धाह कतबा सहथि रवि
के कहि सकत ?
स्वयं जरिक' प्रकाशित
जग के करत?
भ' सकय उपकार नहि
बिनु कष्ट सहने,
दीप तम भगबय
जखन अपने जरत ।।
प्रशव-पीड़ा माय केर
के बुझि सकत ?
गलाक' निज देह
सर्जन के करत?
भूखके पीड़ाक की
अनुभव हो तकरा?
स्वर्ण चम्मच मुखमे जे
जनमल रहत ।।
मरु-तृषित मृग देखितहि-
जल मुदित कतबा?
के विरहिणी प्रियमिलन सुख
नापि सकता?
प्रथम बरखा-बुंद टा
चाहैछ चातक,
के चकोरी-चन्द्रके उर
थाहि सकता??
जे ने चिखलक, स्वाद-
मिसरिक की कहत?
स्वादियो वरनब मिठासक
के सकत ?
आत्मस्थित सुखक हो
आनंद अनुपम,
हृदय सुस्थित भेनहि अनुभव
भ' सकत!!!
***********************??*****
*************************
No comments:
Post a Comment