति बोद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्ति है । नालंदा और विक्रमशिला के मंदिरों में इसी मूर्ति की प्रतिकृति स्थापित है । बोधगया को बुद्ध के समय उरुवेला के नाम से और फल्गू नदी निरंजना के नाम से जाना जाता था । हमलोग गाइडजी के साथ बोधगया के सभी स्थानों का भ्रमण किया । तिब्बतियन टेंपूल, थाइ टेंपूल, जैपनीज टेंपुल, भूटानी मंदिर/मठ, वियतनामी मंदिर .. आदि स्थापत्य कला के अनोखे नमूने हैं । सभी प्रमुख स्थानों को देखकर हमलोग ट्रेन से धनबाद आ गए, फिर मिनी बस से सिंदरी । इस ट्रिप को पर्यटन की दृष्टि से बहुत उत्तम मानता हूँ । अभी तक गया और बोधगया कई बार भ्रमण कर चुका हूँ लेकिन फिर सासाराम और इंद्रपुरी जाने का मौका नहीं मिला ।

Friday, February 14, 2025

दादाजी के संस्मरण (g) :-

फाइनल ईयर में असैनिक अभियंत्रण के छात्रों का एक जिऑलोजिकल टूर जिओलॉजी विभाग के तरफ से रखा गया । प्रोफेसर श्रीवास्तव जिओलॉजी के हेड थे, वे भी हमलोगों के साथ थे । हमलोग धनबाद से ट्रेन से सासाराम के डेहरीऑनसोन गए । वहाँ से इंद्रपुरी बराज देखने गए । इंद्रपुरी बराज :- सोन नदी पर निर्मित यह बराज सिंचाई की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । इसकी लंबाई लगभग 1407 मीटर(4616') और फाटकों की संख्या 60 है जिसमे से केवल 9 से ही जल निकासन होते हैं । यह दुनियाँ का चौथा सबसे लंबा बैराज है (दुनियाँ का सबसे लंबा बैराज फरक्का बैराज हैजिसकी लंबाई 2253 मीटर है) । यह 1960 मे शुरू हुआ और 1968 में चालू किया गया । अंग्रेजों के समय में 1873-74 में देश की सबसे पुरानी सिंचाई प्रणालियों में से एक देहरी में सोन के पर एक एनीकट के साथ विकसित किया गया था । सोन से नदी के दोनों किनारों पर नहर प्रणाली से पानी और बड़े क्षेत्रों की सिंचाई की जाती है । एनीकट से 8 कि.मी. ऊपर इंद्रपुरी बैराज निर्मित है । इसके दो मुख्य कैनाल हैं- पूर्वी नहर 144 कि0मी0 और पश्चिमी 212 कि०मी० । इसकी 149 शाखा नहरें हैं और 1235 बितरितियाँ हैं । मुख्य उद्देश्य खेतों की सिंचाई और जलापूर्ति तथा बाढ़ नियंत्रण ही है लेकिन विजली उत्पादन से भी लोग लाभान्वित हो रहे हैं । इसका निर्माण हिंदुस्तान कन्सट्रक्सन कंपनी ने किया था, इसी कंपनी ने फरक्का बराज भी बनाया है । इंद्रपुरी बांध पर्यटकों को भी खूब आकर्षित करता है । हमलोगों को गेस्ट हाउस में अंटकाया गया था और शानदार भोजन का इंतजाम था । हमलोगों ने उसी जंगल मे मंगल मनाते हुए रात्रि-विश्राम किया । पुनः शुबह मे बराज, जलाशय और प्रकृति का आनंद लेते हुए हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन पहुँचे । वहाँ से सासाराम स्टेशन उतरकर शेरशाह का मकबरा देखने गए । शेरशाह का मकबरा :- बिहार के सासाराम स्थित शेरशाह सूरी के मकबरा निर्माण 16 अगस्त 1545 को पूरा हुआ । यह बिहार के पठान सम्राट शेरशाह सूरी की याद मे बनाया गया था । शेरशाह सूरी का जन्म 1486 में हुआ था । उसके जन्म का नाम फरीद खान था । भारत मे जन्मा इस पठान ने मुगल सम्राट हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य की स्थापना की । बाबर की सेना में एक साधारण सैनिक रहते हुए अपनी बहादुरी के बाल पर वह सेनापति बन गया और फिर बिहार का राज्यपाल बन गया । 1537 मे हुमायूँ जब सुदूर अभिया पर था तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश की स्थापना की । 1539 मे चौसा की लड़ाई मे हुमायूँ का सामान्य करना पड़ा और वह जीत गया । 1540 में पुनः हुमायूँ को हराकर उसे भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। शेरखान की उपाधि पाकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य हो गया । 1545 में कालिंजर की घेराबंदी के दौरान राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय द्वारा बेरहमी से मार डाला गया । शेरशाह के अनेक प्रशंसनीय जनकल्याण के कार्य हैं। रुपया उसी का चलाया हुआ है । विश्व प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड उसी का बनाया हुआ है । यह काबुल से लेकर चटगांव तक उसके द्वारा निर्मित है । सड़क की दोनों तरफ पेड़, मील के पत्थर, धर्मशाला, सौचालय, जलापूर्ति हेतु कुंए .. आदि कल्याणकारी कार्य उन्होंने कराए । अपने जीवनकाल में ही उसने अपने मकबरे का निर्माण शुरू करबाया । 13 मई 1545 को उसकी मृत्यु हुई और 16 अगस्त 1545 को मकबरे का निर्माण पूरा हो गया । अपने गृहनगर सासाराम मे उसका मकबरा कृत्रिम झील से घिरा हुआ है । यह हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना है । शेरशाह के मकबरा को भारत का दूसरा ताजमहल भी कहा जाता है । लगभग 52 एकड़ में फैले सरोवर के बीच में मकबरा करीब 122' ऊंचा है । यह मकबरा विश्व के ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है । इसके वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खान थे । इसका निर्माण रेड सैंड स्टोन से हुआ है । मकबरा वर्गाकार पत्थर के चबूतरे पर बना है । प्रत्येक कोने में गुंबददार खोखे हैं, छतरीस, इसके आगे पत्थर के किनारे और चबूतरे के चारों ओर सीढ़ीदार मूरिंग्स हैं, जो एक विस्तृत पत्थर के पुल के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ है । मुख्य मकबरा अष्टकोणीय है जिसके शीर्ष पर एक गुंबद है जो 22 मी0 ऊँचा है जिसके चारों ओर से सजावटी गुंबददार खोखे हैं जो कभी रंगीन चमकता हुआ टाइल के काम मे शामिल थे । मकबरे के चारों ओर की झील को सूर राजवंश द्वारा सुल्तान वास्तुकला के अफ़गान चरण में विकास के रूप मे देखा जाता है । मकबरा शेरशाह के साथ-साथ उसके बेटे इस्लाम शाह के शासनकाल के दौरान शेरशाह की मृत्यु के तीन माह बाद (16.08.1545) बनाया गया था । शेरशाह सूरी के पिता का नाम हसन शाह सूरी था । उसका भी मकबरा कुछ ही दूर पर है जिसे 'सूखा रौजा' कहा जाता है । हमलोगों ने पूरा कैंपस का भ्रमण किया । मैंने किसी से अकेले में पूछा था कि दूर में दिखाई देनेवाला मकबरा किसका है तो उसने कहा था कि वह शेरशाह के पिता का मकबरा है । जब हमलोग मकबरा पर ऊपरी मंजिल पर टहल रहे थे तो यही प्रश्न हमारे प्राध्यापक महोदय ने पूछ दिया कि बगल का मकबरा किसका है । मैंने कहा कि शेरशाह के पिता का है । उन्हें लगा कि यह मेरा मजाक उड़ा रहा है । वह मेरी ओर कुछ क्रोधित मुद्रा में देखते हुए आगे बढ़ गए । जब हमलोग टहलकर नीचे उतर रहे थे तो उन्होंने दूर जाकर चुपचाप किसी से वही प्रश्न किया । पर्यटक ने मेरा ही उत्तर दिया । अब उनका क्रोध शान्त हो गया था और वे तेजी से मेरे पास आकर मेरी पीठ थपथपाये- "मिस्टर झा, तुम ठीक बोले थे, वह शेरशाह के अब्बू का ही मकबरा है" । मुझे हँसी आ गई । हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन आकर धनबाद की गाड़ी में चढ़ गए । हमारा एक साथी था जरताब जाफ़र कुरेसी । वह मुजफ्फरपुर के एक प्रख्यात चिकित्सक का लड़का था । वह हमलोगोंके साथ बिहार सरकार में ज्वाइन किया था लेकिन कुछ वर्षों के बाद अमेरिका चला गया, आजकल लॉस-एंजिलिस में एक प्रमुख उद्योगपति है । वह भी उस टूर मे हमलोगों के साथ था । उसका बड़ा भाई गया मेडिकल कॉलेज में पढ़ता था और प्राइवेट लॉज मे रहता था । उसने गया मे घूमने का प्रोग्राम बनाया तो मेरा भी गया घूमने का मन हुआ । मैं, बरुनजी, सुरेन्द्र, ललनजी, जरताब, कृष्ण कुमार .. आदि लगभग आठ-नौ लड़के गया मे उतर गए । शाम में जरताब के भाई के लॉज पहुँचे । उसके भाई ने अपने मित्रों को बोलकर कई कमरों में हमलोगों के ठहरने का इंतजाम कर दिया । रात्रि विश्राम के बाद सुबह 7 बजे हमलोग बोधगया गए । बोधगया में ललनजी के बहनोई पर्यटन विभाग मे गाइड थे । वही हमलोगों को सभी पर्यटन स्थलों को घुमाने लगे । फ्री के गाइड का काम करने लगे । अब जरा मैं गया और बोधगया के बारे मे कुछ जानकारी देना उचित समझता हूँ ।

Thursday, February 13, 2025

दादाजी के संस्मरण (f) :-

हमलोग जब फाइनल ईयर में थे तो अनगिनत स्मरणीय इवेंट हुए जिनका उल्लेख करना समुचित होगा । उस समय फाइनल ईयर के छात्र ऑल इंडिया टूर पर जाते थे । लेकिन हमलोग नहीं जा सके उसका कारण एक घटना था । सेशन लेट रहने के कारण हमारे सेनीयर बैच के छात्र भी फाइनल ईयर मे ही थे । वे लोग ऑल इंडिया टूर पर गए । रेलवे से कॉलेज प्रशासन द्वारा एक बोगी रिजर्व कराया गया था । टूर के लिए जिन-जिन जगहों को निर्धारित किया गया था, वहाँ के लिए चलनेवाली ट्रेनों मे उक्त बोगी को जोड़ दिया जाता था । कई जगह घूमने के बाद छात्रों की बोगी कोलकाता(कलकत्ता) पहुँची । बिहार,बंगाल,यू पी. .. आदि कुछ राज्यों के लोग रेलवे आरक्षण या रिजर्व बोगी को को अधिक महत्व नहीं देते हैं । आज भी परीक्षा के समय या कुछ पर्व-त्योहारों के अवसर पर जहाँ जगह मिली लोग घुस जाते हैं, पुलिस असहाय की तरह मूकदर्शक बनी रहती है । कई बार तो आरक्षणवाले लोग चढ़ भी नहीं पाते हैं, अगर चढ़ भी गए तो अपनी जगह तक पहुँच भी नहीं पाते है । मैं स्वयं कई अवसरों पर इसका भुक्तभोगी रह चुका हूँ । जब इनलोगों की बोगी कलकत्ता पहुँची तो बहुत सारे छात्र प्लेटफ़ॉर्म पर चाय-पान के लिए उतर गए । ट्रेन खुलने के समय छात्रगण अपने डिब्बे में पहुँचे । आरक्षित डिब्बे में खाली सीटों पर लोग बैठ गए थे । छात्रों ने बाहरी लोगों को सीट खाली करने को कहा लेकिन वे कहाँ माननेवाले थे । उनलोगों को क्या पता कि पूरी बोगी में एक ही इंस्टीचूषण के छात्र बैठे हैं ! वे लोग स्वभाववश मारपीट करने लगे । लेकिन बोगी में तो एक ही तरह के सैकड़ों युवा थे, जिनसे धनबाद जिला भर के लोग डरे रहते थे । ये लोग तो भूत की तरह ऐसे अवसर खोजते रहते थे । हड्डों के झुंड को जैसे किसी ने जगा दिया । सभी बाहरी लोगों को मारपीट कर भगा दिया गया । उसका रिजल्ट यह हुआ कि सभी बंगला में चिल्लाने लगे और पूरे प्लेटफ़ॉर्म के लोग रिजर्व बोगी के पास आ गए । गेट बंद था तो लोगों ने खिड़की से घुसकर सबको पीटना शुरू किया । पुलिस मूकदर्शक बनी रही । जो टीचर साथ मे गए थे उन्होंने डायरेक्टर साहब को फोन किया । डायरेक्टर साहब के निर्देश पर सभी घायल छात्रों को लेकर साथ के शिक्षक सिंदरी लौट आए । इसका फल ये हुआ कि हमलोगों का ऑल इंडिया टूर कैंसिल हो गया । बाद में हमलोग अपने ब्रांच के लोगों के साथ निर्माणाधीन महात्मा गाँधी सेतु देखने पटना गए । हमारे विभागाध्यक्ष डॉ0 बी. पी. सिन्हा और एक अन्य प्राध्यापक हमारे साथ थे । डॉ0 सिन्हा जीनियस शिक्षक थे । उन्होंने दुनियाँ में प्रख्यात अभियंत्रण संस्थान मेसेचुसेट्स, अमेरिका से पी. एच. डी. किया था । बाद के दिनों मे उन्हें बी. आइ. टी., सिंदरी का निदेशक, बिहार राज्य निर्माण निगम का प्रबंध निदेशक एवं चेयरमैन, डायरेक्टर साइंस एंड टेक्नोलॉजी.. आदि बनाया गया. उनके एक मित्र इं0 अचिंत कुमार लाल उस समय अधीक्षण अभियंता थे जो महात्मा गाँधी सेतु के प्रभार मे थे । हमलोगों को गंगा ब्रिज गेस्ट हाउस में अंटकाया गया था । गंगा ब्रिज के संवेदक गैमन्स इंडिया लिमिटेड ने हमलोगों का बहुत स्वागत किया । चाय-कॉफी, स्पेशल नाश्ता, डेलीसस लंच, डिनर .. आदि काफी प्रशंसनीय थे । उस समय प्रीस्ट्रेस कंक्रीट बिहार के लिए बिल्कुल नया तकनीक कहना चाहिए । उससे पहले शायद ही बिहार के किसी प्रोजेक्ट में इस तकनीक का इस्तेमाल हुआ था । हमलोगों ने थ्योरी तो जरूर पढ़ा था लेकिन स्थल पर व्यावहारिक रूप से उसे देखने का मौका मिला । गंगा ब्रिज के सभी गर्डर प्रीस्ट्रेस्ड डबल कैंटीलीभर तकनीक पर बनाए गए थे । हालाँकि जो भी कारण रहा हो, बाद के दिनों में हेभी ट्रैफिक और अत्यधिक इंपैक्ट के कारण डबल कैंटीलीवर तकनीक असफल साबित हुआ । अनवरत मेन्टीनेंस से आजीज आकर लगभग तीस साल में ही सुपर स्ट्रक्चर को डबल कैंटीलीवर कन्क्रीट स्ट्रक्चर से बदल कर स्टील स्ट्रक्चर मे कन्वर्ट करना पड़ा । खैर ये सब बातें तो फ्यूचर में घटीं, हमलोगों के लिए शैक्षणिक एवं पर्यटन की दृष्टि से उस ट्रिप का आनंद वर्णनातीत था ।

दादाजी के संस्मरण (e)

दादाजी के संस्मरण (e) जब हमलोग फाइनल ईयर मे था उसी समय कर्पूरी ठाकुर के समय सिंचाई विभाग में काफी भैकेंसी निकली । भकेंसी इतनी अधिक थी कि सिविल के बदले मेकेनिकल इंजीनियर को लिया जाने लगा। हमलोगों का डिमांड था कि सिविल का सीट खाली रखें, हमलोग पास करके आ रहे हैं, तब भरिएगा । उसी प्रोटेस्ट मे हमलोग सिंदरी से और जमशेदपुर से आर. आइ . टी के लोग पटना जा रहे थे । मुख्यमंत्री से मिलकर ज्ञापन देना था । सिंदरी से लगभग 30 छात्र, ट्रैकर और मिनी बस से धनबाद पहुँचे , उस समय सिंदरी से धनबाद आने-जाने का यही मुख्य साधन था । धनबाद मे पाटलीपुत्र एक्सप्रेश में हमलोग चढ़े, यह रेलगाड़ी उस समय धनबाद से पटना और वापसी के लिए बहुत ही आरामदेह एवं समय की बचत के लिए अनुकूल थी। बहुत काम स्टोपेज थी और तुरत स्पीड पकड़ लेती थी। मुझे उन दिनों बरुनजी और सुरेन्द्र की संगति में पान खाने की लत लग गई थी जो लगभग 40 वर्षों तक (2013 तक) तक रही। 2013 में प्रोस्टेट ऑपरेशन के समय चिकित्सक के परामर्श के बाद मैंने पान से संन्यास ले लिया जो 12 वर्ष बीतने पर भी बरकरार है। अब तो पान खाने की इच्छा भी नहीं होती। यह दैव कृपा और दृढ़ ईच्छाशक्ति शक्ति से ही संभव है, नहीं तो भरदिन पान चबानेवाले मेरे जैसे व्यक्ति से ये न छूट पाता। आज जब पान-खैनी खानेवाले लाखों लोगों को कैंसर जैसे असाध्य रोगियों को देखता हूँ तो ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा करता हूँ जिनकी असीम कृपा से मैंने पान खाना 12 वर्ष पूर्व छोड़ सका था, उस चिकित्सक का भी बहुत-बहुत आभार! पान खाने की तलब के कारण हमलोग प्लेटफ़ॉर्म पर बात करते पान लेने की प्रतीक्षा करते रहे। पान लेते-लेते गाड़ी खुल गई। दौड़कर गाड़ी पर तो चढ़ गया लेकिन एक पैर का चप्पल प्लेटफ़ॉर्म पर गिर गया। गाड़ी तुरत स्पीड पकड़ चुकी थी अतः उतरकर पुनः चप्पल लेने का रिस्क नहीं ले सकता था । प्लेटफ़ॉर्म पर के एक व्यक्ति को इशारा किया तो उसने चप्पल उठाकर फेंका लेकिन तबतक गाड़ी आगे बढ़ गई और चप्पल मेरे हाथ में न आकर पुनः प्लेटफ़ॉर्म पर गिर गई । मैं अफ़सोश करते हुए भारी मन से अपने सीट पर आकर बैठ गया । हमारे अगल-बगल के सभी लोग मेरी खिल्ली उड़ाते रहे और घूम फिरकर बात चप्पल पर चलती रही। चप्पल बिल्कुल नई थी, कुछ ही दिनों पहले मैंने खरीदी थी । मैं बहुत गमगीन था । बनावटी मुसकी चेहरे पर लाता था लेकिन अंदर से बिल्कुल मायूस था । भगवान से माना रहा था कि किसी तरह कोई चमत्कार कर दो, स्टूडेंट का एक-एक पैसा बहुत मूल्यवान होता है । ट्रेन मोकामा स्टेशन पहुँच रही थी, भगवान ने मेरी बात सुन ली और अचानक से चमत्कार हो गया । पाटलीपुत्र एक्सप्रेस की सभी बोगियाँ इंटरकनेक्टेड थीं । एक यात्री पीछे के डिब्बे से शायद जगह तलाशते हुए हमारे डिब्बे में आया । उसने हमलोगों की बातचीत सुनी, चप्पल के बारे में बात करते हुए देखकर वह बोल उठा- " पीछे के डिब्बे में किसी ने एक चप्पल फेंका था । एक व्यक्ति की कनपटी में चोट लगी और उसने उस चप्पल से फेंकनेवाले को मारना चाहा लेकिन नई चप्पल देखकर वह रुक गया । उसने सोचा कि जरूर कोई बात है, नहीं तो कोई क्यों अकारण नई चप्पल फेंकेगा । उसने चप्पल को सबको दिखाया, सब हँसने लगे । सबने चप्पल को सीट के नीचे रख देने की सलाह दी । अभी भी जाने पर मिल जायगा ।" हमारे सभी मित्र हंसने लगे, मैं तो चप्पल का नाम सुनते ही दौड़ पड़ा । कई डिब्बों मे खोज करते हुए अंततः लक्ष्य तक पहुँचा । मैंने चप्पल रखनेवाले का आभार व्यक्त किया । मेरी आंतरिक खुशी पुनः लौट आई ।

Wednesday, February 12, 2025

दादाजी के संस्मरण (d):-

मेरे बड़े भैया स्व0 टी एन झा के एक मित्र थे स्व0 चौधरी । वे रेलवे में गार्ड थे । भैया के साथ कभी-कभी मैं भी उनके यहाँ जाता था। उनका दामाद मुझसे एक साल जूनियर था और बी.आइ.टी., मेसरा से सिंदरी ट्रांसफर करा लिया था । चौधरीजी ने मेरे हॉस्टल का पता अपने दामाद को दिया और वे मेरे पास आए । मेरे रूम में अपना सामान रखकर घर चले गए, लेकिन काफी समय तक नहीं लौटे । उन दिनों मैं हॉस्टल सं0 14 में रहता था। थर्ड इयर पास कर फ़ोर्थ इयर में गया तो ए जोन का हॉस्टल 5 एलॉट हुआ । मैं तो चला गया लेकिन चौधरीजी के दामाद का सामान हॉस्टल 14 के मेरे कमरे मे पड़ा रहा । रूम खाली करने के समय मैंने चीफ वार्डन साहब से सारी बातें बताई तो उन्होंने उनके सामान को कौमन रूम मे रख देने के लिए कहा । गार्ड ने उनके सामान को कॉमन रूम में रख दिया और मैं चैन से अपने हॉस्टल में रहने लगा। कुछ दिन के बाद एक रोज मैँ सो कर उठा ही था कि हॉस्टल 14 के दरबान को अपने गेट पर पाया । वह जोड़-जोड़ से मेरा दरबाजा खटखटा रहा था । मैंने दरबाजा खोला तो दरवान को देखकर मन खट्टा हो गया, मैं समझ गया कि यह अधकपारी फिर मेरा माथा चाटने आ गया । मेरे पूछने पर कि क्या बात है, उसने हॉस्टल वार्डन साहब प्रोफेसर आर. एन. सिंह का फरमान सुनाया कि आज ही कॉमन रूम खाली करना है । मेरा मूड अच्छा नहीं था, सो मैंने उसे यह कहते हुए डाँटकर भागा दिया- " जाओ, जो करना हो करो, मैं खाली नहीं करूँगा; चीफ वार्डन साहब ने सामान वहाँ रखबाया है ।" दरवान ने मेरे सारे शब्दों में नामक-मिर्च लगाकर वार्डन साहब को जाकर कह दिया । संयोग देखिए कि वार्डन साहब मेरे ही विभाग के प्रोफेसर थे । जैसे ही मैं क्लास करने डिपार्टमेंट पहुँचा वार्डन साहब का फरमान आया- "साहब बुला रहे हैं ।" मैं भयभीत हो गया कि अब खैर नहीं है । वार्डन साहब नॉलेज मे कमजोड़ जरूर थे लेकिन हड़काने में राजपूती शान रखते थे। ईश कृपा से मुझे एक उपाय सूझा । मैंने उनके पास जाकर बिना कुछ कहे-सुने दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना कर दी । क्षमा याचना ऐसा ब्रह्मास्त्र है कि क्रोधित से क्रोधित व्यक्ति को भी शान्त कर देता है। क्रोध अहंकार का ही बेटा है, जब अहंकार की तुष्टि हो जाती है तो क्रोध भी शान्त हो जाता है और फिर सारे अपराध माफ हो जाते हैं। उन्होंने मुझे माफ कर तो दिया लेकिन अहंकार मे कुछ गलत भी बोल गए जो मेरी समझ में एक प्रोफेसर के अनुकूल नहीं है । यथा-" देखो मिस्टर झा, हॉस्टल के मामले मे वार्डन सुप्रीम है, चीफ वार्डन से भी ऊपर ।" यह बात मेरे पल्ले नहीं चढ़ी। यद्यपि फाइनल इयर का छात्र मित्रवत् समझा जाता है, तथापि मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा, वरना बनी हुई बात बिगड़ जाती । जब काम लेना हो तो चुप रहना ही श्रेयस्कर है, दूसरे के अहंकार की तुष्टि होने दें, अपने अहं का त्याग सदैव श्रेयस्कर होता है । साँप अगर चोटाया रहता है तो कभी न कभी जरूर डँसता है । मुझे भी इसी का भय बना हुआ था, लेकिन जब ईश सहायक हों तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । इंजीनियरिंग मे प्रोफेसर के हाथ मे छात्र का करियर रहता है। लेकिन ईश्वर की कृपा देखिए कि प्रोफेसर आर. एन. सिंह कुछ ही दिनों के बाद पी. एच. डी . करने के लिए विदेश चले गए और मैं सदा के लिए निश्चिंत हो गया । उनसे मेरी 35 साल बाद पटना में एक मीटिंग में भेंट हुई जब मैं सचिव प्रावैधिक(अभि0 प्रमुख) था और वे निदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी थे। पता नहीं उन्हें पुरानी बातें याद थी कि नहीं, मुझे तो वह घटना आज भी वैसी की वैसी ही याद है ।

Tuesday, February 11, 2025

दादाजी के संस्मरण :-(c)

बीआईटी पीरियड में पढ़ाई का सारांश मैं निकालूँगा कि मैं समय का सम्यक् उपयोग नहीं कर सका । इसका मूल कारण अर्थाभाव, आलस्य, अज्ञानता और समुचित मार्गदर्शन का अभाव हो सकता है । परिवार और गाँव में पहले-पहल इंजीनियरिंग में पढ़नेवाले लड़के के साथ ऐसा होना स्वाभाविक भी है । मैंने पढ़ाई को कभी भी बहुत सीरियसली नहीं लिया । सीनियर छात्रों और शिक्षकों से और अधिक मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए था । समय का समुचित उपयोग बहुत ही आवश्यक है । जो बात अभी समझ में आ रही है, काश! उस समय आ जाती तो परिणाम कुछ और होता । लेकिन यही होना मेरे भाग्य में लिखा था । सभी को समय का महत्त्व समझना चाहिए, बाद में पछताने से क्या लाभ! "अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत" इंजीनियरिंग में अत्यधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है । बारहवीं तक की पढ़ाई मेधावी छात्रों को कम मिहनत में भी हो जाती है, लेकिन अभियांत्रिकी की पढ़ाई मेधा के साथ अत्यधिक श्रम खोजती है खैर, जब सेकेंड इयर से छुट्टियों में धनबाद आना बंद हुआ तो ठीक से पढ़ाई चलने लगी और मन भी पढ़ाई में लगने लगा । जब मन लगने लगा तो समझ में भी आने लगा । अब मैं समय का महत्व समझने लगा और व्यर्थ समय बर्बाद नहीं करता था । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब किसी विषय में आपका मन लगने लगता है तो वह विषय समझ में भी आने लगता है । उसी प्रकार जब कोई विषय समझ में आने लगता है तो मन भी लगने लगता है । ऐसी स्थिति जब आए तो खूब समय देना चाहिए । एक ही तरह का सैकड़ों प्रश्न बनाना चाहिए । ऐसा प्रयोग मैं बाद के दिनों में अपने तृतीय पुत्र विमलजी पर कर चुका हूँ । जब वह दसवीमें था तो मैं उससे मैथ के एक ही तरह के सैकड़ों प्रश्न बनबाता था । वाणी को भी कनाडा में कुमौन क्लासेज में इसी उद्देश्य से एक ही तरह के सैकड़ों हजारों प्रश्न दिए जाते हैं सेकंड ईयर के लिए हमलोगों को छात्रावास संख्या 13 एलॉट हुआ । उसमें पुराने छात्र लोग रहते थे । कुछ तो वर्षों से फेल कर रहे थे , कुछ पास करके भी फ्री में अपने पुराने मित्रों के साथ छात्रावास का मजा कर रहे थे । हमलोग बहुत डरे हुए थे कि उन पुराने मुस्टंडों के साथ कैसे रहेंगे । लेकिन वह केवल भ्रम निकला । हमलोग पहले खाली कमरों में घुसे ,बाद में सभी कमरे बिना किसी के प्रतिरोध के खाली हो गए । जिस छात्रावास को वर्षों से कॉलेज प्रशासन खाली नहीं करा सका था वह नए चीफ वार्डन प्रोफेसर् रंगाचारी सर ने आराम से खाली करबा लिया । इससे पहले कभी किसी ने सच्चे मन से निर्भीकतापूर्वक प्रयासही नहीं किया था। इसका अर्थ ये हुआ कि पहले के वार्डन्स ने कभी हिम्मत ही नहीं की थी । दूसरी बात यह कि सत्य के आगे झूठ नहीं टिक सकता । तीसरी बात ये कि अपने जूनियर से कोई भी लड़ना नहीं चाहता है । चौथी कि पूर्ण साहस से निर्भीकतापूर्वक विकराल से भी विकराल शत्रु पर विजय पायी जा सकती है । मेरा एक परम मित्र है, प्रकाश । उससे मेरी बड़ी पटती थी । उसकी गायकी अद्भुत थी । उसके कंठ में माँ सरस्वती का वास था ।अभी भी उसका स्वर वैसा ही है । मेरा कमरा उसके बगल में ही था । बाथरूम में प्रांगण के गार्डेन को पटाने के लिए लंबा पाइप लगा हुआ था । जाड़ा का समय था । एक रोज मैं शाम के वक्त कुछ मित्रों के साथ निकट के बाजार शहरपुरा गया हुआ था । लौटकर आया तो देखता हूँ कि मेरे कमरे में बाथरूम का पाइप लगा हुआ है और पूरा रूम पानी से भरा हुआ है । मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह प्रकाश की शरारत है । मैंने प्रतिशोध की ज्वाला अंदर में दबाए कमरे को साफ किया और पढ़ाई में लग गया । किसी को अंदर का भाव नहीं जानने दिया। दूसरे दिन जब प्रकाश नहीं था तो मैंने वही काम प्रकाश के रूम में कर दिया और चुपचाप कमरा बंद कर पढ़ाई में लग गया । लेकिन तीसरे दिन जब मैं बाहर था तो प्रकाश ने वही काम फिर कर दिया । जाड़े की हाड़ कंपकंपाने बाली रात में पूरा रूम पानी से भरा देखकर मैं आग- बबूला हो गया । पाइप से गिरते हुए पानी के साथ मैं प्रकाश के रूम में पहुँचा । वह दो-तीन मित्रों के साथ बात कर रहा था। पाइप देखकर वह कूदकर आया, हम लोगों में जोर-जोर से झगड़ा होने लगा । भगवती की कृपा से मुँह से ही झगड़ा हुआ; मैं क्रोध को समाप्त कर अपने कमरे में आ गया और कमरा बंद कर मन को शान्त कर पढ़ाई में लग गया । लेकिन, उस रोज के बाद से मेरी प्रकाश से बातचीत बंद हो गई । जहाँ तक मुझे याद है, पूरी बी.आ. टी. अवधि तक हम दोनों की बातचीत फिर नहीं हुई । जब पास कर नोकरी के लिए ईंटभ्यू देने पटना गया तो फिर बातचीत हुई और पुनः मित्रता और अधिक प्रगाढ़ हो गई जो अभी तक बरकरार है। अभी जब उस घटना के संबंध में सोचता हूँ तो काफी पश्चाताप करता हूँ । यद्यपि प्रकाश ने पहले शरारत की थी तो भी मुझे बदला नहीं लेना चाहिए था । वह थोड़ा स्वभाव से ही नटखट है, लेकिन मुझसे लोग ऐसी उमीद नहीं करते हैं । मुझे पहल कर क्षमा मांग लेना चाहिए था । अगर मैं अहं त्याग कर पुनः बातचीत करना शुरू कर देता तो सम्पूर्ण सिंदरी की अवधि में एक प्रिय मित्र के नैसर्गिक सान्निध्य सुख से वंचित नहीं रहता । मेरी पाठकों से सलाह है कि वही महान होता है जो पहले क्षमा मांग लेता है । बाद के दिनों में मैंने जीवन में अनेकों बार इस अस्त्र का प्रयोग किया मानसिक शांति के साथ-साथ अतिशय आनंद प्राप्त किया ।

दादाजी के संस्मरण (b)

बी.आइ.टी. सिंदरी में द्वितीय वर्ष :- द्वितीय वर्ष में मैंने पहला यह संकल्प लिया कि अनावश्यक धनबाद नहीं जाऊँगा । इसका फल यह हुआ कि मुझे पढ़ाई के लिए शनिवार और रविवार का काफी समय मिलने लगा । मुझे अब पाठ संबंधी कोई तनाव नहीं रहता था । खेल-खेल में मेरे सारे टास्क तैयार हो जाते थे । खेलने-कूदने का भी समय मिलने लगा । मैं यदा-कदा फुटबॉल, बैडमिंटन, कबड्डी, हॉकी, चेस.. आदि खेल में भी जाने लगा । पढ़ाई में भी मन लगने लगा । मैं अब क्लास में भी अधिक समझने लगा । आर्थिक तंगी के बावजूद अब मेरी सभी कार्यो में रुचि बढ़ गई । कबड्डी टीम का भी भाइस कैप्टेन हो गया । संघ की शाखाओं में भी जाने लगा । आपातकाल के बाद मैं बी.आइ.टी. सिंदरी की दोनों शाखाओं का कार्यवाह भी बन गया । ज़िंदगी में अधिक आनन्द आने लगा । कई छात्रावास बदले । ए-जोन के 7 नं0 होस्टल के बाद बी-जोन के 19, 13 और फिर 14 नं0 होस्टल में पहुँच गया । होस्टल नं0 7 में सभी कमरे 4 बेड के थे । 19, 13 और 14 में सिंगिल बेड के रूम्स थे । सात नं0 छात्रावास में तो काफी सारे मित्र थे- सुरेन्द्र, बरुनजी, द्वारकानंदजी, अबध, जीतेंद्र, जरताब, गोविंद..... इत्यादि । मगर सुरेन्द्र के साथ मैं अधिक समय बिताता था । 19 में दिनेश मिश्रा के साथ अधिक रहता था । 14 में बरुनजी और सुरेन्द्र के साथ अधिक रहा । 13 में सुरेन्द्र और बरुनजी के साथ रहा ।

दादाजी के संस्मरण (a)

कुछ वर्ष पूर्व तक मैं अपना संस्मरण मेरी प्यारी पोती कुमारी वाणी झा को भेजा करता था । वह ताँता टूट गया था । अब पुनः भेजने का मन कर रहा है । उसी क्रम में आज का यह संस्मरण है । पूर्व का भी पुनः एक जगह संकलित भेज रहा हूँ - [5/11/2021, 12:19 PM] K K Jha: दादाजी के कुछ संस्मरण :- ********************** 1. मित्रों से न झगड़ें :- ----------- ---- ------------ करमौली प्राथमिक विद्यालय में मैं दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था । उसी दौड़ान बड़े भैया के साथ धनबाद जाने का प्रोग्राम बना । बड़े भैया भारतीय रेल में ड्राइवर थे । पूर्व में स्टीम इंजिन चलाते थे, बाद में इलेक्ट्रिक इंजिन चलाने लगे । प्रारंभ में मालगाड़ी और बाद में यात्री गाड़ी चलाते थे । कभी-कभी राजधानी एक्सप्रेस भी चलाते थे । धनबाद जाकर नए माहौल में मुझे काफी प्रसन्नता हुई । शुद्ध देहाती वातावरण से सीधे आधुनिक शहरी लोगों के बीच पहुँचकर मैं प्रसन्नता से खिल उठा । कहाँ गाँव का अनियमित जीवन जहाँ न समय पर स्नान, न जलपान, न भोजन ! और कहाँ पूर्ण नियमबद्ध शहरी जीवन । सभी दैनिक कार्यों का समय निर्धारित था । यद्यपि मैं दुबला-पतला था लेकिन गाँव के स्वच्छ वातावरण के कारण मेरा शरीर बहुत बलबान था । धनबाद में अपने से अधिक उम्र के बच्चों को भी मैं खेल-खेल में पटक देता था । पढ़ाई में भी मैं काफी मेधाबी था । दूसरी कक्षा में उन दिनों मात्र दो विषय हिन्दी और गणित पढ़ाए जाते थे । मैंने दोनों विषयों की किताबों को रट लिया था । जहाँ धनबाद के मेरी कक्षा के बच्चे क ट करते हुए रुक-रुककर पढ़ते थे वहीं मैं धरधराकर ननस्टॉप पूरी किताब पढ़ जाता था । उसी तरह गणित भी प्रारम्भ से अन्त तक कुछ ही समय में बना जाता था । फलतः मैं दूसरी कक्षा में फर्स्ट आ गया । कुछ लड़के मुझसे जलने लगे । चूँकि मैं बलिष्ठ था इसलिए मुझसे लड़ते नहीं थे लेकिन अन्दर-अन्दर मुझको परेशान करने का सोचते रहते थे । एक रोज घर के बाहर एक नल पर मैं स्नान करने गया । लाल नाम का एक लड़का पहले से स्नान कर रहा था । मैंने उसे भगा दिया और स्वयं स्नान करने लगा । मेरे मुँह पर साबुन लगा हुआ था, आँखें मूँदी हुईं थीं । लाल अपने घर से पीतल का एक बड़ा सा लोटा लेकर आया । मेरी नाक पर कसकर लोटे से प्रहार कर भाग गया । मेरी नाक की जड़ में लोटे के नुकीले कोर से घाव हो गया और खून बहने लगा । अस्पताल जाकर बैंडेज कराना पड़ा । काफी दिनों के बाद घाव ठीक हुआ लेकिन बचपन का वह चिन्ह अभी भी नाक पर है । शिक्षा :- **बच्चों को सहपाठियों से मित्रतापूर्ण व्यवहार रखना चाहिए । ताकत के बल पर किसी कमजोर को नहीं दबाना चाहिए ।** [5/12/2021, 10:43 AM] K K Jha: दादाजी के संस्मरण :- ********************** 2. अपने सामान की रक्षा खुद करें :- -------------- ----------------------- यह घटना उन दिनों की है जब मैं धनबाद में रेलवे स्कूल में तीसरी कक्षा का छात्र था । नए माहौल में मुझे पढ़ने-लिखने में बहुत मन लगता था । स्कूल के शिक्षकगण मुझे बहुत मानते थे । मेरा प्रिय विषय गणित था । उन दिनों पाठ्यपुस्तक के अलावा 'चक्रवर्ती' द्वारा लिखित गणित का एक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध था । गणित में रुचि रखनेवाले मेधाबी छात्र चक्रवर्ती के पुस्तक से सवाल बनाते थे और विशेषज्ञता प्राप्त करते थे । आजकल भी लोग 'कुमौन' क्लासेज में गणित के प्रश्न हल करते हैं । जाड़े का समय था । एक दिन मैं क्वार्टर के आगे खुले स्थान में जमीन पर चादर बिछाकर धूप में चक्रवर्ती की किताब से गणित के प्रश्न हल कर रहा था । कुछ कार्यवश किताब-कॉपी को वहीं छोड़कर क्वार्टर के अन्दर गया । कुछ देर के बाद लौटा दो देखता हूँ कि मेरी क़िताब को एक गाय खा रही है । जबतक मैं दौड़कर गाय के पास पहुँचा तबतक वह पूरी किताब खा चुकी थी । मैं बहुत रोया । फिर मैं उस किताब को नहीं खरीद सका । उस घटना को याद कर आज भी मैं दुखी हो जाता हूँ । काश! मैं उस दिन उस किताब को लावारिस खुले स्थान में छोड़कर घर नहीं जाता तो गाय नहीं खा पाती । ****शिक्षा :- छात्रों को अपने सामानों की हिफाजत स्वयं करनी चाहिए ।**** [5/12/2021, 6:52 PM] K K Jha: दादाजी के संस्मरण :- ****************** 3. कभी झूठ न बोलें :- ---------------------------- -------- धनबाद के रेलवे स्कूल में मेरे नाम लिखाने से पहले उस कक्षा में एक लड़की प्रथम आती थी । उसका नाम दमयन्ती था । वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ी थी और काफी लम्बी थी । उसके पिताजी भी रेलवे में ड्राइवर थे । हमलोगों का डेरा अगल-बगल में ही था । मेरे जाने के बाद दमयन्ती सेकंड करने लगी । इसलिए सदैव मुझे कोसती रहती थी-" अगर यह नहीं आता तो मैं ही हमेशा फर्स्ट आती रहती, कहाँ से यह मेरे दुर्भाग्य से टपक पड़ा!" लेकिन मैं नहीं समझ पाता कि इसमें मेरा क्या दोष है! सब कोई प्रथम आना चाहता है और मिहनत करता है । तीसरी कक्षा में भी मैं प्रथम आया । काफी शाबाशी मिली । चौथी में मेरा नाम लिखाया गया । पूरे स्कूल में सबसे मेधाबी छात्र के रूप में मेरा नाम लिया जाने लगा । जो गणित पाँचवीं के छात्रों से नहीं बनता था वह भी मैं बना देता था । मैंने कुछ-कुछ अंग्रेजी भी सीख ली । इतिहास, भूगोल, समाज अध्ययन भी सीखने लगा । कुछ दिन के बाद मैंने देखा कि बारी-बारी से बच्चों के अभिभावक आते थे और प्रधानाचार्य उन्हें बच्चे के लिए पुस्तकें, स्कूल बैग, स्कूल ड्रेस ...आदि देते थे । मुझे आश्चर्य होता था कि प्रथम आने के बावजूद मुझे वे सब क्यों नहीं मिल रहे हैं । मेरे सब्र की सीमा जाती रही । मैंने घर आकर भैया से झूठ बोल दिया कि आपको प्रधानाचार्य ने बुलाया है । मेरे मन में यह बात आयी थी कि अभिभावक के आने पर ही वे सब चीजें मिलती हैं । दूसरे दिन बड़े भैया प्रधानाचार्य से मिलने स्कूल पहुँच गए । प्रधानाचार्य ने अनभिज्ञता प्रकट की-" मैंने तो नहीं बुलाया था" । मुझे बुलाया गया । मुझसे पूछा गया तो मैंने मन की बात प्रकट कर दी-" मैं प्रतिदिन देख रहा था कि सभी लड़कों को अच्छे-अच्छे उपहार मिल रहे हैं । मैंने सोचा कि शायद अभिभावकों के आने पर ही मिलते हैं, अतः मैंने भैया को बुला लिया ।" सभी शिक्षकगण और भैया भी हँसने लगे । प्रधानाचार्य ने मेरी पीठ को ठोककर मुझे एनुअल डे पर सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार देने का आश्वासन दिया और विदा किया । घर आकर भैया बोले कि जिसके पिताजी रेलवे में हैं उसी को वे सारे उपहार मिलेंगे । जिसके भाई हैं उसको नहीं । मुझे रेलवे के इस नियम पर बहुत गुस्सा आया । बच्चों को नियम से क्या मतलब! उसे तो किसी भी तरह उपहार मिलना चाहिए !!! ***शिक्षा :- झूठ नहीं बोलना चाहिए । ऐसा नियम नहीं होना चाहिए जिससे विद्यार्थियों के साथ भेद-भाव हो और बच्चों के दिल को ठेस पहुँचे ।**** [5/14/2021, 6:51 PM] K K Jha: दादाजी के संस्मरण ††********* 4. केवल किताबें रखने से नहीं पढ़ने से विद्या आती है :- ------------------------------------ धनबाद में चौथी कक्षा में पढ़ने के दौड़ान अप्रैल माह के प्रथम सप्ताह में मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के निमित्त करमौली आने का प्रोग्राम बन गया । पढ़ाई के बीच सत्र में ही मुझे गाँव आना पड़ा । उन दिनों गाँव में पढ़ाई में इस तरह का व्यवधान कोई मायने नहीं रखता था । उपनयन संस्कार में लगभग एक माह मैं व्यस्त रहा । फिर कपरिया माध्यमिक विद्यालय में चौथी कक्षा में नाम लिखाया । करमौली में भी प्राथमिक विद्यालय था लेकिन अमीर और चन्दूजी जैसे सीनियर मित्रों की संगति प्राप्त करने के निमित्त मैंने कपरिया में पढ़ने को प्राथमिकता दी । सीनियर लोगों की संगति से मुझे काफी लाभ हुआ, जो चीज नहीं समझता था उनलोगों से पूछ कर समझ लेता था । चूँकि मैं बीच सत्र में अप्रैल के अंत मे आया था अतः कपरिया स्कूल में चार महीने की पढ़ाई हो चुकी थी । सिलेबस भी बदल गया था । मात्र हिन्दी और गणित की पुस्तकें एक ही थी, बाँकी सब बदल गईं थीं । मैंने सहपाठियों के सहयोग से पढ़ाई शुरू की । खूब परिश्रम करने लगा । दोस्तों से किताबें माँगकर लाता और एक ही दिन में कई-कई चैप्टर कण्ठस्थ कर लेता । गर्मी की छुट्टियों में मैंने सारी पुस्तकों को पढ़ लिया । सारे गणित के प्रश्न हल कर लिए । सीनियर मित्रों का सहयोग बहुत काम आया । सुबह में तीन बजे ही उठ जाता और पढ़ने लगता । सरस्वती माता की कृपा से पढ़ाई में काफी लगन लग गई । जब आप समझने लगते हैं तो पढ़ाई में मजा आने लगता है । मजा आने लगे तो और पढ़ने से ज्ञान की काफी वृद्धि होती है । कपरिया स्कूल में चारों तरफ के दसों गांवों के काफी मेधाबी विद्यार्थियों के रहने के बावजूद लगन और परिश्रम के बल पर मैंने चौथी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया । दूसरे की किताब माँगकर पढ़ने से मुझे कुछ अधिक ही लाभ हो गया । सोचता था कि लौटाना है इसलिए जल्दी-जल्दी पढ़ लूँ । ****शिक्षा :- 1. अगर किसी से कोई किताब माँगे तो जल्दी से पढ़ लें और लोटा दें । 2. जहाँ भी जो चीज समझ में नहीं आबे तो सीनियर छात्र, शिक्षक अथवा अभिभावक से निःसंकोच पूछकर समझ लें । 3. मात्र घर में किताब रख लेने से ज्ञान नहीं होता, पढ़ने से ही ज्ञान होता है । ************************** [5/15/2021, 10:09 AM] K K Jha: दादाजी के संस्मरण :- ****************** 5. तपस्या का फल मीठा होता है :- उन दिनों गाँव के स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई छट्ठी कक्षा से होती थी । मैं धनबाद में चौथी कक्षा में ही अंग्रेजी का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त कर चुका था । छट्ठी कक्षा तक जाते-जाते अच्छी तरह पढ़ने लगा था । ट्रांसलेशन और ग्रामर भी काफी कुछ सीख चुका था । फलस्वरूप छट्ठी के लड़के जब ए, बी, सी, डी.... सीख रहे थे तब मैं धुरझार रीडिंग दे रहा था । मैं अंग्रेजी में अपने सहपाठियों के बीच गुरु की भूमिका में आ गया था । गर्मी की छुट्टियों का मैं पढ़ाई-लिखाई में भरपूर उपयोग करता था । आम के बगीचे में चादर बिछाकर बैठ जाता और गणित के प्रश्न हल करता रहता । फलतः पूरी किताबें गर्मी छुट्ठी में हल कर लेता । छुट्टी के बाद तो मेरा रिविजन चलता रहता । घर पर भी छोटे-छोटे बच्चे (महेन्द्र, नवल, युगल, प्रबल...) सुबह-शाम मेरे साथ पढ़ने बैठ जाते थे । मैं उनलोगों के ट्यूटर की भूमिका में रहता था । आप स्वयं के लिए पढ़ते समय जितना ज्ञान अर्जित करते हैं उससे सैकड़ों गुना ज्ञान किसी को पढ़ाने पर अर्जित कर लेते हैं । किसी अन्य पदार्थों के दान करने से वह घटता है लेकिन विद्या के दान करने से उसमें काफी वृद्धि होती है । बच्चों को पढ़ाने के फलस्वरूप मुझमें काफी परिपक्वता आने लगी । मैं पाँचवी कक्षा में भी प्रथम आया । ***शिक्षा :- विद्या दान करने से वृद्धि होती है ।**** [5/17/2021, 5:53 AM] K K Jha: उन्हीं दिनों कपरिया मिडिल स्कूल के परिसर में ही कपरिया उच्च विद्यालय प्रारंभ किया गया । उसके मुख्य कर्ताधर्ता मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य स्व0 यमुना प्रसाद सिंह ही थे । उच्च विद्यालय में नए-नए उच्चकोटि के शिक्षकों की बहाली हुई । जो भी शिक्षक उच्च विद्यालय में आते उन्हें मीडिल स्कूल में भी भेजा जाता । उन शिक्षकों के उच्च ज्ञान से हमलोग भी काफी लाभान्वित हुए । एक से एक अच्छे शिक्षक आते थे । कम वेतन मिलने के कारण वहाँ अधिक दिन नहीं टिक पाते थे । जैसे ही कहीं दूसरी नोकरी मिलती भाग जाते थे । राजकर्ण बाबू, अभिमन्यु सिंह, प्रताप नारायण झा, राजेन्द्र प्रसाद...उनमें से कुछ नामी शिक्षक थे । उन योग्य शिक्षकों के उच्च ज्ञान से हमलोग काफी लाभान्वित हुए । राजकर्ण बाबू हिस्ट्री, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । राजेन्द प्रसादजी का गणित पर पूरा अधिकार था । अभिमन्यु सिंहजी विज्ञान के महारथी थे । प्रताप नारायण बाबू विज्ञान और गणित के विद्वान थे । हमलोग कठिन से कठिन प्रश्न उनलोगों से पूछते और वे लोग हँसी-हँसी में हल कर देते । राजेन्द्र बाबू से मैथ सीखने के लिए तो हमलोग करमौली से शाम में भी जाते थे । खाना घर से ले जाते और रात में वहीं सो जाते । इस तरह हमलोगों के ज्ञान में काफी वृद्धि होने लगी । बल्कि उन अच्छे शिक्षकों की संगति से हमलोग विशेष ज्ञान प्राप्त करने लगे जिसका लाभ उच्चशिक्षा में काफी हुआ । हाइ स्कूल में जाने पर हमलोगों को पूर्व का ज्ञान बहुत काम आया । [5/17/2021, 8:11 PM] K K Jha: उन दिनों छात्रों की छोटी-छोटी गलतियों पर खूब पिटाई होती थी । कुछ शिक्षक तो पीटते समय जल्लाद बन जाते थे । कभी-कभी तो किसी-किसी लड़के के अभिभावक विद्यालय आकर पीटनेवाले शिक्षकों से झगड़ भी जाते थे । कभी-कभी तो वैसे शिक्षकों की भी पिटाई हो जाती थी । वर्ग में प्रथम आने के कारण सभी शिक्षक मुझे बहुत मानते थे । लेकिन कुछ भुसकॉल शिक्षक मुझसे चिढ़े भी रहते थे क्योंकि मैं बहुत प्रश्न करता था और उनकी स्थिति असहज हो जाती थी । वे मुझे पढ़ाई से इतर कार्यों में प्रताड़ित करके मन की भड़ास निकालते थे । सरस्वती पूजा का समय आया । मुझे ही पूजा का पुजारी बनाया गया । बहुत श्रध्दापूर्वक पूजनकार्य सम्पन्न हुआ । रात में सभी शिक्षक और कुछ छात्रों का भोजन स्कूल में ही बना । मैं चूँकि पुजारी बना था अतः पवित्रता के ख्याल से कुछ करता नहीं था और दूर में बैठकर सभी क्रिया-कलापों का आनन्द ले रहा था । प्रधानाचार्य चावल पक जाने पर माँड़ पसा रहे थे । मुझे बैठा देखकर एक शिक्षक घूरन झा सर मेरे पीछे से चुपचाप आए । वे भूल गए कि मैं पुजारी हूँ और मुझे पवित्रतापूर्वक रहना है । उन्हें तो प्रधानाचार्य को खुश करना था और मुझ पर अन्दर की भड़ास निकालना था । मुझे डाँटते हुए "प्रधानाचार्य खाना पका रहे हैं और तुम लाट साहब बने हुए हो!" उन्होंने कसके एक थप्पड़ जड़ दिया । मैं हड़बड़ा गया । माँड़ पसाने के लिए दौड़ा, लेकिन प्रधानाचार्य ने मुझे छूने नहीं दिया । उल्टे घूरन सर को ही उन्होंने डाँट पिलाई । मुझे समझ में नहीं आया कि मेरी क्या गलती थी क्योंकि मुझे लोगों ने पवित्रतापूर्वक रहने को कहा था और कुछ भी छूने से मना किया था । वो घटना इतने वर्षों बाद भी मुझे याद है । घूरन सर ने अनावश्यक मुझे थप्पड़ मार दिया था । शिक्षा :- कभी-कभी निर्दोष को भी दंड मिल जाता है । लेकिन दंड देनेवाले को अन्दर-अन्दर ग्लानि जरूर महसूस होती होगी । [5/18/2021, 4:00 PM] K K Jha: 8. क्रोध विवेक को खा जाता है, क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है । ------------------/-/----/----------/-- अब मैं सातवाँ में आ गया था । मिडिल स्कूल के सबसे सीनियर कक्षा का प्रथम छात्र! सभी छात्र मुझसे कुछ-कुछ पूछते रहते थे जिससे मेरे ज्ञान की वृद्धि होती रहती थी और अपने वर्ग के विषयों में अनायास ही परिपक्वता आ रही थी । अमीरजी और चंदूजी कपरिया उच्च विद्यालय में क्रमशः दसवीं और ग्यारहवीं के छात्र थे । दरबाजे पर बैठकर उन्हीं लोगों के साथ मैं भी पढ़ता रहता था । उन दिनों सातवीं की परीक्षा बिहार बोर्ड द्वारा संचालित होती थी । अतः पूरे बिहार के छात्रों के बीच कंपीटिशन होता था । सातवीं की पढ़ाई बहुत महत्वपूर्ण थी । मैं अपनी तैयारी से पूर्ण आस्वस्त था । परीक्षा से कोई भय नहीं था । ऐसा कोई प्रश्न नहीं था जिसे मैं नहीं जानता था । मेरी अंग्रेजी भी अच्छी हो गई थी । एक दिन दरबाजे पर पढ़ते समय मेरी नजर अमीरजी की दसवीं की अंग्रेजी ट्रांसलेशन की किताब पर पड़ी । मैं उसे उलटने लगा । उसमें से एक ट्रांसलेशन बनाने का प्रश्न अपनी कॉपी में नोट कर लिया । वह काफी लम्बा था । मैं उसका ट्रांसलेशन नहीं जानता था -"केवल तुम ही नहीं तुम्हारा भाई भी तुम्हारे साथ कल मेरे यहॉं आया था "। स्कूल पहुँचने पर जब प्रधानाचार्य मेरी कक्षा में पढ़ाने आए तो मैंने अपनी कॉपी उनके आगे कर ट्रांसलेशन बनाने का अनुरोध किया । कॉपी देखकर अचानक उन्हें मुझपर बहुत क्रोध आ गया । उन्होंने समझा कि मैं उनके ज्ञान का टेस्ट ले रहा हूँ । वे उस जमाने के ग्रैजुएट थे और उन्हें अंग्रेजी का बहुत अच्छा ज्ञान था । मैं महज सातवीं कक्षा का छात्र उनका क्या टेस्ट लेता! मैं तो मात्र कौतूहलवश उनसे पूछ बैठा था । क्रोध में ही उन्होंने उस ट्रांसलेशन को बोर्ड पर बनाया और सभी छात्रों पर अपने ज्ञान का अहंकार प्रकट किया-" तुम्हारा प्रधानाचार्य एक ग्रैजुएट है । इस इलाके के सभी प्रधानाचार्यों से अधिक ज्ञान रखता है....."। इसके बाद पैर पटकते हुए उसी क्रोधित मुद्रा में जोड़ से बोलते हुए क्लास से निकल गए । उनको क्रोधित देख सभी शिक्षक घबड़ाकर उनके कक्ष की ओर दौड़े । उन्होंने उनलोगों से मेरी धृष्टता के बारे में बताया । स्व0 घूरन सर क्लास में आए और मुझे मेरी गलती का एहसास कराया । मुझे बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही थी । मेरा उद्देश्य सीखने का था लेकिन प्रधानाचार्य ने उसका उल्टा अर्थ लगाया । अन्ततः मैंने प्रधानाचार्य के कक्ष में जाकर उनसे क्षमा याचना की । उनके अहंकार की तुष्टि हुई और उनका क्रोध शान्त हुआ । उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया । मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूँ कि उनसे प्रश्न पूछकर क्या वास्तव में मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी थी । ख़ैर, क्षमा माँगकर मैंने अनजाने में हुई भूल का प्रायश्चित कर लिया । उनका स्नेह बाद में भी वैसा ही बना रहा क्योंकि मैं उनके स्कूल का गौरव था और बोर्ड परीक्षा में भी मुझसे ही स्कूल का नाम ऊँचा होना था । शिक्षा :- भूल से भी गलती होने पर क्षमा माँगना सबसे बड़ा अस्त्र है । [5/19/2021, 4:00 PM] K K Jha: 9. कपरिया मिडिल स्कूल के कुछ हास्य प्रसंग :- --------- -------------- ----------- मैं दुबला-पतला सामान्य कदकाठी का होते हुए भी अंदर से बहुत ताकतवर और ऊर्जावान था । खेलकूद में भी औवल आता था । बहुत अच्छा फुटबॉल का खिलाड़ी था । दौड़ प्रतियोगिता, कबड्डी सबमें प्रथम आता था । विद्यालय में कुश्ती का आयोजन हुआ था । करमौली कपरिया स्कूल आने के बीच में भलनी गाँव पड़ता है । भलनी में रास्ते के किनारे भगतजी(फूल विक्रेता) के यहाँ एक साधु आए थे । हमलोग स्कूल जा रहे थे तो भीड़ देखकर रुक गए । साधु को देखकर हमलोगों ने प्रणाम किया । साधु ने आशीर्वाद दिया और कुछ पूछने को कहा । मैंने कुस्ती में जीतने का उपाय पूछा । साधु ने पश्चिम-दक्षिण कोना में खड़ा होकर उत्तर-पूरब मुखकर हनुमानजी का स्मरण कर कुश्ती लड़ने पर विजय निश्चित होने का वचन दिया । मुझे कुश्ती में रुचि नहीं थी, वैसे भी कुश्ती लड़ना मंदबुद्धि लोगों का काम माना जाता है । मैं वर्ग में प्रथम आने के कारण मंदबुद्धि का कार्य कुश्ती से दूर रहना चाहता था । निर्धारित समय पर कुश्ती प्रतियोगिता शुरू हुई । मैं दर्शक दीर्घा में खड़ा था । कुश्ती लड़नेवाले छात्र अलग खड़े थे । कई जोड़े छात्रों ने कुश्तियाँ लड़ीं । मेधानन्द नाम का एक लड़का बहुत ही मसखरा था । जब उसकी बारी आई तो वह उछलकर आखाड़ा में कूदा और मेरे साथ लड़ने का प्रस्ताव रखा । निर्णायक के रूप में रामस्वार्थ सर थे । उन्होंने मुझे पूछा तो मैंने मना कर दिया । लेकिन मेधानन्द बार-बार ताल ठोककर मेरा ही नाम ले रहा था । दूसरी बार सर के पूछने पर मैं तैयार हो गया । साधु के कहे अनुसार दक्षिण-पश्चिम कोने में उत्तर-पूरब मुखकर हनुमानजी का नाम लेकर मैं लड़ना शुरू किया । कुछ सेकंड के बाद ही मैंने एक ऐसा दाँव मारा कि वो चारों खाने चित हो गया । वह धड़ाम से गिरा और उसका बायाँ हाथ टूट गया । सब लड़के उसको टांगकर गाँव लाए । वह रास्ते भर मुझे कोसता रहा । मुझे साधु की बात पर विश्वास हो गया । शिक्षा :- ईश्वर का नाम लेकर समर्पित भाव से काम करने पर सफलता जरूर मिलती है । [5/20/2021, 3:35 PM] K K Jha: 10. सातवीं बोर्ड की परीक्षा :- ---------------------------------------- 1966 ई0 के दिसम्बर माह में परीक्षा का समय आया । बोर्ड द्वारा परीक्षा केन्द्र दूसरे विद्यालय में रखा जाता था ताकि परीक्षा फेयर हो सके । मेरे विद्यालय का परीक्षा केंद्र उच्च विद्यालय लोहा रखा गया था जो मेरे गाँव से करीब 10 किलोमीटर दूर था । पिताजी के मौसेरे भाई गणेश चाचाजी का घर लोहा स्कूल से सटे कपसिया गाँव में था । मेरा बक्सा लेकर पिताजी और मैं कलुआही तक पैदल और फिर बस पकड़कर कपसिया पहुँचे । गणेश चाचाजी मुजफ्फरपुर कोर्ट में नोकरी करते थे । चाची गाँव में थी । चाचाजी का मलमल गाँव का एक भगिना चंद्रकांत भी परीक्षा देने के लिए उन्हीं के यहाँ ठहरा हुआ था । चाची बहुत अच्छे स्वभाव की थी । उस समय तक उन्हें कोई संतान नहीं थी । हमलोगों का बहुत खयाल रखती थी । समय पर भोजन, जलपान कराती रहती थी । मैं खूब अच्छी तरह परीक्षा दे रहा था । मेरे स्कूल के अन्य छात्रगण चाचाजी के घर के बगल में ही कपसिया खादी भंडार में ठहरे हुए थे । परिक्षा देकर हमलोग टहलते हुए दस-पन्द्रह मिनट में डेरा पहुँच जाते थे । दूसरे दिन की परीक्षा देकर हमलोग डेरा लौट रहे थे । मेरा एक साथी बाबूपाली गाँव का खड़ानन एक बस के पीछे लटक गया । कपसिया में बस रुकी नहीं । चलती बस से वह कूद गया । वह मुँह के बल गिरा । नाक, मुँह और ललाट पर काफी चोटें आईं । उसे अस्पताल ले जाया गया । वह फिर परीक्षा नहीं दे सका । बच्चों को कभी भी इस तरह की हरकतें नहीं करनी चाहिए । कितने दुःख की बात है कि उसका एक साल बरबाद हो गया । हमलोगों ने खूब अच्छी तरह परीक्षा दी । परीक्षा सात दिन चली । पिताजी के साथ मैं आठवें दिन करमौली आ गया । शिक्षा :- बच्चों को स्कूल जाने-आने में खूब सावधानी बरतनी चाहिए, गलत हरकत से दुर्घटना घट सकती है । [5/22/2021, 8:35 AM] K K Jha: 11. कलुआही उच्च विद्यालय में नामांकन :- ---- -----------//////----------------- सातवीं बोर्ड का रिजल्ट निकाला । मुझे 600 में 459 अर्थात् कुल 76.5% अंक प्राप्त हुए । कपरिया स्कूल में मेरा सर्वोच्च अंक तो था ही अन्य बहुत सारे दूसरे स्कूलों में भी मेरे जितना अंक किसी को नहीं आया था । अब आठवीं में नाम लिखाने की बात थी । कलुआही उच्च विद्यालय का उस समय इलाके में बहुत नाम था । मेरा मन वहीं लिखाने का था । रिजल्ट के कुछ दिनों बाद पिताजी और रामचन्द्र काका के साथ विद्यालय त्यजन प्रमाण पत्र (SLC=School leaving Certificate) के लिए कपरिया मिडिल स्कूल गया । मैं बाहर ही बैठा । चाचाजी और पिताजी प्रधानाचार्य के कक्ष में गए । प्रधानाचार्य ने एसएलसी देने से मना कर दिया और कपरिया उच्च विद्यालय में ही नाम लिखाने का आग्रह किया । दोनों ने आकर मुझे सारी बातें बताईं । मैं कलुआही जाने के लिए अड़ गया । पिताजी जाकर मेरी बात बोले तो भी वो नहीं माने । वे बोले कि उन्हीं लोगों के लिए मैंने उच्च विद्यालय खोला है, अगर मेरा प्रथम छात्र ही चला जायगा तो उच्च विद्यालय कैसे चलेगा । मैं हिम्मत करके अंदर गया और कलुआही जाने की जिद्द कर दी । प्रधानाचार्य को क्रोध आ गया और उन्होंने आवेश में ही एसएलसी दे दिया । एसएलसी मिल जाने पर मेरी खुशी का ठिकाना नही रहा । मैंने दूसरे ही दिन कलुआही उच्च विद्यालय में नाम लिखा लिया । कलुआही हाइ स्कूल में चारों तरफ के पचीसों गाँवों के मेधाबी छात्र आए थे । केवल एक छात्र भोगेन्द्र को सातवीं बोर्ड में मुझसे 6 अंक अधिक 465 अंक मिला था । मुझे उन मेधाबी छात्रों और विद्वान शिक्षकों का सान्निध्य बहुत अच्छा लगा । खूब मन लगाकर पढ़ने लगा । तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कपरिया स्कूल नया था । नई-नई पढ़ाई शुरू हुई थी, मात्र चार साल पूर्व से स्कूल चल रहा था । चंदूजी प्रथम बैच के थे । अभी एक भी बैच की मैट्रिक की परीक्षा नहीं हुई थी । अच्छे शिक्षकगण भाग रहे थे । एक-दो साल के बाद दूसरे अच्छे छात्र भी भागकर कलुआही स्कूल आए, लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी । कलुआही जाकर वे लोग बहुत अच्छा नहीं कर पाए क्योकि जड़ कमजोर हो चुका था । मैंने कलुआही स्कूल में नाम लिखाकर कितना अच्छा किया यह वर्णनातीत है । अगर कपरिया स्कूल में नाम लिखाता तो अपना करियर ही बर्बाद करता । **** शिक्षा :- अपने बुरा-भला का निर्णय स्वयं करना चाहिए, दूसरे की खुशी के लिए अपना करियर दाँव पर नहीं लगाना चाहिए ।**** [5/22/2021, 10:39 AM] K K Jha: 12. कलुआही स्कूल में आठवीं कक्षा :- ---------------------------------------- नए-नए मेधावी छात्रों के सान्निध्य और विद्वान शिक्षकों के मार्गदर्शन का मुझे बहुत लाभ मिला । पढ़ाई में खूब मन लगने लगा । भोगेन्द्र को मुझसे 6 अंक अधिक था । मेरा 459/600 और उसका 465/600 प्राप्तांक था । बाँकी लड़के काफी पीछे थे । मेरे पर और भोगेन्द्र पर सभी शिक्षकों का ध्यान अधिक रहता था । बल्कि भोगेन्द्र पर कुछ अधिक । वह कलुआही मिडिल स्कूल का ही छात्र था । वह छे भाई था । उसका स्थान चौथा था । सभी भाई पढ़ने में बहुत मेधावी थे और वर्ग में प्रथम आते थे । उससे बड़े तीनों भाई कलुआही स्कूल के टॉपर रह चुके थे । भोगेन्द्र को भी तो सातवीं बोर्ड में सबसे अधिक अंक था ही । एक शिक्षक स्व0 उपेन्द्र ठाकुरजी की भतीजी से उसके बड़े भाई की शादी हुई थी । अतः उसका पलड़ा मुझसे बहुत भारी था । लेकिन इस सबसे अनजान मैं अपनी धुन में लगा हुआ पढ़ाई कर रहा था । छमाही की परीक्षा की कॉपी जाँचकर छात्रों को देखने के लिए दी जाती थी । उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य स्व0 तपस्वी झा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे । अंग्रेजी की कॉपी का एक-एक अक्षर जाँचते थे । अंग्रेजी में मात्र तीन छात्र पास हुए, बाँकी सब फेल । मुझको 56, भोगेन्द्र को 36 और कासिम को 30 अंक मिले । प्रधानाचार्य के हाथ से अभी तक किसी को 50 से अधिक अंक नहीं मिला था । मेरा काफी नाम हो गया । आठवीं की वार्षिक परीक्षा के ठीक पहले बागवानी के दौड़ान भोगेन्द्र का पाँव काफी कट गया । वह लंगड़ाते हुए ही आता और परीक्षा देता । शिक्षकों की सहानुभूति उसके साथ हो गई । परीक्षा के बाद भोगेन्द्र के बड़े भाई द्वारा स्व0 उपेन्द्र सर को कहते सुना गया कि हमारे घर का रिकार्ड नहीं टूटना चाहिए । वे उनलोगों के सम्बन्धी भी थे ही । उपेन्द्र बाबू सभी विषयों का मार्क्स जोड़ लिए । उनके पास हिन्दी और समाज अध्ययन की कॉपी थी । अन्य सभी विषयों को मिलाकर मुझे 9 अंक अधिक थे । उपेन्द्र सर ने हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में 6-6 अंक मुझसे अधिक देकर भोगेन्द्र को मुझसे तीन अंक अधिक कर दिया । इस तरह मुझे 705/1000 और भोगेन्द्र को 708/1000 आया और वह प्रथम आ गया । उपेन्द्र बाबू की इस बेईमानी का पता किसी को नहीं चला, लेकिन मैंने जब सभी विषयों के अपने और भोगेन्द्र के अंकों की तुलना की तो मुझे उनकी चालाकी समझते देर नहीं हुई । फिर भी मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि उसी स्कूल में उन्हीं शिक्षकों से पढ़ना था । मंद शिक्षक होते हुए भी स्कूल के बगल में घर होने के कारण उपेन्द्र सर का काफी होल्ड था । मैं बिना पैरवी-पैगाम का छात्र गाँव से पाँच किलोमीटर दूर के स्कूल में उनसे कैसे भिड़ सकता था! मेरी अहिंसक नीति और सभी शिक्षकों को खूब आदर देने के स्वभाव ने उपेन्द्र सर को अन्दर ही अन्दर जरूर ग्लानि महसूस कराई होगी । ****शिक्षा :- धैर्य रखने से दीर्घकालिक लाभ होता है ।**** [5/23/2021, 2:42 PM] K K Jha: 13. कलुआही स्कूल में नौवीं कक्षा :- ---------------------------------------- आठवीं के रिजल्ट से मैं थोड़ा भी हतोत्साहित नहीं हुआ । तीन अंक के अंतर का क्या महत्व और वो भी एक शिक्षक की बेईमानी से मिले 12 अंक! मैंने इस बार और जोड-सोर से पढ़ना शुरू किया । छमाही की परीक्षा में मुझे सभी विषयों में भोगेन्द्र से अच्छे अंक मिले । चूँकि कानो-कान उपेन्द्र बाबू की बेईमानी की खबर फैल चुकी थी अतः इस बार वे तटस्थ होकर नम्बर दिए थे और मुझे उनके विषयों में भी अधिक अंक मिले थे । लेकिन भोगेन्द्र के गणित की कॉपी चोरी हो गई अतः किस छात्र को उच्चतम अंक मिले यह पता नहीं चल सका । वार्षिक परीक्षा के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिया । मेरी परीक्षा बहुत अच्छी हुई । रिजल्ट से ठीक चार दिन पहले मुझे महेंद्र की जिला स्तरीय पाँचवीं परीक्षा दिलाने के लिए दरभंगा जाना पड़ा । उस यात्रा का दरभंगा का मेरा बहुत ही कटु अनुभव रहा । करमौली स्कूल का एक बहुत ही कुसंस्कारी शिक्षक हमलोगों के साथ गया था । उसका घर मधुबनी जिला के बैंगरा गाँव में था । उसके कुकृत्यों के बारे में अधिक लिखकर मैं अपनी लेखनी को अशुद्ध नहीं करना चाहता हूँ । वह अत्यन्त भुसकॉल, चरित्रहीन शिक्षक था । नित्य सिनेमा देखता, मेरे पैसों का भोजन और अन्य अपव्यय करता, जबकि उसकी वहाँ जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी । महेंद्र की परीक्षा जिला स्कूल में थी । परीक्षा कक्ष के पीछे के मैदान में मेरे सहित बहुत अभिभावक बैठे हुए थे । मैं नौवीं का छात्र कद-काठी में छोटा ही था । चुपके से परीक्षा कक्ष की खिड़की में झाँककर महेन्द्र से प्रश्न के बारे में पूछने लगा । मेरी तरह और भी लोग खिड़कियों पर लटके हुए थे । पीछे से दो मुस्टंडे भोलन्टियर ने आकर मुझे पकड़ लिया । सभी अन्य लोग भाग गए । भोलन्टियर्स मुझे एक शिक्षक के पास ले गए । उक्त शिक्षक ने मुझे पूरी ताकत से एक चाँटा मारा । मेरा माथा झनझना गया । मैं भागा और सीधा डेरा आ गया । उस दिन खूब रोया और भविष्य में ऐसा कोई भी कार्य न करने की प्रतिज्ञा की । एक सप्ताह के बाद गाँव आया । गाँव में खुशखबरी मेरी प्रतीक्षा कर रही थी । नौवीं का रिजल्ट निकल चुका था और मैंने फर्स्ट किया था । मुझे 818/1000 और भोगेन्द्र को 790/1000 अंक मिले थे । इस प्रकार मुझे भोगेन्द्र से 28 अंक अधिक प्राप्त हुए थे । ***शिक्षा :- परिश्रम और धैर्य का फल हमेशा अच्छा होता है । कभी भी हतोत्साहित नहीं होना चाहिए । असफलता के बाद और ताकत से तैयारी करनी चाहिए ।**** [5/24/2021, 7:18 PM] K K Jha: 14. कलुआही स्कूल में दसवीं कक्षा :- -------------------------------------------नौवीं कक्षा में रेकर्ड अंक 818/1000 लाने के कारण मैं स्टार बन गया था । दसवीं कक्षा का प्रथम दिन मेरे लिए सबसे अधिक आनन्द का दिन था । सभी लड़कों ने मेरा स्वागत किया । अच्छा अंक प्राप्त होने के कारण मुझे मेधा छात्रवृत्ति मिली । पढ़ाई में भी खूब मन लगने लगा । गाँव में भी काफी सम्मान मिला । गाँव के संस्कृत विद्यालय के प्रधानाचार्य श्रद्धेय गुरूजी सहित सभी अध्यापकों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की । करमौली गाँव का कलुआही उच्च विद्यालय में अभी तक कोई भी छात्र प्रथम नहीं आया था । इधर मैं आनन्दमग्न पढ़ाई में लगा हुआ था उधर सृष्टिकर्ता मेरे लिए कुछ दूसरा ही नाटक रच रहे थे । कलुआही स्कूल के कई शिक्षकों की नजर अपनी बच्चियों की शादी के लिए मुझ पर पड़ी । उम्र के हिसाब से सब कोई मुझको तौलने लगे । अंत में सबों ने मिलकर उम्र के अनुसार गणित के शिक्षक श्री महावीर झा की पुत्री के लिए मुझे उपयुक्त समझा । शायद 1969 के फरवरी के मध्य का समय रहा होगा । एक शिक्षक ने मुझे कहा कि कल हमलोग तुम्हारे घर पर आएँगे । मैं कुछ नहीं समझ पाया कि मेरे यहाँ क्यों आएँगे । कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य गुरुजी के बहनोई लगते थे । किसी छात्र द्वारा दूसरे दिन करमौली आने के कार्यक्रम के बारे में उन्होंने गुरुजी को खबर कर दिया । स्कूल से शाम में घर लौटने के क्रम में गुरुजी के चरणस्पर्श करने गया तो उन्होंने मेरी शादी के सम्बन्ध में दूसरे दिन शिक्षकों के करमौली आने की बात कही । मैं स्तब्ध रह गया । मेरे चेहरे पर उदासी छा गई । एक बकरे को बलि चढ़ाने के पूर्व की स्थिति मेरी लगने लगी । गुरुजी के चरण पकड़कर किसी भी तरह शादी रुकवाने का अनुरोध किया । गुरुजी मान गए । दूसरे दिन कलुआही उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य सहित सारे शिक्षक गुरुजी को भी साथ लेकर मेरे दरबाजे पर पहुँच गए । गाँव भर के लोग दरबाजे पर आ गए । गाँववालों के लिए शादी-ब्याह की बातचीत बहुत आनंददायक होती है । सभी लोग लड़कीवालों की तरफ हो जाते हैं और किसी भी तरह शादी तय हो जाय यही सबों की इच्छा रहती है । पिताजी संत स्वभाव के थे । एक ही साथ गुरुजी और प्रधानाचार्य सहित कलुआही स्कूल के सभी शिक्षकों को दरबाजे पर देखकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था । वे इसे अपना अहोभाग्य समझ रहे थे । नहीं बोलने का तो प्रश्न ही नहीं था । एक साथ पिताजी, भैया... सभी लोगों ने स्वीकृति दे दी । अगले माह 6 मार्च को शादी करना तय हो गया । मैं स्कूल से घर आया तो पता चला कि सभी शिक्षकगण आए हुए हैं । मुझे बुलाया गया लेकिन शर्म के मारे मैं दरबाजे पर नहीं गया । उस समय मेरी सहमति-असहमति पूछने का प्रचलन ही नहीं था । अभिभावक जो तय करते थे उसे सिरोधार्य करना था । [5/25/2021, 4:54 PM] K K Jha: 15. शादी (06.03.2021) :- --------------------------------------- दूसरे दिन जब मैं ब्रह्मचर्याश्रम गुरुजी के दर्शन करने गया तो कल्हवाली बात पर ही चर्चा प्रारम्भ हो गई । गुरुजी बोले कि शायद ईश्वर की यही इच्छा है और इसी में आपका कल्याण लिखा हुआ है । मैं तो इस शादी के खिलाफ था लेकिन वे लोग अपने पक्ष में मुझे भी आपके यहाँ लेकर चले गए । मैं बहुत शर्मीले स्वभाव का था । अपनी शादी के सम्बंध में बात करते हुए काफी शर्म महसूस हो रही थी । अरघाबा गाँव का लक्ष्मीकान्त (गोल्डेन) करमौली में अपनी नानी के यहाँ रहता था । हर्ष नारायण, गोल्डन, तिरपित, चंद्रमोहन ....आदि मौसेरे भाई थे । सभी लोग मात्र भोजन करने नानी के घर जाते थे । बाँकी सारे समय गुरुजी के सान्निध्य में संस्कृत विद्यालय पर बिताते थे । मुझे भी विद्यालय पर गुरुजी और उनलोगों के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता था । [5/25/2021, 7:52 PM] K K Jha: कभी-कभी मैं रात में भी वहाँ रुक जाता लेकिन पिताजी को यह पसन्द नहीं था । अतः बेमन से मैं घर आने को मजबूर हो जाता । गोल्डेन के साथ शादी से दो रोज पहले भागने का सोचा लेकिन समय आने पर पिताजी की इज़्ज़त का खयाल कर चुपचाप नियति के चक्र को देखता रहा । इस अवधि में स्कूल में सहपाठियों के मजाक को झेलता रहा, चुहल का आनंद भी लेता रहा । कभी-कभी शिक्षकों द्वारा भी मजाक किया जाता । कभी-कभी प्रधानाचार्य के डेरा पर तो कभी-कभी शिक्षकों के डेरा पर मुझे देखने के लिए बुलाया जाता । मैं सर झुकाए चुपचाप जाता और चेहरा दिखाकर पूछे गए प्रश्नों का हाँ नहीं में जबाव देकर लौट आता । निर्धारित तिथि 06.03.2021 की शाम को बारात के साथ डोकहर भगवती का दर्शन करते हुए शादी करने के लिए नाजिरपुर(बेलाही) पहुँच गया । दरबाजे पर पहुँचा तो मैंने देखा कि सभी शिक्षकगण भरे हुए हैं । मैं चुपचाप सर झुकाए हुए एक किनारे बैठ गया । कुछ देर के बाद बहुत सारे लड़के आकर मुझसे विषय सम्बन्धी प्रश्न करने लगे । यह मैथिल ब्राह्मणों में परिपाटी है कि सारात पक्ष द्वारा बारातियों और दूल्हे से खूब प्रश्न पूछते हैं । नहीं जवाब देने या गलत जवाब देने पर ठहाके लगते हैं और लोग खूब आनन्द लेते हैं । जब विषय सम्बन्धी बात होने लगी तो मैंने अपना मौन तोड़ा । मैं अधिकांश लड़कों को जानता था जो मेरे साथ पढ़ते थे या मुझसे जूनियर थे । उनलोगों को मैंने समुचित जवाब देकर चुप करा दिया । कुछ सीनियर लोग भी थे, उनलोगों को चुप कराना मेरे बस की बात नहीं थी । जो जवाब फुराया वो दिया, नहीं जानने पर मौन रहा । लेकिन साराती पक्ष के लोगों को मालूम हो गया कि लड़का डल नहीं है । खुशी के माहौल में शादी सम्पन्न हो गई । [5/26/2021, 5:25 PM] K K Jha: 16. कलुआही स्कूल में शादी के बाद :- ---------------------------------------- शादी के बाद मेरी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन आया । पहले जिन्दगी अव्यवस्थित चल रही थी, अब व्यवस्थित ढंग से रहना पड़ता था । ससुराल में इम्प्रेशन बनाने के लिए बहुत मितभाषी होना पड़ता है । जो अधिक बोलेगा वह झूठ भी अधिक बोलेगा । अधिक बोलनेवाले का वैल्यू भी घट जाता है । मेरे कपड़े पहनने का ढ़ंग भी बदल गया । नए-नए कपड़े भी पर्याप्त हो गए । बोलचाल, रहन-सहन सभी बदल गए । ससुरजी के छोटे भाई डॉ0 श्याम हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे । उनके सम्पर्क में आने से मेरी भी हिन्दी खूब अच्छी हो गई । ससुरजी गणित के विद्वान थे, अतः गणित की कोई भी समस्या मिनटों में हल हो जाती थी । लगभग तीन महीने तक मैं ससुराल से ही स्कूल जाता रहा । दूसरे शिक्षकों का भी कुछ अधिक ही स्नेह मिलने लगा । पहले मुझे शिक्षकों से बात करने में कुछ झिझक महसूस होती थी लेकिन अब जो भी पूछना होता बेझिझक पूछ लेता । विज्ञान के शिक्षक श्री यादवजी ने प्रयोगशाला की चाभी मुझे दे दी । मैं रविवार और अन्य छुट्टी के दिनों में प्रयोगशाला में घुसकर चुपचाप प्रयोग करता रहता । गर्मी की छुट्टी में तो पूरा महीना मैं प्रयोगशाला कक्ष में डूबा रहा । इस सबका लाभ मुझे ये मिला कि मैं अपने वर्ग के छात्रों के बीच अग्रणी हो गया । भोगेन्द्र मुझसे काफी पीछे छूट गया । दसवीं की परीक्षा में काफी अधिक मार्क्स के अंतर से मैं प्रथम आया । [5/27/2021, 7:29 PM] K K Jha: 17. कलुआही स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा :- --------------------------------------- उन दिनों उच्च विद्यालय में ग्यारहवीं तक की पढ़ाई होती थीं । कॉलेज में दो इंटरमीडिएट, तीन साल स्नातक प्रतिष्ठा और विश्वविद्यालय में दो साल स्नातकोत्तर की पढ़ाई होती थी । ग्यारहवीं को मैट्रिक भी कहा जाता था । मैट्रिक की परीक्षा का अत्यधिक महत्व था क्योंकि इसी आधार पर अच्छे-अच्छे कॉलेजों में नामांकन होता था । मैट्रिक की परीक्षा के लिए विद्यार्थीगण जी जान लगा देते थे । मैंने कलुआही में ही उच्च विद्यालय परिसर में ससुरजी द्वारा निर्मित एक कमरे में रहकर तैयारी शुरू की । भोजन की व्यवस्था शिक्षकों के लिए चल रहे मेंस में ही थी । मुसाई भनसीया बहुत अच्छा खाना बनाता था । कलुआही में रहने से काफी लाभ हुआ । वैसे मैं करमौली में भी घर का कोई काम नहीं करता था, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ व्यवधान तो हो ही जाता था । कलुआही में तो मात्र अध्ययन ही काम था । साथ में कुछ और लड़के भी थे । मजरही टोला का मदन मेरा रूममेट था । साथ के (स्व0 काशी बाबू द्वारा निर्मित) दूसरे कमरे में नारायणजी और राम चन्द्र प्रसाद रहते थे । वे लोग औसत छात्र थे । 50 फ़ीट दूर शिव नारायण क्लब के भवन में भोगेन्द्र, चंद्रमोहन, रामचन्द्र रहते थे । पढ़ाई के साथ-साथ मित्रों के साथ खेल-कूद, मधुर वार्तालाप और वाद-विवाद भी चलता रहता था । शिक्षकों का मार्गदर्शन भी मिलता रहता था । बहुत आनन्ददायक समय था । इस प्रकार तैयारी करते हुए मैट्रिक परीक्षा का समय आ गया । वाट्सन उच्च विद्यालय, मधुबनी में परीक्षा केन्द्र निर्धारित हुआ । वाट्सन स्कूल के बगल में क्यौटा गाँव के कारी झा का मकान था । वे ससुरजी के दयाद लगते थे । परीक्षा से चार दिन पहले मैं और सुधीर(यादव सर का साला) कारी झाजी के मकान में रहने लगा । मधुबनी जिला परिषद में यादव सर के सम्बन्धी डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर थे । उनके कारण हमलोग जिला परिषद के डाकबंगला में परीक्षा से एक दिन पहले आ गए । डाकबंगले का हॉल बहुत बड़ा था । हमलोगों के कारण भोगेन्द्र सहित और भी बहुत से हमारे साथी वहाँ आ गए । डाकबंगले का खानसामा हमलोगों के लिए बहुत स्वादिष्ट खाना बनाता था । परीक्षा निर्धारित तिथि को प्रारंभ हुई । उन दिनों कदाचार चरम पर था । मैंने दरभंगा में जिला स्कूल में थप्पड़ खाने के बाद कभी भी कदाचार नहीं करने की कसम खाई थी । उसी प्रतिज्ञा के निर्वहन में पूरे परीक्षा केंद्र में केवल मैं और भोगेन्द्र ने अपने को कदाचार से मुक्त रखा । किसी को विश्वास नहीं होता था कि ऐसे भी दो छात्र हैं जो कदाचार नहीं कर रहे हैं । हमदोनों को देखने के लिए भीड़ लगी रहती थी । सुशील बाबू सर का लड़का विनोद थर्ड स्टूडेंट था । हमलोगों के चलते वह भी प्रतिज्ञाबद्ध हो गया था । लेकिन उसके पिताजी ने स्वयं शिक्षक होते हुए भी उसे प्रतिज्ञा भंग करने को बाध्य कर दिया । वाह रे नैतिक शिक्षा! एक शिक्षक को छात्रों के बीच नैतिकता का आदर्श माना जाता है । लेकिन व्यवहार में कितना अन्तर हो जाता है । कथनी और करनी का यही फर्क आजकल छात्रों के बीच शिक्षकों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर चुका है जिसको पुनर्स्थापित करने में दशकों लग जाएंगे । ****शिक्षा :- 1. किसी भी परिस्थिति में प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए । 2. कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए । 3. शिक्षकों को छात्रों के बीच नैतिकता का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए । [5/28/2021, 11:27 AM] K K Jha: 18. सी.एम. कॉलेज में इंटरमीडिएट साइंस प्रथम वर्ग में नामांकन :- ------ ------------ -------- ---- उस साल मैट्रिक परीक्षा में इतना अधिक कदाचार हुआ था कि परीक्षकों के मन में यह बैठ गया था कि शत-प्रतिशत छात्रों ने कदाचार किया है । इसलिए उनलोगों ने आँख मूँदकर कॉपी जाँचा और मार्किंग किया । जब शूक्ष्म दृष्टि से कॉपी जाँची जाएगी तभी सदाचार और कदाचार के अंतर का पता चलेगा । फिर भी मुझे कलुआही स्कूल में सर्वोच्च अंक 646/900 प्राप्त हुए और राष्ट्रीय मेधा छात्रवृत्ति मिलनी प्रारम्भ हुई जो अभियांत्रिकी के अन्तिम वर्षों तक मिली । बल्कि सत्र बिलम्ब के कारण एक साल अधिक तक भी मिली । भोगेन्द्र बहुत पीछे छूट गया, बीच में कदाचार के कारण बहुत सारे भुसकॉल छात्र भी आ गए । [5/28/2021, 4:56 PM] K K Jha: कॉलेज में नाम लिखाने की बात हुई तो ससुरजी की इच्छा थी कि मैं आर.के.कॉलेज, मधुबनी में नाम लिखाऊँ । लेकिन मैं मधुबनी छोड़कर कहीं भी अन्यत्र किसी भी कॉलेज में नाम लिखाना चाहता था । ससुरजी मार्कशीट लेकर एप्लाइ करने के लिए बाहर निकले लेकिन अधिक दूर नहीं जा सके । सी.एम. कॉलेज, दरभंगा में एप्लाइ करके आ गए । हालाँकि एप्लाइ करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । 600/900 एवं इससे ऊपर के मार्क्सवालों का डायरेक्ट एडमिशन होना था । बाद में जो लिस्ट निकला उसमें 600 से कम मार्क्सवालों का ही नाम था । लिस्ट में अपना नाम नहीं देखकर मैं बहुत दुखी हुआ । नामांकन प्रभारी से पूछने पर पता चला कि आपलोगों के नामांकन का डेट बीत गया । अब 600 से कम मार्क्सवालों का ही एडमिशन होगा । ससुरजी की छोटी सी गलती के कारण मुझे कितनी कठिनाई हुई कह नहीं सकता हूँ । काफी पैरवी-पैगाम के बाद अन्ततः नाम लिखाने में कामयाब हुआ । कभी-कभी उचित समय पर कोई काम नहीं करने पर समय बीत जाने पर उसका काफी मूल्य चुकाना पड़ता है । मेरे जैसे छोटी कदकाठी के शुद्ध देहाती परिवेश से आनेवाले लड़के के लिए तो दरभंगा बहुत बड़ा शहर लगता था । मैं करमौली और कलुआही तक ही सीमित था, सीधे दरभंगा आ गया था । ससुरजी को तो थोड़ा भी मलाल नहीं हुआ होगा कि उनकी एक भूल ने मुझे कितना परेशान किया । **** शिक्षा :- पूरी जानकारी प्राप्त कर ही कोई काम करना चाहिए । उचित समय पर काम नहीं करने से भारी कीमत चुकानी पड़ती है ।*** --------- ----------------------------- [5/30/2021, 3:27 PM] K K Jha: 19. सी.एम. कॉलेज, दरभंगा का अनुभव :- -----------/--------------------------- उन दिनों बिहार विश्वविद्यालय के अंतर्गत चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय एक अंगीभूत कॉलेज था । इस कॉलेज के दो ब्लॉक थे । दरभंगा टावर के सटे दक्षिण में गोलबाजार था जिसमें साइंस ब्लॉक चलता था । बागमती नदी के किनारे क़िलाघाट में नया-नया आर्ट्स ब्लॉक बना था । नदी के पूरब आर्ट्स ब्लॉक और पश्चिम में पी.जी. छात्रावास था । दोनों किनारे पर तार के पेड़ों में रस्सी बाँधकर एक फ्लैट नाव चलाया जाता था ताकि पी.जी. होस्टल के छात्र कॉलेज आ-जा सकें । मैं राज स्कूल के बगल में एक प्राइवेट होस्टल विद्यामंदिर छात्रावास में रहता था । चंद्रमोहन के बड़े भैया स्व0 कृष्णमोहन जी उस छात्रावास के प्रीफेक्ट थे । वे पी.जी. के छात्र थे । सी.एम. कॉलेज में नामांकन के बाद डेरा नहीं रहने के कारण मैं गाँव लौट रहा था । बस स्टैंड में कृष्णमोहन जी से भेट हो गई । उन्हें जब मैंने बताया कि डेरा नहीं मिला है तो उन्होंने अपने बेड पर जाकर विश्राम करने को कहा । वे अपने गाँव कालिकापुर जा रहे थे, बोले कि लौटकर आने पर आपके रहने की व्यवस्था कर दूँगा । मैं आकर विद्यामंदिर छात्रावास में उनके कमरे में रहने लगा । वहाँ मेंस भी चलता था अतः भोजन की समस्या भी खत्म हो गई । कृष्णमोहनजी के आने पर दूसरे कमरे में एक बेड मिल गया और मैं आराम से वहीं रहकर कॉलेज जाने लगा । नामांकन में विलम्ब होने के कारण कुछ क्लास छूट गए थे । [6/1/2021, 8:50 PM] K K Jha: 20. दरभंगा के कुछ विशेष अनुभव :- ************************ लक्ष्मीकांत और अमरनाथजी हमेशा मुझसे मिलने राम मंदिर पर आते रहते थे । अमरनाथजी बड़े ही विनोदी स्वभाव के थे । उनके आने पर हमलोग घंटों हास-परिहास में डूबे रहते । रविवार को तो वे जरूर आया करते थे । अमरनाथजी को संस्कृत प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाने पर वे एल.एस.कॉलेज, मुजफ्फरपुर पी.जी. करने चले गए । जाने से पहले मुझे कबड़ाघाट मंदिर पर रहने के लिए जिद्द करने लगे । दरभंगा राज का कबड़ाघाट मंदिर बागमती नदी के किनारे नदी से सटे पूरब अवस्थित है । शहर से सुदूर लगभग डेढ़ एकड़ में चहारदीवारी से घिरा हुआ कृत्रिम जंगल के बीच बहुत ही शान्त स्थान है । लक्ष्मीकांत के पिताजी उस मन्दिर के पुजारी थे । अमरनाथजी और लक्ष्मीकांत के दुराग्रह को मैं टाल न सका । एकान्त साधना के लिए उपयुक्त स्थल लगा और भाड़ा भी नहीं लगना था । मैं डेरा-डंडा लेकर कबड़ाघाट चला गया ।अमरनाथजी मुजफ्फरपुर चले गए । लक्ष्मीकांत कुछ दिन साथ में रहा । वह जबतक साथ में रहा बहुत आनन्द आया । कुछ दिन के बाद वह घर चला गया और महीना-दो महीना पर कभी-कभार एक-आध दिन के लिए ही आता था । मैं और लक्ष्मी के पिताजी दो ही व्यक्ति वहाँ बच गए । वे लगभग 55 वर्ष के थे । मेरी उम्र लगभग 19 साल थी । उम्र के अनुसार विचारों में काफी अंतर थे । प्रारम्भ के कुछ दिन बहुत ही आनन्ददायक थे । मंदिर के गेट के सटे दक्षिण राज के लेखापाल रमाकांत बाबू रहते थे । उनका लड़का लाल और भगिना उदय यदा-कदा मन्दिर पर आता रहता था । उनलोगों के साथ पढ़ाई-लिखाई संबंधी खूब बातचीत होती रहती थी । मन्दिर परिसर में बहुत सारे फलदार वृक्ष आम, जामुन, कटहल, पपीता, अमरूद, शरीफ़ा आदि थे । नींबू के पौधे भरे हुए थे । सी.एम. कॉलेज का लैबोरेटरी ब्वॉय वासुदेव मंदिर परिसर में खूब साग-शब्जी उपजाता था । आधा वह ले जाता और आधा हमलोगों को दे देता था । कभी शब्जी खरीदने की आवश्यकता नहीं हुई । लकड़ी के चूल्हे पर खाना मैं ही बनाता था । पूजा के लिए फूल तोड़ना भी मेरा ही काम था । बागमती नदी में स्नान करने में बहुत आनन्द आता । कॉलेज काफी दूर था । अतः क्लास के बाद शाम में काफी देर से आता । फिर तुरत रात का भोजन बनाना पड़ता । शरीर चूर-चूर हो जाता । पढ़ने बैठता तो नींद आने लगती । सुबह फिर फूल तोड़ना, भोजन बनाना आदि काम करते-करते कॉलेज का समय हो जाता । लगभग 45 मिनट कॉलेज जाने में लगता । होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता । [6/3/2021, 5:20 PM] K K Jha: 21. कबड़ाघाट मन्दिर पर करीब तीन माह का समय आनन्दपूर्वक बीता । अब पण्डितजी का असली चेहरा सामने आया । उन्हे मेरे हाथ के भोजन का स्वाद अच्छा नहीं लगता । एक रोज स्वयं बनाने चले गए । मुझे अच्छा ही हुआ, भोजन बनाने के समय की बचत हुई और वह समय पढ़ाई के काम आया । मैं लकड़ी के कोयलेवाले कूकर पर छोटे-छोटे तीनो डब्बों में चावल, दाल, आलू डाल देता । कोयला सुलगा देता । इधर मैं जबतक स्नान-ध्यान कर कपड़े पहनता तबतक उधर मेरा भोजन तैयार हो जाता । आलू के चोखा में नमक, प्याज और सरसों का तेल मिला देता । नित्य भात-दाल-चोखा या खिचड़ी-चोखा मेरा भोजन होता । कुछ दिन इस तरह चला । लेकिन पण्डितजी को यह कैसे वर्दाश्त होता । उनको मेरी पढ़ाई से क्या मतलब, उन्हें तो अपने काम के लिए मात्र एक सहायक की आवश्यकता थी । अब मैं उनका कोई हेल्प नहीं कर रहा था । एकदिन वासुदेव के माध्यम से उन्होंने मुझे मेरे वहाँ रहने से उन्हें कोई लाभ नहीं होने की बात कहबा दी । मैं दूसरे ही दिन पेटी-बाकस, किताब, कपड़े, बिस्तर लेकर मिश्रटोला में दारोगा लॉज आ गया । कबड़ाघाट से निकलते ही ऐसा अनुभव हुआ मानो पिंजरे का पक्षी मुक्त गगन में उड़ान भरने लगा हो । वहाँ लगभग 35 छात्र रहते होंगे । छात्रों में आपस में खूब डिस्कसन होता । पढ़ाई की दृष्टि से यह मेरे लिए अनुकूल स्थान था । यहाँ 8 रुपए भाड़ा लगता लेकिन उससे कई गुना मूल्य की पढ़ाई हो जाती । केवल एकान्त जगह होने से नहीं होता, मन की शान्ति और प्रसन्नता का असली महत्व है । मेरे एक ग्रामीण मित्र स्व0 भवनाथजी मेरे साथ पढ़ाई करने के उद्देश्य से मधुबनी से दरभंगा आ गए । अब तो और अधिक मन लगने लगा । खाना बनाने में उनका सहयोग मिलने लगा । स्टोव पर स्वादिष्ट भोजन बनने लगा । पढ़ाई में खूब मन लगने लगा । यहीं से मैं, कमलेशजी और लीलाजी अभियांत्रिकी प्रतियोगिता परीक्षा देने पटना गए । गुलज़ारबाग़ पॉलिटेक्निक में सेंटर था । परीक्षा अच्छी हुई । दरभंगा में राम मन्दिर पर RSS का कार्यालय था । वहाँ दरभंगा के प्रचारक श्री राम सेवक शरण रहते थे । उनके कारण हमलोग भी RSS की शाखाओं में काफी सक्रिय थे । [6/3/2021, 5:45 PM] K K Jha: रामसेवकजी का पत्र लेकर हमलोग RSS के कदमकुआं स्थित मुख्यालय भवन में ठहरे थे । बहुत साफ-सुथरा भव्य दो मंजिला भवन था । हमलोग ग्राउंड फ़्लोर पर हॉल में अंटके थे । कमलेश जी का ज़िक्र पत्र में नहीं था अतः कुछ आपत्ति हुई, लेकिन फिर उन्हें भी रहने की स्वीकृति मिल गई । शायद चार-पाँच दिन रहना पड़ा । पटना जैसे विशाल शहर में घूमने का कुछ अलग ही आनंद था । उस समय फुरसत मिलते ही पैदल पूरा पटना छान मारता था । अभी लगभग 31 वर्षों से पटना में रह रहा हूँ लेकिन अधिक समय घर या ऑफिस में ही बीता है । बिना काम का कहीं नहीं गया हूँ । उस समय की बात ही कुछ और थी । एक -आध मित्र साथ रहे तो सुबह से शाम तक कदमकुआं से गुलज़ारबाग, कंकड़बाग से सचिवालय तक पैदल यात्रा करना आम बात थी । शिक्षा :- केवल एकान्त स्थान से कुछ नहीं होता, मन अगर शान्त और प्रसन्न रहे तो भीड़-भाड़वाले जगह में भी कोई अच्छी साधना/पढ़ाई कर सकता है । [6/4/2021, 10:36 AM] K K Jha: 22. दारोगा लॉज :- ---------- ---- ---------------- मिश्रटोला में नेशनल सिनेमा के बगल से पूरब मिश्रटोला मुख्यसड़क में घुसकर पहली उत्तर की गली में यह लॉज है । बैगनी नवादा के दरभंगा नगरपालिका में एक टैक्स दारोगा थे, उन्हींका यह लॉज है । द्वितीय श्रेणी की ईंटों को मिट्टी के गिलाबा पर जोड़कर बिना प्लास्टर की दीवार का निर्माण कर ऊपर में खपड़ैल छत दे दिया गया था । 10'×9' साइज़, एक छोटी सी खिड़की, एक किवाड़, जमीन मिट्टी की, दो चौकी; यही था मेरा कमरा । पूरा सीलन भरा हुआ । इतना तक कि गर्मी की छुट्टियों में एक महीने के लिए धनबाद चला गया तो चौकी पर बिछाया हुआ कम्बल सड़ गया । उस लॉज में बहुत सारे उद्दण्ड छात्र भी रहते थे । मेरे एक मेधावी मित्र विजय सिंह बॉयोलॉजी से पढ़ रहे थे । वे साम्यवाद से प्रभावित थे । मार्क्स, लेनिन, एन्जेल.. इत्यादि की किताबों के अध्ययन से उनका मेन्टल वाश हो चुका था । किसी भी विषय को साम्यवादी विचारधारा की ओर मोड़ देते और घंटों तर्क-कुतर्क करते । मेरे साथ भी कभी-कभी सनातन परम्परा वनाम साम्यवाद पर काफी डिस्कसन करते । एक दिन उन उद्दण्ड लड़कों ने तर्क-कुतर्क के बीच उन्हें पीट दिया । कुछ भी हो वे बहुत स्मार्ट, सलीकेदार और मेधावी छात्र थे । भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र में मुझसे मार्गदर्शन लेते रहते, मैथ से उन्हें मतलब नहीं था, उन्हें मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट देना था । एक बार मुझे भी उन उद्दण्ड लड़कों से पाला पड़ गया । मेरे जोड़ से बोलने पर वे लोग सहम गए, दारोगाजी आकर शान्त करा गए । लेकिन बाद में मेरे उदार व्यवहार के कारण वे लोग मेरे अच्छे मित्र बन गए । एक बार मैं, भवनाथजी और षडाननजी RSS के सात दिनों के शीतकालीन शिविर में भाग लेने भरवारा जा रहे थे । उद्दण्ड ग्रुप का सरदार अभय भी साथ ले चलने का आग्रह करने लगा । हम चारों व्यक्ति शिविर में पहुँच गए । खेलकूद, प्रवचन, सांस्कृतिक कार्यक्रम... आदि अनेकों कार्यक्रमों में हमलोगों ने जमकर भाग लिया । संयोग देखिए कि पहलवान टाइप अभय जब कबड्डी प्रतियोगिता में विपक्षी पाले में घुसकर सबको पस्त कर रहा था तो एक साथ सभी विपक्षी उसके ऊपर टूट पड़े और दिबडाभीड़ बन गए । [6/4/2021, 11:23 AM] K K Jha: फल यह हुआ कि उसके दाएँ पाँव में फ्रैक्चर हो गया । डॉक्टरों ने क्रेप बैंडेज कर दिया, वह लंगड़ाते हुए मूकदर्शक बनकर सातों दिन बिताया । मैं मन ही मन सोच रहा था कि नियति का कैसा चक्र है कि एक उद्दण्ड पहलवान भी परिस्थितिवस निरीह की तरह मूकदर्शक बन जाता है । कुछ दिन पूर्व दुर्गापूजा में करमौली में मैंने श्रवण कुमार नाटक में दशरथ का रॉल किया था । भड़वाड़ा में सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए मैंने दशरथ के किरदार का डायलॉग झटपट लिखा । स्व0 षडाननजी को प्राउन्टर के रूप में रखकर मैंने श्रवण कुमार नाटक के दशरथ के पात्र का मोनो एक्टिंग किया । सभी लोगों ने मोनो ऐक्टिंग की मुक्तकंठ से सराहना की । दारोग़ा लॉज मेरे जीवन में इसलिए भी स्मरणीय है क्योंकि यहीं रहकर मुझे इंजीनियरिंग प्रतियोगिता में सफलता मिली । *****शिक्षा :- 1. किसी खास विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति तटस्थ नहीं रह सकता है । सभी विषयों को उसी विचारधारा की कसौटी पर कसता है । 2. नियति ऐसी परिस्थिति पैदा करती है कि व्यक्ति का अहंकार एक क्षण में नष्ट हो जाता है । -------/---/// ---///---///-/--/-//--- [6/5/2021, 2:19 PM] K K Jha: 23. हसन चक का राम मंदिर :- ************************** दरभंगा टावर से कुछ दूर उत्तर जाकर पूरब-उत्तर मुड़ते हुए एक सड़क थोड़ा आगे जाकर सीधा पूरब हो जाती है जो जीपीओ होते हुए माधवेश्वर स्थान -जिला स्कूल- हजमा चौकवाली सड़क में इनकम टैक्स के बगल में मिलती है । जीपीओ से पश्चिम एक चौक है जिसे हसन चक कहा जाता है । हसन चक से थोड़ा उत्तर जाने पर होमियोपैथ के विख्यात चिकित्सक डॉ0 उमेश का घर एवं क्लिनिक है । उसी के सटे उत्तर राम मंदिर है । राम मन्दिर के निर्माता स्व0 अनिरुद्ध साहु थे । उनका चॉकलेट का थौक व्यापार था । उन्हें कोई लड़का नहीं था । मात्र एक या दो लड़कियाँ थीं । वे RSS के दरभंगा के कार्यवाह थे । बहुत ही कर्मठ व्यक्तित्व था उनका । सरल हृदय और हँसमुख स्वभाव था उनका । मुझपर उनका बहुत स्नेह रहता था । उनके साथ मैंने रोसड़ा शीत शिविर और भड़वाड़ा शीत शिविर(ITC) में भाग लिया था । 1979 की गर्मी की छुट्टियों में सिन्दरी में एक माह का संघ-शिक्षावर्ग लगा था । मैं बौद्धिक विभाग से जुड़ा था । वहाँ पर अनिरुद्धजी और राम सेवकजी से भेट हुई थी । पुनः दरभंगा में 1997 में भेट हुई । राम मन्दिर पर गर्भगृह के अलावा तीन कमरे थे । दो कमरे गर्भगृह के दोनों बगल में थे । मन्दिर का फेस पूरब की ओर था । गर्भगृह के उत्तरवाले कमरे में मैं रहता था और दक्षिण के कमरे में लीलाजी । मन्दिर के पूरब-दक्षिण कोने आर 10'×12' का एक कमरा था जिसमे संघ कार्यालय था । कमरा के आगे एक 20'×12' खुला हॉल था । परिसर में 2 नारियल का पेड़ था । उत्तर-पूरब कोने में चबूतरा युक्त चापाकल था । मंदिर से सटे दक्षिण-पश्चिम कोने में खपड़ैल छत युक्त दो छोटे-छोटे कमरे थे जिसमें लीलाजी के पिताजी खाना बनाते थे और सामान रखते थे । पीछे में उत्तर-पश्चिम कोने में मैला ढोने वाला एक पैखाना भी था जिसका उपयोग इमरजेंसी में ही हमलोग करते थे । [6/5/2021, 8:55 PM] K K Jha: राम मन्दिर पर रहने का आनन्द वर्णनातीत है । साथ में लीलाजी जैसा अनन्य मित्र, बगल में संघ कार्यालय, जीवनदानी प्रबुद्ध प्रचारकों एवं स्वयंसेवकों का सान्निध्य, अनिरुद्धजी जैसे त्यागी कार्यवाह का मार्गदर्शन, सटा हुआ राजग्राउंड.....आदि । एक व्यक्ति को और क्या चाहिए! सुबह-शाम हम और लीलाजी राजग्राउंड में घूमने जाते थे । खेलकूद करते, कूदते-फाँदते और गप्पें हाँकते । गीता भवन में पंडौल के भावनाथजी थे । उनके साथ कुछ दिनों तक पूअर होम के ग्राउंड में रविवार को डिस्कसन करते । विद्यामंदिर राम मंदिर के बगल में ही था । वहाँ हटबरिया के अरुणजी रहते थे । वे बायोलॉजी में थे । उनसे भी अच्छी मित्रता हो गई । [6/6/2021, 4:23 PM] K K Jha: 24. राम मन्दिर पर रहकर मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी । किसी भी विषय का कोर्स सिलेबस के हिसाब से पूरा नहीं हुआ था । स्वयं तैयारी करते हुए परीक्षा देनी पड़ी । उन दिनों चोरी चरम पर थी । शिक्षा में सुधार के निमित्त मा0 मुख्यमंत्री स्व0 केदार पाण्डेय ने बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में मुजफ्फरपुर के आयुक्त एन. नागमणि को नियुक्त किया । इसी तरह पूरे बिहार में कमिश्नरी के आयुक्त को ही उनके क्षेत्रान्तर्गत विश्विद्यालय का कुलपति बना दिया गया । सम्पूर्ण बिहार से स्व0 पांडेय साहब ने रातोंरात कदाचार को दूर भगा दिया । रिजल्ट बहुत खराब हुआ । कॉलेज का कॉलेज साफ हो गया । मुझे 520/900 अंक प्राप्त हुए । मैंने भौतिकी प्रतिष्ठा में नामांकन करबाया । सतीश अग्निहोत्रीजी का सान्निध्य बहुत लाभ किया । जे.पी. आन्दोलन के कारण पढ़ाई में बहुत बाधा हो रही थी । दारोगा लॉज से मैंने इंजीनियरिंग का इंट्रेंस टेस्ट दिया था । रिजल्ट पब्लिश हुआ, मेरा और लीलाजी का हो गया । बहुत सारे अच्छे लडक़ों का नहीं हुआ । उनलोगों ने भौतिकी, रसायन और गणित से प्रतिष्ठा की पढ़ाई की । जे. पी. आन्दोलन चरम पर रहने के कारण महीनों तक कॉलेज बन्द रहते थे । गर्मी की छुट्टियों में कुछ दिन कलुआही स्कूल के उसी पुराने कमरे में मैंने एकांतवास किया । चावल, दाल, शब्जी घर से ले गया लेकिन बगल के शिक्षक स्व0 बच्चा बाबू ने खाना नहीं बनाने दिया । मजबूरी में उनके घर में खाना खाना पड़ा । मेरे जिद्द करने पर उन्होंने चावल, दाल रख लिया । इंजीनियरिंग टेस्ट में हो जाने पर काउंसिलिंग के लिए पटना कॉलेजिएट बुलाया गया । मैं और लीलाजी ट्रेन से पहलेजा और फिर स्टीमर से महेन्द्रू पहुँचे । इस बार भी कदमकुआँ स्थित संघ मुख्यालय में डेरा डाला । लेकिन इस बार रहना नहीं पड़ा । 10 बजे पूर्वाह्न में हमलोग कॉलेजिएट स्कूल पहुँचे । 11:00 बजे पूर्वाह्न से काउंसिलिंग शुरू हुआ । मुझे पहले बुलाया गया । संस्थान और कोर्स के बारे में पूछा गया । मुझे तो इंजीनियरिंग का ए.बी.सी. भी नहीं मालुम था । मेरे दो भैया धनबाद में थे अतः सिन्दरी मेरा संस्थान का च्वाइस था । विषय में बिना सोचे समझे मैंने सिविल कह दिया । बाहर निकलकर लीलाजी को मैंने बता दिया । उनका कॉल आने पर अंदर जाकर लीलाजी भी सिन्दरी, सिविल बोले । उन्हें कहा गया कि सिन्दरी सिविल भर गया है । मैं अन्दर झाँक रहा था, लीलाजी ने मुझसे पूछा । मैंने इलेक्टिकल रख लेने को कहा । इस तरह लीलाजी का सिन्दरी, इलेक्ट्रिकल तय हो गया । हमदोनों बाहर निकलकर पैदल डेरा विदा हो गए । कुछ दूर आगे आने के बाद लीलाजी ने कहा कि मैं इलेक्ट्रिकल नहीं पढ़ना चाहता हूँ । मेरा मन कचोटने लगा । हमदोनों तुरत लौटे । सीधा कॉउंसलिंग कक्ष में घुस गए । जो भी महोदय कॉउंसलिंग कर रहे थे उनसे सारी बातें बताईं । उन्होंने कहा कि सोचकर ऑप्सन बोलो, अब चेन्ज नहीं होगा । लीलाजी ने मुजफ्फरपुर, मेकैनिकल रखा । इस तरह मेरे दुर्भाग्य से लीलाजी मुझसे विलग हो गए । काश! उस रोज लीलाजी को सिन्दरी सिविल मिल गया होता या मैं ही मुजफ्फरपुर मेकैनिकल रख लिया होता तो जीवन का कुछ अलग ही रंग होता । लेकिन अपने सोचने से कुछ नहीं होता । Man proposes, God disposes . **शिक्षा :- अपने सोचने से कुछ नहीं होता, ईश्वर जो चाहते हैं वही होता है ।** [6/7/2021, 4:38 PM] K K Jha: 25. बी.आइ.टी. सिन्दरी में नामांकन :- ************************** सी.एम. कॉलेज, दरभंगा से सीएलसी लेना था और इंटरमीडिएट का मूल मार्कशीट निकालना था । विद्यामंदिर में एक बौधू यादव रहते थे । वे नेतागिरी करते थे । उनका कुछ काम-धाम नहीं था । केवल इस रूम से उस रूम में जाकर गप्पें हाँकना उनका काम था । मेरे पर कॉलेज का 700/-रुपए ड्यूज था । कॉलेज कैम्पस में बौधू यादव से भेट हो गई । मैंने उनसे सीएलसी लेने की बात कही । 700/-रु0 ड्यूज का नाम सुनकर वह बोले कि मैं 300/- में दिलवा दूँगा । मैंने 300/- रुपए उनके हाथ में दिए । वे काउंटर पर जाकर काउंटर क्लर्क परमानन्द से कुछ बातचीत कर लौटे और बोले कि वह नहीं छोड़ेगा, पूरा पैसा लगा, अपने से ले लीजिएगा । वे मेरे पैसे लौटा दिए । मैं स्वयं जाकर जब ड्यूज क्लियर करने लगा तो देखता हूँ कि बौधू यादव ने 25/- चुरा लिए थे । अब मैं उसे कहाँ खोजता, उसका तो वही धंधा ही रहा होगा । ठगकर ही तो उसका गुजर चलता था । मैंने पूरे ड्यूज क्लियर कर ओरिजनल मार्कशीट और सीएलसी लिया । दूसरे दिन गाँव चला गया । गाँव में खुशी का माहौल था । केवल ससुरजी को खुशी नहीं थी । वे चाहते थे कि मैं फिजिक्स ऑनर्स कर भौतिकी से ही पीजी करूँ । [6/7/2021, 7:01 PM] K K Jha: इसका मुख्य कारण मुझे अभी समझ मे आ रहा है कि वे बहुत ही कंजूस किस्म के व्यक्ति थे । सीमित आय में 9 व्यक्ति का परिवार चला रहे थे, कंजूसी तो करना ही था । शादी के समय में मेरी पढ़ाई का भार वे जरूर गछ लिए थे लेकिन अपने वर्ड पर कायम रहना उनके बूते की बात नहीं थी । इसलिए वे चाहते थे कि किसी तरह घीच-घाचकर जेनरल लाइन से आर.के.कॉलेज, मधुबनी से पढ़ाई करें । इंजीनियरिंग का वे नाम नहीं सुनना चाहते थे । इसी कारण से मैंने फिजिक्स ऑनर्स भी रख लिया था । मैंने तो लीलाजी की जिद के कारण इंजीनियरिंग टेस्ट दिया था । वे मेरे साथ तैयारी करने के जिद पर अड़े थे । उनका निवेदन था कि आप केवल टेस्ट दीजिए, हो भी जाय तो एडमिशन मत लीजिएगा । मुझे भी उनका प्रस्ताव अच्छा लगा, तैयारी करने से तो ज्ञान की ही वृद्धि होती है । उस जमाने में बिहार इंजीनियरिंग टेस्ट में सफल होना बहुत प्रतिष्ठा की बात थी । बहुत ही टफ कंपीटिशन था । पूरे बिहार में मात्र सात-आठ सौ सीट रहे होंगे । उसमें भी बी.आइ.टी. सिन्दरी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में सिविल में नामांकन और भी टफ था । जिन एक से एक मेधावी छात्रों का नहीं हुआ था वे बहुत मायूस थे लेकिन मेरे हो जाने पर ही ससुरजी सबसे दुखी हो गए । बड़े भैया गाँव में ही थे, उन्हें मेरी पढाई से बहुत लेना-देना नहीं था । वैसे भी वे हमारे संयुक्त परिवार से अलग हो गए थे, उनके व्यक्तिगत परिवार का भोजन अलग बनता था । हरी भैया सहित बाँकी चार भाइयों का परिवार संयुक्त था । हरी भैया की भी आय सीमित थी । उग्रेश भैया और पिताजी खेती करते थे । सब भाइयों का परिवार गाँव में ही था । खेती से परिवार के लिए साल भर का अनाज नहीं चलता था । हरी भैया भी परिवार के भरण-पोषण हेतु पूरी तरह समर्पित नहीं थे । अग्रहण माह में ही जब धान सस्ता रहता था तो वे साल भर का इंतजाम करके रख सकते थे जैसा अन्य लोग किया करते थे । लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करते थे । वे मामूली कुछ पैसे देकर निश्चिंत हो जाते थे । पिताजी किसी तरह पैंच-उधार लेकर दिक्कम-सिक्कम काम चलाते रहते थे । सिन्दरी जाते समय बड़े भैया ने 30/- रुपए दिए । ससुरजी हाथ ख़ड़े कर लिए, एक भी पैसे नहीं दिए, उनकी तो इच्छा ही नहीं थी कि मैं इंजीनियरिंग में एडमिशन लूँ । फिर भी स्कॉलरशिप के कुछ पैसे बँचे थे जिसके बल पर मैं धनबाद चला गया । मैं और हरि भैया सिन्दरी विदा हुए । नामांकन में कुल 400/- रुपए लगे । कुछ मेरे पास के रुपए और कुछ हरी भैया के रुपए मिलाकर मेरा नामांकन हो गया । [6/8/2021, 6:49 PM] K K Jha: 26. बी.आइ.टी. सिन्दरी में प्रथम वर्ष :- -----------------------------/--------- एडमिशन के समय ही पुराने परिचित श्री देवेन्द्रजी से भेट हो गई । वे नरही गाँव के थे । विद्यानंद काका जो करमौली संस्कृत विद्यालय में द्वितीयाध्यापक थे भी नरही के ही थे । उन्हीं के साथ कभी-कभी देवेन्द्रजी करमौली आते थे । देवेन्द्रजी एक साल पहले प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में नाम लिखा चुके थे । उनके मिल जाने से लाभ ये हुआ कि एडमिशन झटपट हो गया । होस्टल में रहने के लिए कमरा भी तय हो गया । 7 नम्बर होस्टल में फर्स्ट फ्लोर पर चार बेड का कमरा था । मैं, जीतेन्द्र, बेनिडिक्ट मिंज और हृदय उस कमरे में थे । प्रथम मंजिल पर ही कौमन रूम था । अखबार, टेबुल टेनिस, कैरम आदि इंडोर गेम की सुविधाएँ थी । भूतल पर किचन था । मेंस कांट्रेक्टर अच्छा खाना खिलता था । कई सालों से स्वयं के हाथ का कच्चा-पक्का खाने से मुक्ति मिल गई । होस्टल का सुस्वादु भोजन और नाश्ता बहुत आनंददायक था । [6/9/2021, 6:53 PM] K K Jha: पोखरियापाटन टाइप होस्टल की संरचना थी । चारों तरफ कमरे, आगे में चारों ओर बरामदा, बीच में सजा हुआ पार्क । जाड़े के मौसम में हमलोग धूप में घास पर लुढ़के रहते थे । रविवार के दिन में भोज का आयोजन होता था । शाकाहारी लोगों के लिए शाकाहारी पकवान--खीर, पूरी, स्पेशल शब्जी, पुलाव, दालमखनी, कस्टर्ड, दही, रसमलाई, रसगुल्ले....इत्यादि । मांसाहारी लोगों के लिए शुद्ध खस्सी का मांस, मछली, मुर्गा, अंडाकडी, आमलेट...आदि के साथ -साथ दही,मिठाई आदि । माहौल बिल्कुल बदल गया था । दरभंगा में मात्र चार-पाँच मित्रों से गप्प-सप्प करते थे,छितराई हुई सारी चीजें लगती थी । रहना कहीं अन्यत्र, कालेज दूसरी जगह, भोजन तीसरी जगह, मित्र लोग चौथी जगह । यहाँ एक ही चहारदीवारी के अन्दर सारी सुविधाएँ! होस्टल के बाहर भी तीन-चार कैंटीन चलते थे । जिनको बाहर खाने का मन हो तो कैंटीन में चाय, नाश्ता, भोजन कर सकते थे । कैम्पस में ही स्टेशनरी सामानों की कई दुकानें थीं । खेलकूद के लिए कई मैदान थे । क्लब में इनडोर एवं आउटडोर सभी खेलों का इंतजाम था । इनडोर में सतरंज का मैं अच्छा खिलाड़ी था । सिन्दरी में ही टी.टी., बैडमिंटन आदि खेलना सीखा । ज़रताब सतरंज का चैंपियन था । मैं रनर था । आउटडोर में कबड्डी, फुटबॉल, वॉलीबॉल, हॉकी खेलता था । मेरा रूममेट बेनिडिक्ट मिंज हॉकी का कप्तान था, अतः उसी के साथ हॉकी खेलना सीखा । लेकिन खेलकूद को अधिक समय नहीं दे पाता था क्योंकि थककर चूर हो जाने पर नींद बहुत आती थी और पढ़ाई में बहुत बाधा होती थी । सिन्दरी का वायुमंडल बहुत प्रदूषित था । खाद के कारखाने की चिमनी का धुआँ कैम्पस में भरा रहता । खिड़की खुली रहने पर टेबुल, कुर्सी, बेड पर धूलकण भर जाते थे । करमौली, कलुआही, दरभंगा के स्वच्छ वातावरण से सीधे कोलफील्ड एरिया के खाद के कारखाने के प्रदूषित वातावरण में पहुँच गए थे । छे माह तक मैं ठीक रहा, उसके बाद सर्दी-खाँसी का भयंकर आक्रमण हुआ, यदा-कदा दम फूलने लगता था । बुखार भी लग जाती थी । धनबाद आकर रेलवे के डॉक्टर से दिखाया । दवाओं के सेवन से कुछ आराम हुआ लेकिन स्थायी निदान नहीं हुआ । कोल्ड-कफ-फीवर का बार-बार आक्रमण होता रहा । जब सिन्दरी से बाहर चला जाता तो ठीक रहता, लौटने पर फिर परेशान करता । यह परेशानी सम्पूर्ण सिन्दरी पीरियड में होती रही और कह सकते हैं कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई बुखार में ही मैंने की । जितना अच्छा कैम्पस मिला था उसको मैंने अच्छी तरह इन्ज्वाय नहीं कर पाया । बी.आइ.टी. में पढ़ाई के दौरान पैसे की भी काफी किल्लत रहती थी । स्कॉलरशिप के 150/- रुपए प्रतिमाह की राशि के चलते मेरी जान बची हुई थी । बड़े भैया 50/- रुपए देते थे । उस राशि को लेने के लिए धनबाद आना पड़ता । आने-जाने में ही 15-20 रुपये खर्च हो जाते थे । समय की भी बर्बादी होती । प्रारंभ में मैं प्रत्येक शनिवार की शाम मैं धनबाद आ जाता था, लेकिन वह मेरी गलती थी । सभी लड़के सप्ताह भर के छूटे हुए टास्क रविवार को मेकअप कर लेते, भोज भी खा लेते और मैं बेवजह धनबाद आकर भैया लोगों के चैन में दखल डालता । प्रारंभ में मैं अपने को प्रिविलेज्ड समझता कि मेरा धनबाद में ठौर-ठिकाना है जो दूसरों को नहीं है । सिन्दरी के च्वाइस का एक कारण यह भी था । [6/9/2021, 8:08 PM] K K Jha: 27. वैसे तो भगवान की जो मर्जी होती है वही होता है लेकिन ईश्वर की मर्ज़ी समझकर मनुष्य तो चुप नहीं बैठ सकता न, कुछ न कुछ गुड़िया तो गाँथेगा ही । मैं भी अभी सोचता हूँ कि मुजफ्फरपुर में नाम लिखाना स्वास्थ्य के ख्याल से और लीलाजी के साथ के ख्याल से भी अच्छा रहता । धनबाद में भैया के आवास के कारण सिन्दरी में नाम लिखाने का कोई औचित्य नहीं था । अभी पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि धनबाद आने-जाने में मैंने अपना बहुत बहुमूल्य समय बर्बाद किया । अगर धनबाद जाने-आने में समय बर्बाद नहीं करता तो उस समय का उपयोग पढ़ाई में होता । प्रथम वर्ष में मैंने बहुत अधिक समय धनबाद आने-जाने में बर्बाद किया । बाद में मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और मैंने आना-जाना बन्द किया । उसका प्रत्यक्ष फल भी मिलने लगा । गूढ़ विषयों को अधिक समझने लगा । मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि अगर पूर्ण मनोयोग से गूढ़ से भी गूढ़ विषयों का अध्ययन किया जाय तो बात समझ में नहीं आने का कोई कारण नहीं है । [6/11/2021, 6:51 PM] K K Jha: मेरा अंग्रेजी का ज्ञान अच्छा था । सिविल में तीन साउथ इंडियन शिक्षक थे- एल.एच.राव, वी. राजाराव और वी.एस.वर्मा । ये तीनों प्रकाण्ड विद्वान थे । लेकिन ये हिन्दी नहीं बोल पाते थे । इन लोगों का अंग्रेजी का उच्चारण भी अच्छा नहीं था । खासकर वी. राजाराव की अंग्रेजी तो विलकुल ही समझ से पड़े थी । जब मेरे जैसे अच्छी अंग्रेजी जाननेवाले का यह हाल था तो कमजोर अंग्रेजीवाले का तो भगवान मालिक! मेरा अपना मानना है कि शिक्षकों को जैसे भी हो हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए, विशेषकर हिन्दी बेल्ट में । बाद में स्वयं पढ़कर और साथियों से डिस्कसन कर बहुत बातें समझ में आने लगीं । कुछ बातें जो मुझे अभी समझ में आ रहीं हैं कि मुझे शिक्षकों से अधिक मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए था । इंजीनियरिंग में शिक्षकों के पास सीखने के लिए जाने पर उन्हें खुशी होती हैं । कहीं भी सच्ची जिज्ञासा से जाने पर विरले कोई अच्छे शिक्षक होंगे जो मदद न करें । [6/11/2021, 7:08 PM] K K Jha: छात्रों को गुनने की आदत डालनी चाहिए । मैंने व्यक्तिगत अनुभव किया है कि विषयों की अच्छी जानकारी रहते हुए भी ठीक ढ़ंग से लिख नहीं सकने के चलते छात्र कम मार्क्स लाते हैं । गुनने से लाभ यह होता है कि परीक्षा में सोचना नहीं पड़ता है । कैलकुलेशन मिस्टेक के चलते उत्तर सही नहीं आने पर शून्य मार्क्स मिलते हुए मैंने देखा है । वी.राजाराव ऐसे ही शिक्षक थे, चाहे तो पूरा मार्क्स या शून्य । बीच के मार्क्स की उनके यहाँ गुंजाइश नहीं थी । थ्योरी ऑफ स्ट्रक्चर और स्ट्रेंग्थ ऑफ मटेरियल में मेरा निजी अनुभव है । सियाराम सिंह मुझे बहुत मानते थे । एसटीएम में मैं सब सवाल जानता था लेकिन चार में दो का उत्तर गलत हो गया, सीधा 50% मार्क्स कट गया । इसका एकमात्र कारण था कि मैंने गुना नहीं था, मुझे आन्सर को स्मरण रखना चाहिए था । प्रोसेस बिलकुल सही रहते हुए भी मैंने अनेकों बार उत्तर गलत लिखकर फल भुगता है ।