Kamalji

Tuesday, February 18, 2025
दादाजी के संस्मरण (h) :-
गया :- भारत के बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर और गया जिले का मुख्यालय है । यहाँ के लोग मगही बोलते हैं । यह अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थलों में से एक है । यहाँ विदेशी पर्यटक लाखों की संख्या में आते हैं । इस नगर का हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मों से गहरा ऐतिहासिक सम्बंध रहा है । गया का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है । गया तीन ओर से छोटी व पथरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, शृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि है । नगर के पूरब में फल्गू नदी बहती है । वैदिक काल के कीकट प्रदेश के धर्मारण्य क्षेत्र में स्थापित नगरी है गया । वाराणसी की तरह धार्मिक नगरी के रूप मे गया की प्रसिद्धि है । पितृपक्ष मे पितरों को पिंडदान के लिए लाखों श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं । यहाँ का विष्णुपद मंदिर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है । पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पाँव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है । हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है । मुक्तिधाम के रूप मे प्रसिद्ध गया तीर्थ को गया जी कहा जाता है । कहा जाता है कि भगवान विष्णु का परम भक्त गयासुर नामक दैत्य भगवान को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया कि मेरे यज्ञ करते समय मेरे दर्शन करनेवालों के सारे दोष क्षमा कर दिए जायँ । अनंत राक्षस लोग जिंदगी भर कुकर्म कर मृत्यु के समय उसके दर्शन कर मुक्त होने लगे । अतः भगवान विष्णु ने उसे धरती के भीतर यज्ञ करने को कहा और उसे धरती के भीतर अपने पैरों से भेज दिया । ऐसा करते समय भगवान के पैर के चिन्ह यहाँ पर पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते हैं । गया मौर्य काल में एक महत्वपूर्ण नगर था । खुदाई के समय सम्राट अशोक से संबंधित आदेश पत्र पाया गया है । 1787 में होल्कर वंश की (बुंदेलखंड) साम्राज्ञी महारानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था । मेगास्थनीज की इंडिका, फ़ाह्यान तथा व्हेनसांग के यात्रा वर्णन में गया को समृद्ध धर्म क्षेत्र के रूप में वर्णन किया गया है । ज्ञान की खोज मे करीब 500 ई0 पूर्व गोतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या करने बैठे । यहीं भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह स्थान बोधगया कहलाने लगा ।
बोधगया :- बिहार में गया से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया एक प्रमुख धार्मिक स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध को 2500 वर्ष पूर्व बोधि वृक्ष के नीचे बोध की प्राप्ति हुई थी, इसीलिए उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा । यह बौद्ध धर्म का पवित्रतम स्थल है । यहाँ के महाबोधि मंदिर का धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय पहचान है । बोधगया, पूर्व मे मगध राज्य की राजधानी भी रह चुका है । यहाँ प्रतिवर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्वारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है । यह स्थान राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है । वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया ।
करीब 500 ई 0 पूर्व गौतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या करने बैठे । तीन दिन और तीन रात की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद वे बुद्ध के नाम से जाने गए । उन्होंने वहाँ 7 हफ्ते अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जाकर धर्म का प्रचार शुरू किया । बुद्ध के अनुयायियों ने बैसाख पूर्णिमा के दिन उस स्थान पर जाना शुरू किया जिस दिन बुद्ध ने जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त की थी । धीरे-धीरे यह स्थान बोधगया के नाम से जाना गया और यह दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया ।
528 ई 0 पूर्व कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया । वे ज्ञान प्राप्ति हेतु निरंजना नदी के तट पर भासे एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए । इसी गाँव मे एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे । एक दिन वे ध्यान में लीन थे तो गाँव की एक लड़की सुजाता एक कटोएर खीर तथा शहद लेकर आई । खीर, शहद खाने के बाद उन्हें और अच्छा ध्यान लगा । कुछ दिनों बाद अज्ञान का बादल छँट गया, उन्हे ज्ञान प्राप्त हो गया । अब वे बुद्ध थे। महाबोधि मंदिर में स्थापित मूर्ति का संबंध स्वयं भगवान बुद्ध से कहा जाता है । मंदिर निर्माण जब पूर्ण होने को था तो लोगों ने एक शिल्पकार को खोजना शुरू किया जो अच्छी मूर्ति बना सके । एक दिन एक शिल्पकार आया और बोला कि वह छह माह में मूर्ति निर्माण कर देगा लीकीन शर्त है कि समय के पहले कोई मंदिर का दरबाजा न खोले । व्यग्र ग्रामवासियों ने समय से चार दिन पहले ही मंदिर का दरबाजा खोल दिया । मंदिर के अंदर एक भव्य मूर्ति थी लेकिन छाती वाला भाग पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था । कुछ दिन बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर में रहने लगा । बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही इस मूर्ति का निर्माण किया था । बुद्ध की यह मूर्ति बोद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्ति है । नालंदा और विक्रमशिला के मंदिरों में इसी मूर्ति की प्रतिकृति स्थापित है । बोधगया को बुद्ध के समय उरुवेला के नाम से और फल्गू नदी निरंजना के नाम से जाना जाता था ।
हमलोग गाइडजी के साथ बोधगया के सभी स्थानों का भ्रमण किया । तिब्बतियन टेंपूल, थाइ टेंपूल, जैपनीज टेंपुल, भूटानी मंदिर/मठ, वियतनामी मंदिर .. आदि स्थापत्य कला के अनोखे नमूने हैं । सभी प्रमुख स्थानों को देखकर हमलोग ट्रेन से धनबाद आ गए, फिर मिनी बस से सिंदरी । इस ट्रिप को पर्यटन की दृष्टि से बहुत उत्तम मानता हूँ । अभी तक गया और बोधगया कई बार भ्रमण कर चुका हूँ लेकिन फिर सासाराम और इंद्रपुरी जाने का मौका नहीं मिला ।
Friday, February 14, 2025
दादाजी के संस्मरण (g) :-
फाइनल ईयर में असैनिक अभियंत्रण के छात्रों का एक जिऑलोजिकल टूर जिओलॉजी विभाग के तरफ से रखा गया । प्रोफेसर श्रीवास्तव जिओलॉजी के हेड थे, वे भी हमलोगों के साथ थे । हमलोग धनबाद से ट्रेन से सासाराम के डेहरीऑनसोन गए । वहाँ से इंद्रपुरी बराज देखने गए ।
इंद्रपुरी बराज :- सोन नदी पर निर्मित यह बराज सिंचाई की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । इसकी लंबाई लगभग 1407 मीटर(4616') और फाटकों की संख्या 60 है जिसमे से केवल 9 से ही जल निकासन होते हैं । यह दुनियाँ का चौथा सबसे लंबा बैराज है (दुनियाँ का सबसे लंबा बैराज फरक्का बैराज हैजिसकी लंबाई 2253 मीटर है) । यह 1960 मे शुरू हुआ और 1968 में चालू किया गया । अंग्रेजों के समय में 1873-74 में देश की सबसे पुरानी सिंचाई प्रणालियों में से एक देहरी में सोन के पर एक एनीकट के साथ विकसित किया गया था । सोन से नदी के दोनों किनारों पर नहर प्रणाली से पानी और बड़े क्षेत्रों की सिंचाई की जाती है । एनीकट से 8 कि.मी. ऊपर इंद्रपुरी बैराज निर्मित है । इसके दो मुख्य कैनाल हैं- पूर्वी नहर 144 कि0मी0 और पश्चिमी 212 कि०मी० । इसकी 149 शाखा नहरें हैं और 1235 बितरितियाँ हैं । मुख्य उद्देश्य खेतों की सिंचाई और जलापूर्ति तथा बाढ़ नियंत्रण ही है लेकिन विजली उत्पादन से भी लोग लाभान्वित हो रहे हैं । इसका निर्माण हिंदुस्तान कन्सट्रक्सन कंपनी ने किया था, इसी कंपनी ने फरक्का बराज भी बनाया है । इंद्रपुरी बांध पर्यटकों को भी खूब आकर्षित करता है । हमलोगों को गेस्ट हाउस में अंटकाया गया था और शानदार भोजन का इंतजाम था । हमलोगों ने उसी जंगल मे मंगल मनाते हुए रात्रि-विश्राम किया । पुनः शुबह मे बराज, जलाशय और प्रकृति का आनंद लेते हुए हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन पहुँचे । वहाँ से सासाराम स्टेशन उतरकर शेरशाह का मकबरा देखने गए ।
शेरशाह का मकबरा :- बिहार के सासाराम स्थित शेरशाह सूरी के मकबरा निर्माण 16 अगस्त 1545 को पूरा हुआ । यह बिहार के पठान सम्राट शेरशाह सूरी की याद मे बनाया गया था । शेरशाह सूरी का जन्म 1486 में हुआ था । उसके जन्म का नाम फरीद खान था । भारत मे जन्मा इस पठान ने मुगल सम्राट हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य की स्थापना की । बाबर की सेना में एक साधारण सैनिक रहते हुए अपनी बहादुरी के बाल पर वह सेनापति बन गया और फिर बिहार का राज्यपाल बन गया । 1537 मे हुमायूँ जब सुदूर अभिया पर था तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश की स्थापना की । 1539 मे चौसा की लड़ाई मे हुमायूँ का सामान्य करना पड़ा और वह जीत गया । 1540 में पुनः हुमायूँ को हराकर उसे भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। शेरखान की उपाधि पाकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य हो गया । 1545 में कालिंजर की घेराबंदी के दौरान राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय द्वारा बेरहमी से मार डाला गया । शेरशाह के अनेक प्रशंसनीय जनकल्याण के कार्य हैं। रुपया उसी का चलाया हुआ है । विश्व प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड उसी का बनाया हुआ है । यह काबुल से लेकर चटगांव तक उसके द्वारा निर्मित है । सड़क की दोनों तरफ पेड़, मील के पत्थर, धर्मशाला, सौचालय, जलापूर्ति हेतु कुंए .. आदि कल्याणकारी कार्य उन्होंने कराए । अपने जीवनकाल में ही उसने अपने मकबरे का निर्माण शुरू करबाया । 13 मई 1545 को उसकी मृत्यु हुई और 16 अगस्त 1545 को मकबरे का निर्माण पूरा हो गया । अपने गृहनगर सासाराम मे उसका मकबरा कृत्रिम झील से घिरा हुआ है । यह हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना है । शेरशाह के मकबरा को भारत का दूसरा ताजमहल भी कहा जाता है । लगभग 52 एकड़ में फैले सरोवर के बीच में मकबरा करीब 122' ऊंचा है ।
यह मकबरा विश्व के ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है । इसके वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खान थे । इसका निर्माण रेड सैंड स्टोन से हुआ है । मकबरा वर्गाकार पत्थर के चबूतरे पर बना है । प्रत्येक कोने में गुंबददार खोखे हैं, छतरीस, इसके आगे पत्थर के किनारे और चबूतरे के चारों ओर सीढ़ीदार मूरिंग्स हैं, जो एक विस्तृत पत्थर के पुल के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ है । मुख्य मकबरा अष्टकोणीय है जिसके शीर्ष पर एक गुंबद है जो 22 मी0 ऊँचा है जिसके चारों ओर से सजावटी गुंबददार खोखे हैं जो कभी रंगीन चमकता हुआ टाइल के काम मे शामिल थे । मकबरे के चारों ओर की झील को सूर राजवंश द्वारा सुल्तान वास्तुकला के अफ़गान चरण में विकास के रूप मे देखा जाता है । मकबरा शेरशाह के साथ-साथ उसके बेटे इस्लाम शाह के शासनकाल के दौरान शेरशाह की मृत्यु के तीन माह बाद (16.08.1545) बनाया गया था ।
शेरशाह सूरी के पिता का नाम हसन शाह सूरी था । उसका भी मकबरा कुछ ही दूर पर है जिसे 'सूखा रौजा' कहा जाता है । हमलोगों ने पूरा कैंपस का भ्रमण किया । मैंने किसी से अकेले में पूछा था कि दूर में दिखाई देनेवाला मकबरा किसका है तो उसने कहा था कि वह शेरशाह के पिता का मकबरा है । जब हमलोग मकबरा पर ऊपरी मंजिल पर टहल रहे थे तो यही प्रश्न हमारे प्राध्यापक महोदय ने पूछ दिया कि बगल का मकबरा किसका है । मैंने कहा कि शेरशाह के पिता का है । उन्हें लगा कि यह मेरा मजाक उड़ा रहा है । वह मेरी ओर कुछ क्रोधित मुद्रा में देखते हुए आगे बढ़ गए । जब हमलोग टहलकर नीचे उतर रहे थे तो उन्होंने दूर जाकर चुपचाप किसी से वही प्रश्न किया । पर्यटक ने मेरा ही उत्तर दिया । अब उनका क्रोध शान्त हो गया था और वे तेजी से मेरे पास आकर मेरी पीठ थपथपाये- "मिस्टर झा, तुम ठीक बोले थे, वह शेरशाह के अब्बू का ही मकबरा है" । मुझे हँसी आ गई । हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन आकर धनबाद की गाड़ी में चढ़ गए । हमारा एक साथी था जरताब जाफ़र कुरेसी । वह मुजफ्फरपुर के एक प्रख्यात चिकित्सक का लड़का था । वह हमलोगोंके साथ बिहार सरकार में ज्वाइन किया था लेकिन कुछ वर्षों के बाद अमेरिका चला गया, आजकल लॉस-एंजिलिस में एक प्रमुख उद्योगपति है । वह भी उस टूर मे हमलोगों के साथ था । उसका बड़ा भाई गया मेडिकल कॉलेज में पढ़ता था और प्राइवेट लॉज मे रहता था । उसने गया मे घूमने का प्रोग्राम बनाया तो मेरा भी गया घूमने का मन हुआ । मैं, बरुनजी, सुरेन्द्र, ललनजी, जरताब, कृष्ण कुमार .. आदि लगभग आठ-नौ लड़के गया मे उतर गए । शाम में जरताब के भाई के लॉज पहुँचे । उसके भाई ने अपने मित्रों को बोलकर कई कमरों में हमलोगों के ठहरने का इंतजाम कर दिया । रात्रि विश्राम के बाद सुबह 7 बजे हमलोग बोधगया गए । बोधगया में ललनजी के बहनोई पर्यटन विभाग मे गाइड थे । वही हमलोगों को सभी पर्यटन स्थलों को घुमाने लगे । फ्री के गाइड का काम करने लगे । अब जरा मैं गया और बोधगया के बारे मे कुछ जानकारी देना उचित समझता हूँ ।
Thursday, February 13, 2025
दादाजी के संस्मरण (f) :-
हमलोग जब फाइनल ईयर में थे तो अनगिनत स्मरणीय इवेंट हुए जिनका उल्लेख करना समुचित होगा । उस समय फाइनल ईयर के छात्र ऑल इंडिया टूर पर जाते थे । लेकिन हमलोग नहीं जा सके उसका कारण एक घटना था । सेशन लेट रहने के कारण हमारे सेनीयर बैच के छात्र भी फाइनल ईयर मे ही थे । वे लोग ऑल इंडिया टूर पर गए । रेलवे से कॉलेज प्रशासन द्वारा एक बोगी रिजर्व कराया गया था । टूर के लिए जिन-जिन जगहों को निर्धारित किया गया था, वहाँ के लिए चलनेवाली ट्रेनों मे उक्त बोगी को जोड़ दिया जाता था । कई जगह घूमने के बाद छात्रों की बोगी कोलकाता(कलकत्ता) पहुँची । बिहार,बंगाल,यू पी. .. आदि कुछ राज्यों के लोग रेलवे आरक्षण या रिजर्व बोगी को को अधिक महत्व नहीं देते हैं । आज भी परीक्षा के समय या कुछ पर्व-त्योहारों के अवसर पर जहाँ जगह मिली लोग घुस जाते हैं, पुलिस असहाय की तरह मूकदर्शक बनी रहती है । कई बार तो आरक्षणवाले लोग चढ़ भी नहीं पाते हैं, अगर चढ़ भी गए तो अपनी जगह तक पहुँच भी नहीं पाते है । मैं स्वयं कई अवसरों पर इसका भुक्तभोगी रह चुका हूँ । जब इनलोगों की बोगी कलकत्ता पहुँची तो बहुत सारे छात्र प्लेटफ़ॉर्म पर चाय-पान के लिए उतर गए । ट्रेन खुलने के समय छात्रगण अपने डिब्बे में पहुँचे । आरक्षित डिब्बे में खाली सीटों पर लोग बैठ गए थे । छात्रों ने बाहरी लोगों को सीट खाली करने को कहा लेकिन वे कहाँ माननेवाले थे । उनलोगों को क्या पता कि पूरी बोगी में एक ही इंस्टीचूषण के छात्र बैठे हैं ! वे लोग स्वभाववश मारपीट करने लगे । लेकिन बोगी में तो एक ही तरह के सैकड़ों युवा थे, जिनसे धनबाद जिला भर के लोग डरे रहते थे । ये लोग तो भूत की तरह ऐसे अवसर खोजते रहते थे । हड्डों के झुंड को जैसे किसी ने जगा दिया । सभी बाहरी लोगों को मारपीट कर भगा दिया गया । उसका रिजल्ट यह हुआ कि सभी बंगला में चिल्लाने लगे और पूरे प्लेटफ़ॉर्म के लोग रिजर्व बोगी के पास आ गए । गेट बंद था तो लोगों ने खिड़की से घुसकर सबको पीटना शुरू किया । पुलिस मूकदर्शक बनी रही । जो टीचर साथ मे गए थे उन्होंने डायरेक्टर साहब को फोन किया । डायरेक्टर साहब के निर्देश पर सभी घायल छात्रों को लेकर साथ के शिक्षक सिंदरी लौट आए । इसका फल ये हुआ कि हमलोगों का ऑल इंडिया टूर कैंसिल हो गया ।
बाद में हमलोग अपने ब्रांच के लोगों के साथ निर्माणाधीन महात्मा गाँधी सेतु देखने पटना गए । हमारे विभागाध्यक्ष डॉ0 बी. पी. सिन्हा और एक अन्य प्राध्यापक हमारे साथ थे । डॉ0 सिन्हा जीनियस शिक्षक थे । उन्होंने दुनियाँ में प्रख्यात अभियंत्रण संस्थान मेसेचुसेट्स, अमेरिका से पी. एच. डी. किया था । बाद के दिनों मे उन्हें बी. आइ. टी., सिंदरी का निदेशक, बिहार राज्य निर्माण निगम का प्रबंध निदेशक एवं चेयरमैन, डायरेक्टर साइंस एंड टेक्नोलॉजी.. आदि बनाया गया. उनके एक मित्र इं0 अचिंत कुमार लाल उस समय अधीक्षण अभियंता थे जो महात्मा गाँधी सेतु के प्रभार मे थे । हमलोगों को गंगा ब्रिज गेस्ट हाउस में अंटकाया गया था । गंगा ब्रिज के संवेदक गैमन्स इंडिया लिमिटेड ने हमलोगों का बहुत स्वागत किया । चाय-कॉफी, स्पेशल नाश्ता, डेलीसस लंच, डिनर .. आदि काफी प्रशंसनीय थे । उस समय प्रीस्ट्रेस कंक्रीट बिहार के लिए बिल्कुल नया तकनीक कहना चाहिए । उससे पहले शायद ही बिहार के किसी प्रोजेक्ट में इस तकनीक का इस्तेमाल हुआ था । हमलोगों ने थ्योरी तो जरूर पढ़ा था लेकिन स्थल पर व्यावहारिक रूप से उसे देखने का मौका मिला । गंगा ब्रिज के सभी गर्डर प्रीस्ट्रेस्ड डबल कैंटीलीभर तकनीक पर बनाए गए थे । हालाँकि जो भी कारण रहा हो, बाद के दिनों में हेभी ट्रैफिक और अत्यधिक इंपैक्ट के कारण डबल कैंटीलीवर तकनीक असफल साबित हुआ । अनवरत मेन्टीनेंस से आजीज आकर लगभग तीस साल में ही सुपर स्ट्रक्चर को डबल कैंटीलीवर कन्क्रीट स्ट्रक्चर से बदल कर स्टील स्ट्रक्चर मे कन्वर्ट करना पड़ा । खैर ये सब बातें तो फ्यूचर में घटीं, हमलोगों के लिए शैक्षणिक एवं पर्यटन की दृष्टि से उस ट्रिप का आनंद वर्णनातीत था ।
दादाजी के संस्मरण (e)
दादाजी के संस्मरण (e)
जब हमलोग फाइनल ईयर मे था उसी समय कर्पूरी ठाकुर के समय सिंचाई विभाग में काफी भैकेंसी निकली । भकेंसी इतनी अधिक थी कि सिविल के बदले मेकेनिकल इंजीनियर को लिया जाने लगा। हमलोगों का डिमांड था कि सिविल का सीट खाली रखें, हमलोग पास करके आ रहे हैं, तब भरिएगा । उसी प्रोटेस्ट मे हमलोग सिंदरी से और जमशेदपुर से आर. आइ . टी के लोग पटना जा रहे थे । मुख्यमंत्री से मिलकर ज्ञापन देना था । सिंदरी से लगभग 30 छात्र, ट्रैकर और मिनी बस से धनबाद पहुँचे , उस समय सिंदरी से धनबाद आने-जाने का यही मुख्य साधन था । धनबाद मे पाटलीपुत्र एक्सप्रेश में हमलोग चढ़े, यह रेलगाड़ी उस समय धनबाद से पटना और वापसी के लिए बहुत ही आरामदेह एवं समय की बचत के लिए अनुकूल थी। बहुत काम स्टोपेज थी और तुरत स्पीड पकड़ लेती थी। मुझे उन दिनों बरुनजी और सुरेन्द्र की संगति में पान खाने की लत लग गई थी जो लगभग 40 वर्षों तक (2013 तक) तक रही। 2013 में प्रोस्टेट ऑपरेशन के समय चिकित्सक के परामर्श के बाद मैंने पान से संन्यास ले लिया जो 12 वर्ष बीतने पर भी बरकरार है। अब तो पान खाने की इच्छा भी नहीं होती। यह दैव कृपा और दृढ़ ईच्छाशक्ति शक्ति से ही संभव है, नहीं तो भरदिन पान चबानेवाले मेरे जैसे व्यक्ति से ये न छूट पाता। आज जब पान-खैनी खानेवाले लाखों लोगों को कैंसर जैसे असाध्य रोगियों को देखता हूँ तो ईश्वर का लाख-लाख शुक्रिया अदा करता हूँ जिनकी असीम कृपा से मैंने पान खाना 12 वर्ष पूर्व छोड़ सका था, उस चिकित्सक का भी बहुत-बहुत आभार! पान खाने की तलब के कारण हमलोग प्लेटफ़ॉर्म पर बात करते पान लेने की प्रतीक्षा करते रहे। पान लेते-लेते गाड़ी खुल गई। दौड़कर गाड़ी पर तो चढ़ गया लेकिन एक पैर का चप्पल प्लेटफ़ॉर्म पर गिर गया। गाड़ी तुरत स्पीड पकड़ चुकी थी अतः उतरकर पुनः चप्पल लेने का रिस्क नहीं ले सकता था । प्लेटफ़ॉर्म पर के एक व्यक्ति को इशारा किया तो उसने चप्पल उठाकर फेंका लेकिन तबतक गाड़ी आगे बढ़ गई और चप्पल मेरे हाथ में न आकर पुनः प्लेटफ़ॉर्म पर गिर गई । मैं अफ़सोश करते हुए भारी मन से अपने सीट पर आकर बैठ गया । हमारे अगल-बगल के सभी लोग मेरी खिल्ली उड़ाते रहे और घूम फिरकर बात चप्पल पर चलती रही। चप्पल बिल्कुल नई थी, कुछ ही दिनों पहले मैंने खरीदी थी । मैं बहुत गमगीन था । बनावटी मुसकी चेहरे पर लाता था लेकिन अंदर से बिल्कुल मायूस था । भगवान से माना रहा था कि किसी तरह कोई चमत्कार कर दो, स्टूडेंट का एक-एक पैसा बहुत मूल्यवान होता है । ट्रेन मोकामा स्टेशन पहुँच रही थी, भगवान ने मेरी बात सुन ली और अचानक से चमत्कार हो गया । पाटलीपुत्र एक्सप्रेस की सभी बोगियाँ इंटरकनेक्टेड थीं । एक यात्री पीछे के डिब्बे से शायद जगह तलाशते हुए हमारे डिब्बे में आया । उसने हमलोगों की बातचीत सुनी, चप्पल के बारे में बात करते हुए देखकर वह बोल उठा- " पीछे के डिब्बे में किसी ने एक चप्पल फेंका था । एक व्यक्ति की कनपटी में चोट लगी और उसने उस चप्पल से फेंकनेवाले को मारना चाहा लेकिन नई चप्पल देखकर वह रुक गया । उसने सोचा कि जरूर कोई बात है, नहीं तो कोई क्यों अकारण नई चप्पल फेंकेगा । उसने चप्पल को सबको दिखाया, सब हँसने लगे । सबने चप्पल को सीट के नीचे रख देने की सलाह दी । अभी भी जाने पर मिल जायगा ।" हमारे सभी मित्र हंसने लगे, मैं तो चप्पल का नाम सुनते ही दौड़ पड़ा । कई डिब्बों मे खोज करते हुए अंततः लक्ष्य तक पहुँचा । मैंने चप्पल रखनेवाले का आभार व्यक्त किया । मेरी आंतरिक खुशी पुनः लौट आई ।
Wednesday, February 12, 2025
दादाजी के संस्मरण (d):-
मेरे बड़े भैया स्व0 टी एन झा के एक मित्र थे स्व0 चौधरी । वे रेलवे में गार्ड थे । भैया के साथ कभी-कभी मैं भी उनके यहाँ जाता था। उनका दामाद मुझसे एक साल जूनियर था और बी.आइ.टी., मेसरा से सिंदरी ट्रांसफर करा लिया था । चौधरीजी ने मेरे हॉस्टल का पता अपने दामाद को दिया और वे मेरे पास आए । मेरे रूम में अपना सामान रखकर घर चले गए, लेकिन काफी समय तक नहीं लौटे । उन दिनों मैं हॉस्टल सं0 14 में रहता था। थर्ड इयर पास कर फ़ोर्थ इयर में गया तो ए जोन का हॉस्टल 5 एलॉट हुआ । मैं तो चला गया लेकिन चौधरीजी के दामाद का सामान हॉस्टल 14 के मेरे कमरे मे पड़ा रहा । रूम खाली करने के समय मैंने चीफ वार्डन साहब से सारी बातें बताई तो उन्होंने उनके सामान को कौमन रूम मे रख देने के लिए कहा । गार्ड ने उनके सामान को कॉमन रूम में रख दिया और मैं चैन से अपने हॉस्टल में रहने लगा। कुछ दिन के बाद एक रोज मैँ सो कर उठा ही था कि हॉस्टल 14 के दरबान को अपने गेट पर पाया । वह जोड़-जोड़ से मेरा दरबाजा खटखटा रहा था । मैंने दरबाजा खोला तो दरवान को देखकर मन खट्टा हो गया, मैं समझ गया कि यह अधकपारी फिर मेरा माथा चाटने आ गया । मेरे पूछने पर कि क्या बात है, उसने हॉस्टल वार्डन साहब प्रोफेसर आर. एन. सिंह का फरमान सुनाया कि आज ही कॉमन रूम खाली करना है । मेरा मूड अच्छा नहीं था, सो मैंने उसे यह कहते हुए डाँटकर भागा दिया- " जाओ, जो करना हो करो, मैं खाली नहीं करूँगा; चीफ वार्डन साहब ने सामान वहाँ रखबाया है ।" दरवान ने मेरे सारे शब्दों में नामक-मिर्च लगाकर वार्डन साहब को जाकर कह दिया । संयोग देखिए कि वार्डन साहब मेरे ही विभाग के प्रोफेसर थे । जैसे ही मैं क्लास करने डिपार्टमेंट पहुँचा वार्डन साहब का फरमान आया- "साहब बुला रहे हैं ।" मैं भयभीत हो गया कि अब खैर नहीं है । वार्डन साहब नॉलेज मे कमजोड़ जरूर थे लेकिन हड़काने में राजपूती शान रखते थे। ईश कृपा से मुझे एक उपाय सूझा । मैंने उनके पास जाकर बिना कुछ कहे-सुने दोनों हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना कर दी । क्षमा याचना ऐसा ब्रह्मास्त्र है कि क्रोधित से क्रोधित व्यक्ति को भी शान्त कर देता है। क्रोध अहंकार का ही बेटा है, जब अहंकार की तुष्टि हो जाती है तो क्रोध भी शान्त हो जाता है और फिर सारे अपराध माफ हो जाते हैं। उन्होंने मुझे माफ कर तो दिया लेकिन अहंकार मे कुछ गलत भी बोल गए जो मेरी समझ में एक प्रोफेसर के अनुकूल नहीं है । यथा-" देखो मिस्टर झा, हॉस्टल के मामले मे वार्डन सुप्रीम है, चीफ वार्डन से भी ऊपर ।" यह बात मेरे पल्ले नहीं चढ़ी। यद्यपि फाइनल इयर का छात्र मित्रवत् समझा जाता है, तथापि मैंने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा, वरना बनी हुई बात बिगड़ जाती ।
जब काम लेना हो तो चुप रहना ही श्रेयस्कर है, दूसरे के अहंकार की तुष्टि होने दें, अपने अहं का त्याग सदैव श्रेयस्कर होता है । साँप अगर चोटाया रहता है तो कभी न कभी जरूर डँसता है । मुझे भी इसी का भय बना हुआ था, लेकिन जब ईश सहायक हों तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता । इंजीनियरिंग मे प्रोफेसर के हाथ मे छात्र का करियर रहता है। लेकिन ईश्वर की कृपा देखिए कि प्रोफेसर आर. एन. सिंह कुछ ही दिनों के बाद पी. एच. डी . करने के लिए विदेश चले गए और मैं सदा के लिए निश्चिंत हो गया । उनसे मेरी 35 साल बाद पटना में एक मीटिंग में भेंट हुई जब मैं सचिव प्रावैधिक(अभि0 प्रमुख) था और वे निदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी थे। पता नहीं उन्हें पुरानी बातें याद थी कि नहीं, मुझे तो वह घटना आज भी वैसी की वैसी ही याद है ।
Tuesday, February 11, 2025
दादाजी के संस्मरण :-(c)
बीआईटी पीरियड में पढ़ाई का सारांश मैं निकालूँगा कि मैं समय का सम्यक् उपयोग नहीं कर सका । इसका मूल कारण अर्थाभाव, आलस्य, अज्ञानता और समुचित मार्गदर्शन का अभाव हो सकता है । परिवार और गाँव में पहले-पहल इंजीनियरिंग में पढ़नेवाले लड़के के साथ ऐसा होना स्वाभाविक भी है । मैंने पढ़ाई को कभी भी बहुत सीरियसली नहीं लिया । सीनियर छात्रों और शिक्षकों से और अधिक मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए था । समय का समुचित उपयोग बहुत ही आवश्यक है । जो बात अभी समझ में आ रही है, काश! उस समय आ जाती तो परिणाम कुछ और होता । लेकिन यही होना मेरे भाग्य में लिखा था ।
सभी को समय का महत्त्व समझना चाहिए, बाद में पछताने से क्या लाभ! "अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत" इंजीनियरिंग में अत्यधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है । बारहवीं तक की पढ़ाई मेधावी छात्रों को कम मिहनत में भी हो जाती है, लेकिन अभियांत्रिकी की पढ़ाई मेधा के साथ अत्यधिक श्रम खोजती है खैर, जब सेकेंड इयर से छुट्टियों में धनबाद आना बंद हुआ तो ठीक से पढ़ाई चलने लगी और मन भी पढ़ाई में लगने लगा । जब मन लगने लगा तो समझ में भी आने लगा । अब मैं समय का महत्व समझने लगा और व्यर्थ समय बर्बाद नहीं करता था ।
यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि जब किसी विषय में आपका मन लगने लगता है तो वह विषय समझ में भी आने लगता है । उसी प्रकार जब कोई विषय समझ में आने लगता है तो मन भी लगने लगता है । ऐसी स्थिति जब आए तो खूब समय देना चाहिए । एक ही तरह का सैकड़ों प्रश्न बनाना चाहिए ।
ऐसा प्रयोग मैं बाद के दिनों में अपने तृतीय पुत्र विमलजी पर कर चुका हूँ । जब वह दसवीमें था तो मैं उससे मैथ के एक ही तरह के सैकड़ों प्रश्न बनबाता था । वाणी को भी कनाडा में कुमौन क्लासेज में इसी उद्देश्य से एक ही तरह के सैकड़ों हजारों प्रश्न दिए जाते हैं सेकंड ईयर के लिए हमलोगों को छात्रावास संख्या 13 एलॉट हुआ । उसमें पुराने छात्र लोग रहते थे । कुछ तो वर्षों से फेल कर रहे थे , कुछ पास करके भी फ्री में अपने पुराने मित्रों के साथ छात्रावास का मजा कर रहे थे । हमलोग बहुत डरे हुए थे कि उन पुराने मुस्टंडों के साथ कैसे रहेंगे । लेकिन वह केवल भ्रम निकला । हमलोग पहले खाली कमरों में घुसे ,बाद में सभी कमरे बिना किसी के प्रतिरोध के खाली हो गए । जिस छात्रावास को वर्षों से कॉलेज प्रशासन खाली नहीं करा सका था वह नए चीफ वार्डन प्रोफेसर् रंगाचारी सर ने आराम से खाली करबा लिया । इससे पहले कभी किसी ने सच्चे मन से निर्भीकतापूर्वक प्रयासही नहीं किया था। इसका अर्थ ये हुआ कि पहले के वार्डन्स ने कभी हिम्मत ही नहीं की थी । दूसरी बात यह कि सत्य के आगे झूठ नहीं टिक सकता । तीसरी बात ये कि अपने जूनियर से कोई भी लड़ना नहीं चाहता है । चौथी कि पूर्ण साहस से निर्भीकतापूर्वक विकराल से भी विकराल शत्रु पर विजय पायी जा सकती है । मेरा एक परम मित्र है, प्रकाश । उससे मेरी बड़ी पटती थी । उसकी गायकी अद्भुत थी । उसके कंठ में माँ सरस्वती का वास था ।अभी भी उसका स्वर वैसा ही है । मेरा कमरा उसके बगल में ही था । बाथरूम में प्रांगण के गार्डेन को पटाने के लिए लंबा पाइप लगा हुआ था । जाड़ा का समय था । एक रोज मैं शाम के वक्त कुछ मित्रों के साथ निकट के बाजार शहरपुरा गया हुआ था । लौटकर आया तो देखता हूँ कि मेरे कमरे में बाथरूम का पाइप लगा हुआ है और पूरा रूम पानी से भरा हुआ है । मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह प्रकाश की शरारत है । मैंने प्रतिशोध की ज्वाला अंदर में दबाए कमरे को साफ किया और पढ़ाई में लग गया । किसी को अंदर का भाव नहीं जानने दिया। दूसरे दिन जब प्रकाश नहीं था तो मैंने वही काम प्रकाश के रूम में कर दिया और चुपचाप कमरा बंद कर पढ़ाई में लग गया । लेकिन तीसरे दिन जब मैं बाहर था तो प्रकाश ने वही काम फिर कर दिया । जाड़े की हाड़ कंपकंपाने बाली रात में पूरा रूम पानी से भरा देखकर मैं आग- बबूला हो गया । पाइप से गिरते हुए पानी के साथ मैं प्रकाश के रूम में पहुँचा । वह दो-तीन मित्रों के साथ बात कर रहा था। पाइप देखकर वह कूदकर आया, हम लोगों में जोर-जोर से झगड़ा होने लगा । भगवती की कृपा से मुँह से ही झगड़ा हुआ; मैं क्रोध को समाप्त कर अपने कमरे में आ गया और कमरा बंद कर मन को शान्त कर पढ़ाई में लग गया । लेकिन, उस रोज के बाद से मेरी प्रकाश से बातचीत बंद हो गई । जहाँ तक मुझे याद है, पूरी बी.आ. टी. अवधि तक हम दोनों की बातचीत फिर नहीं हुई । जब पास कर नोकरी के लिए ईंटभ्यू देने पटना गया तो फिर बातचीत हुई और पुनः मित्रता और अधिक प्रगाढ़ हो गई जो अभी तक बरकरार है। अभी जब उस घटना के संबंध में सोचता हूँ तो काफी पश्चाताप करता हूँ । यद्यपि प्रकाश ने पहले शरारत की थी तो भी मुझे बदला नहीं लेना चाहिए था । वह थोड़ा स्वभाव से ही नटखट है, लेकिन मुझसे लोग ऐसी उमीद नहीं करते हैं । मुझे पहल कर क्षमा मांग लेना चाहिए था । अगर मैं अहं त्याग कर पुनः बातचीत करना शुरू कर देता तो सम्पूर्ण सिंदरी की अवधि में एक प्रिय मित्र के नैसर्गिक सान्निध्य सुख से वंचित नहीं रहता । मेरी पाठकों से सलाह है कि वही महान होता है जो पहले क्षमा मांग लेता है । बाद के दिनों में मैंने जीवन में अनेकों बार इस अस्त्र का प्रयोग किया मानसिक शांति के साथ-साथ अतिशय आनंद प्राप्त किया ।
दादाजी के संस्मरण (b)
बी.आइ.टी. सिंदरी में द्वितीय वर्ष :-
द्वितीय वर्ष में मैंने पहला यह संकल्प लिया कि अनावश्यक धनबाद नहीं जाऊँगा । इसका फल यह हुआ कि मुझे पढ़ाई के लिए शनिवार और रविवार का काफी समय मिलने लगा । मुझे अब पाठ संबंधी कोई तनाव नहीं रहता था । खेल-खेल में मेरे सारे टास्क तैयार हो जाते थे । खेलने-कूदने का भी समय मिलने लगा । मैं यदा-कदा फुटबॉल, बैडमिंटन, कबड्डी, हॉकी, चेस.. आदि खेल में भी जाने लगा । पढ़ाई में भी मन लगने लगा । मैं अब क्लास में भी अधिक समझने लगा ।
आर्थिक तंगी के बावजूद अब मेरी सभी कार्यो में रुचि बढ़ गई । कबड्डी टीम का भी भाइस कैप्टेन हो गया । संघ की शाखाओं में भी जाने लगा । आपातकाल के बाद मैं बी.आइ.टी. सिंदरी की दोनों शाखाओं का कार्यवाह भी बन गया । ज़िंदगी में अधिक आनन्द आने लगा । कई छात्रावास बदले । ए-जोन के 7 नं0 होस्टल के बाद बी-जोन के 19, 13 और फिर 14 नं0 होस्टल में पहुँच गया । होस्टल नं0 7 में सभी कमरे 4 बेड के थे । 19, 13 और 14 में सिंगिल बेड के रूम्स थे । सात नं0 छात्रावास में तो काफी सारे मित्र थे- सुरेन्द्र, बरुनजी, द्वारकानंदजी, अबध, जीतेंद्र, जरताब, गोविंद..... इत्यादि । मगर सुरेन्द्र के साथ मैं अधिक समय बिताता था । 19 में दिनेश मिश्रा के साथ अधिक रहता था । 14 में बरुनजी और सुरेन्द्र के साथ अधिक रहा । 13 में सुरेन्द्र और बरुनजी के साथ रहा ।
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