Thursday, July 24, 2014

"तस्य स्वर्ग इहैव ही"।

'पुत्राः यस्य वशीभूताः भार्या छन्दानुगामिनी ; विभवे यस्य  संतुष्टिः तस्य स्वर्ग इहैव ही' . स्वर्ग की कल्पना की गयी है -ऐसा स्थान जहाँ दुःख नाम के पदार्थ का स्तित्व नहीं हो, सुख भोग हेतु सभी वस्त्तु उपलभ्ध हो।
                    कवि ने तीन तथ्यों की चर्चा की है। तीनो दुर्लभ हैं। लाखों-करोड़ों लोगों में कोई एक भाग्यशाली होगा जिसे एक भी प्राप्त हो।  तीनो तो किसी-किसी विरले मनुष्य को ही प्राप्त होते हैं ।
    श्रवण कुमार दुनिया में कितने हैं ? इतर से वश में होने की कल्पना व्यर्थ है। सीता, सावित्री,अनसुइया कितनी  हैं ? फिर अन्यों से अनुगामिनी होने के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। प्रारब्ध से जो वैभव प्राप्त है उसी में सन्तुष्टि कितनो को है ? अयाची मिश्रा कितने  हैं ? साक्षात् शंकर को उनका पुत्र होना पड़ा। माँ भी कैसी कि घोर अभाव में रहते हुए भी प्रसूती कराने वाली धाय को प्रशव के समय गछा हुआ "पुत्र की पहली कमाई तुझे दूंगी" को स्मरण रखती है। राज दरवार से पुरस्कार में प्राप्त सोना-अशर्फी सभी आया को दे देती है। आया उनकी गरीबी को जानती है और नहीं लेना चाहती है। लेकिन उनकी जिद्द के आगे उसे लेना पड़ता है । कान को सहसा विश्वास नहीं होता है। अयाची की संतानों को याद रखना चाहिए।    

No comments:

Post a Comment