काल गहने केस के
अछि, सोचि धर्मक करथु चिन्तन...
अर्थ-ज्ञानक उपार्जन बेर प्राज्ञ जल्दी नहि देखाबथि ,
मनन-चिन्तन नीक स' हो, चित्त थिर हो ख्याल राखथि.
जते जल्दी भ’ सकय
अर्जक फटाफट ध्यान राखथि...
रटू अक्षर सूत्र कोषो ज्ञान लेल, नहि धडफडी,
अर्थ सेहो जुटि सकत
नहि जं देखायब हड़बड़ी.
बजाहटि जं आबि जायत
रहत बांकी धर्म अर्जन,
छोडि सबकिछु शीघ्रता
करु हे मनुज परमार्थ चिंतन...
नित्य सूतय काल सोचू, आइ की-की धर्म केलहुं.
कते दीनक कैल सेवा, दु:ख कते दुखियाक हरलहुं...श्रिष्टि के सब जीव शिव के रूप बुझि सेवा करू.
छी हम्ही सव जीव मे नहि आन क्यो भावें रहू....
धरणि धारथि जीव के तन कर्ज जिनगी भरि रहत,
जान देलो स' ने कहियो मात्रिभूमिक ऋण सधत II
No comments:
Post a Comment