Thursday, December 24, 2015

साधु


     महद् वृक्षक सेवने फल छांह दूहूँ नर लभै अछि.
     ज' कदाचित फल ने भेटल, रोकि के छाँही सकै अछि...
   मात्र छाहक लेल ज’ क्यो वृक्ष के सेवन करै अछि.
ज’ कही नहि पात तरु मे त' निराशा भ' सकै अछि...
पत्र फल जै गाछ मे नै, ठुट्ठ  की तरुवर कहायत.
जल रहित जे वृहद् माटिक खाधि की सरवर कहायत...
छांह संगहि फल जरूरी महत्ता के लेल अछि.
मुदा नमता त्याग के विन श्रेष्ठता ओ फ़ेल अछि...
की कतहु तरु खाइछ फल वा सरित पीबथि नीर के.
साधुगण परमार्थ कारण धरथि अपन शरीर के...
स्वार्थ मे आन्हर मनुज कहिया बुझत निज फर्ज के.
सधायत पावक पवन जल गगन भूमिक कर्ज के...
करू रक्षण पञ्च तत्वक विश्व हित के ध्यान धरिऔ.
माय मम पर्यावरण थिक प्रदूषित कखनो ने करिऔ...
बन्धु! जं एखनो ने चेतब श्रृष्टि के नै बचा पेबै.

स्वयं कुरहडि मारि पदपर दोष ककरा अहाँ देबै...
                                ............कमल जी .                               

1 comment:

  1. बेहद खूबसूरत पोस्ट किया है आपने मुझे बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर..धन्यवाद!!-
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