Friday, July 25, 2014

अर्थ वनाम भाव

एक व्यक्ति स्तोत्र का पाठ करता जाता है लेकिन अर्थ नहीं समझता है। दूसरा अर्थ समझ-समझ कर पाठ करता है। इस कथन पर एक कहानी याद आ रही है। पुरोहित गीता पाठ कर रहे हैं  और क्षेत्रीय भाषा में अर्थ भी समझा रहे हैं । एक बूढ़ी महिला न तो मूल समझ रही है न' अर्थ ,चूंकि वह किसी अन्य क्षेत्र की है तथा संस्कृत भी नहीं जानती है। लेकिन पाठ श्रवण करते हुए उसके दोनों नेत्रों से अश्रुधार बह रहे हैं।अन्य श्रोताओं में वैसी प्रतिक्रिया नहीं परिलक्षित होती है। पाठ समाप्ति के पश्चात्  पण्डितजी उक्त बूढ़ी  महिला की ओर मुखातिव होते हैं- "माताजी आप क्या अर्थ समझ रही थी? आपके सदृश श्रोता बहुत काम मिलते हैं।" वृद्धा- "मै तो अर्थ विल्कुल नहीं समझ रही थी । मैं तो केवल देख रही थी कि कृष्ण सारथी हैं और अर्जुन रथ पर बैठे हैं। दोनों को देख कर मेरे नेत्रों से अश्रु बह रहे थे।"
                                      अब प्रश्न उठता है कि अर्थ की प्रधानता है या भाव की। साधारण व्यक्ति के लिए भाव का प्राधान्य है। मध्यम कोटि का व्यक्ति अर्थ समझ लेता है लेकिन उसी में उलझ कर रह जाता है। भाव पैदा नहीं कर पाता है। ज्ञानी को अर्थ एवं भाव दोनों प्राप्त होते हैं।
प्रथम भगवान को प्रिय है। अंतिम (ज्ञानी ) भगवान का स्वरुप ही है ।  बीच का कोई महत्व नहीं है।  कभी-कभी संदेह पैदा होने  पर नास्तिकता में वृद्धि हो जाती है। "संशयात्मा विनश्यति। "            

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