Saturday, October 8, 2011

अवाञ्छित पाहुन (१)








१९९२ के अगस्त माँस जिनगी भरि याद रहत। पहिलुक बेर काशी विदा भेलहु। संग में कार्यालयक मित्र तरुण  रहथि। बच्चे स' काशीक नाम सुनैत छलियैक। मिथिलाक अधिसंख्य  विद्वान् बनारस में अध्ययन-अध्यापन लेल जाइत छलाह आ ओहिठाम धाख जमौने छलाह। शंकर जीक त्रिशूल पर अवस्थित काशीक  कल्पना में भरि रस्ता डूबल रहलहुँ। उत्तर-भारतक सांस्कृतिक राजधानीक यात्रा पर जायब कोनो तेसर लोकक जात्रा जेकाँ बुझा रहल छल। तरुण  पहिलहुं कतेको बेर ओतय भ' आयल छल ताहि कारणे  ओकरा लेल ई यात्रा सामान्य छलैक। हमरा त' बुझू जे मोन होइत छल जे पाँखि लागि जाय आ उडिक'' चलि जाइ। संझुका बेर में हम सब पहुँचलहुं। ठहरवाक मादे निश्चिन्त छलहुँ। हमर त' मोन होइत छल जे एखने पूरा बनारस घूमि आबी, मुदा तरुण  स्थिर छल आ भोरुक घुमवा पर मतैक्य भेल। तरुणक मौसी-मौसाक स्नेह देखि अप्पन मौसा-मौसी याद आबि गेली।
हमर माय त' जखन हम मात्र चारि वरखक रही तखने चलि बसली, मुदा दुनू मौसी के देखने छियन्हि। कहावत छैक 'मरय माय, जीबय मौसी'। अर्थात मायक विकल्प मात्र मौसी भ' सकैत छथि। अहि स्वार्थी आ वैयक्तिक परिवारक युग में संबंधी आ ओकर मित्र दूनू के स्वागत ह्रदय स' मात्र माय, मौसी आ बहीन टा क' सकैत छथि। भोर होइते स्नान क' क' काशी-विश्वनाथक दर्शन लेल विदा भेलहुँ। ओहिठामक पंडा सबहक छीना-झपटी सब दिन याद रहत। हमारा दूनू गोटेके अलग-अलग क' देल गेल। पंडा सबहक चलाकी देखू जे अलग-अलग लूटब आसान बूझि ई प्रपंच रचलक। तरुण हमारा स' उम्र में कम छथि आ बड भावुक प्रवृत्तिक। जखने हुनका माय-बाप, भाय -बहीनक सप्पत देलकनि, हुनका संग में जते रुपैया छलनि सबटा द' देलखिन। हम बच्चे स' डोकहर -कपिलेश्वर में पंडा सबहक चालि स' परिचित छलहुं, तयं हमारा पर हुनकर मायाजालक कोनो असरि नहीं पड़लनि। -------------------क्रमशः।

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