Monday, April 14, 2025

दादाजी के संस्मरण(m) :-

बात उन दिनों की है जब मैं चौथा वर्ग में पढ़ता था । मैं एक रोज शाम के वक्त घर के सामने के तालाब में घाट पर हाथ-मुँह धो रहा था । घाट पर काफी अंधेरा था । अंधेरे में देखता हूँ कि कोई काला पाँच इंच का जीव घाट पर है । मैं एक सेकंड के लिए घबरा गया । लेकिन वह हिल-डुल नहीं रहा था । धीरे-धीरे नजदीक जाकर देखने पर पता चला कि यह एक पर्स है । मैंने पर्स को उठाकर अपने घर आ गया । किवाड़ बंद कर पर्स को खोलकर देखा तो नोटों से भरा पाया । चौथा वर्ग का अकिंचन छात्र एक साथ इतने रुपये को देखकर अचंभित हो गया । कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ । लालटेन जलाकर देखा तो शायद कहीं एक नाम नजर आया- 'आशेश्वर झा' । अब ईश्वर की प्रेरणा कहिए कि बिना सेकेंड की देरी किए दरबाजे पर दौड़ता हुआ गया । वहाँ पर घूर(कूड़ा-कचरा का ढेर लगाकर सुलगती आग) के पास पूरे टोले के लोग बैठे हुए आग ताप रहे थे । मेरे पिताजी स्व0 कामेश्वर झा, रामचन्द्र काका, बड़का बाबा, छोटका बाबा, राजेन्द्र काका, नथुनी भैया, गोकुल भैया, उग्रेश भैया.. आदि दस-पंद्रह लोग थे । मैंने सीधे आशे काका के हाथ में वह पर्स देते हुए कहा कि आपका ही है, न ? वे बहुत खुश हुए और अनेक आशीष देते हुए मुझे पुरस्कार देने के बारे मे बोलने लगे । वहाँ बैठे हुए सभी लोग मेरी प्रशंसा करने लगे कि एक नौ साल का लड़का इतना त्यागी हो, घोर आश्चर्य की बात है । मैं चुपचाप आँगन आकर पढ़ाई में लग गया । पिताजी साधारण किसान थे और हमेशा आर्थिक तंगी में रहते थे । उन्हें काफी दु:ख हुआ कि ईश्वर की कृपा से रास्ते में पाया हुआ बहुत सारा पैसा व्यर्थ में लौटा दिया गया । खाना खाने के समय उन्होंने अपना आक्रोश प्रकट कर ही दिया- " आप बुड़बक ही रह गए ! पाया हुआ पैसा कौन लौटाता है? आप चोरी थोड़े ही किए थे "। मैं चुपचाप सुनकर उठ गया । सिर्फ इतना कहा कि दूसरे का पैसा ढेला ही है । नथुनी भैया बहुत कंजूस थे । सूद पर पैसा लगाते थे । एक-एक पैसा के लिए मरते थे । सुबह में मेरे माथे पर हाथ रखकर आशीष देते हुए बोले कि आपके जैसा गाँव मे कोई नहीं है, एक दिन आप बहुत नाम कमाइएगा । आज जब उस घटना को सोचता हूँ तो आश्चर्य करता हूँ कि पूर्व जन्म के सुकृत और ईश्वर की प्रेरणा से ही सब कुछ हुआ, नहीं तो चौथा में अभाव के बीच पल रहा बालक कैसे इतना त्यागी हो सकता है ! जरूर मुझ पर ईश्वर की असीम कृपा थी जो बचपन से ही टेस्ट ले रही थी । नहीं तो ऐसा कैसे संभव होता कि गाँव के बड़े लोगों के पुत्र मुझसे पढ़ाई में बहुत पीछे रहते थे और मैं अनाथ(जब चार साल का था तो माँ मर गई थी, पिताजी निरक्षर थे जो अपना हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे) जिसको भोजन के भी लाले थे, गाँव का पहला इंजीनियर बन सका । शिक्षा :- 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ द मैन" । " जे नूनू से गर्भहि नूनू" ।" मॉर्निंग शोज द डे" ।

दादाजी के संस्मरण(l) :-

******************* साल 1917मे अमेरिका यात्रा मे भेल एकटा अपन अनुभव अहाँ सबहक संग शेयर कर' चाहै छी । हमसब ह्यूस्टन शहर में एकटा होटल मे अँटकल छलहुँ । भोरखन मॉर्निंग वाक मे एकटा बगले के सड़क पर टहलि रहल छलहुँ । हमरा मोबाइल मे टावर नै छलैक । तैयो घंटी बाज' लागल । हम कॉल रिसीव केलहुँ-" हेलो ! " दोसर दिस स' जवाब आयल-" ह्यूस्टन पुलिस स्पीकिंग । " हम डेराक' फोन के स्विच ऑफ केलहुँ आ जल्दी-जल्दी होटल एलहुँ । अपना बालक के सब बात कहलियन्हि । ओ चेक क' क' कहै छथि- "पापाजी, अहीं स' इमरजेंसी कॉल भेल छल । " --" हमरा मोबाइल मे टावर नै छैक तखन कोना कॉल भेलैक । " --" ऑफ लाइन मे सेहो इमरजेंसी कॉल होइ छै । " मोबाइल सब मे ' इमरजेंसी कॉल ओनली ' लीखल देखै छलिऐ, मुदा ई नै बूझल छल जे ई पुलिस के लागै छै । हम सोचै छलहुँ जे आफति-बिपति मे ऑफ़लाइन मे अपन लोक के कॉल करक लेल ई संदेश थिक । हमर बालक तुरत पुलिस के कॉल कएलखिन्ह आ सब बात साफ़-साफ़ कहि देलखिन्ह । पुलिस हुनकर पता आ हालचाल पुछलक । जखन आस्वस्त भ' गेल जे कोनो मर्जेंसी नै छन्हि तखन रखलक । बाद के दिन मे जखन नीक लोकक लेल अमेरिकी पुलिसक हेल्पिंग ऐटीच्यूड देखलौं त' भय समाप्त भ' गेल । कोनो तरहक दिक्कति मे घर मे मर्जेंसी बट्टम दबेबै कि सेकण्ड मे पुलिस के कॉल आयत आ जै तरहक मदति चाही से पाँच मिनट के भीतर पुलिस करत । कोनो बेमार व्यक्ति लेल डाक्टर आ एम्बुलेंस लेनहिएँ आयत, आगिक केस मे अग्निशामक गाड़ी लइए क' आयत । चोर-डकैत के लेल त' कोनो बाते नै, ओकरा सबके त' ओ काजे थिक ।

दादाजी के संस्मरण(k) :-

***************** स्विच ऑफ मोबाइल ******************** बात थोड़े पुरान थिक । तै समयमे हम राँचीमे रहैत छलहुँ । हम डोरंडामे छलहुँ आ हमर एकटा मित्र कडरूमे रहैत छलाह । ओ हरदम हमरा डेरा पर अबैत रहैत छलाह । चाह-पान-नश्ता हाहा-हीही खूब होइत छलैक । मुदा हमरा हुनका डेरा दिस जयबाक सुयोग नहि भेटल छल । एक दिन अशोकनगरमे काज छल तैं दुनू बेकती कडरू होइत गुजरि रहल छलहुँ । मित्र याद आबि गेलाह । फोन केलियन्हि तँ हुनक कनियाँ उठेली । कहलियन्हि जे लौटैत काल अहाँक डेरा पर आयब । अशोकनगरमे बहुत विलम्ब भ' गेल तैं घुरैत काल हुनका डेरा पर जयबामे मोन असकता रहल छल । अपन असमर्थता व्यक्त करबा लेल दोस्त के मोबाइल पर फोन लगेलहुँ मुदा नहि लागल । हुनकर कनियोंक मोबाइल पर नहि लागल । डेरा पर आबि अपसोच भेल जे दोस्त के नहि कहि सकलियनि, ओ व्यर्थमे बाट तकैत हेताह । श्रीमतीजी अनका मोनक बात जान'मे बड्ड आगाँ छथि । बाजि उठली- " कत' छी बमभोला बाबा! कियोने आहाँक बाट तकैत हेताह । एतबो ने बुझलियैक जे अहीं दुआरे दुनू मोबाइल स्विचऑफ छलैक!" हम अबाक!!!! ***********************

दादाजीक संस्मरण (j )

बात बहुत पुरान थीक । सिंदरीमे अभियांत्रिकीक द्वितीय बर्खक छात्र छलहुँ । गर्मी छुट्टीमे गाम आयल छलहुँ । श्रद्धेय स्व0 परम भैया सेहो मोतिहारीसँ गाम आयल छलाह । ओ मोतिहारीक हनुमान सुगरमिल परिसर स्थित हनुमान मंदिरक पुजेगरी छलाह । हुनका संगें हुनक एकटा पैघ मारवारी मित्र सहो आयल छलन्हि । नाम तँ याद नहि अछि, किछु काल लेल मानि लीय' "चौखानी" । हमरासँ तीन दिन पहिने परम भैया आ चौखानी आयल छलाह । तीन दिनमे चौखानी खूब लोकप्रिय भ' गेल छल । चौक-चौराहा, कलम गाछी सागरो घुमैत छल । ओकरा संगे हरदम दस-बीस टा लोक रहैत छलैक । चाह-पान, हाहा-हीही खूब होइत छलैक । हम एलहुँ तँ दरबज्जापर ओकरासँ भेट भेल। परिचय भेल आ हल्का-फुल्का बात भेल । हमरासँ भेट होइत देरी पता नै की जादू भेलैक जे ओ आब हमरा बिना कतहु जेबे ने करय । हमरा बुझाइछ जे यद्यपि ओ गामक लोकसबसँ घुलि-मिलि गेल छल तथापि ओकरा असुरक्षा बोध हरदम रहैत छलैक । ओकरा संग हरदम रह'बलामे सदानंद, महारुद्र, पवन, चन्द्रनाथ, नंदू .. आदि अनेक लोक छलथिन्ह । एहन-एहन अवधूत सबहक बीच ओ परदेशी सीधा-सादा चौखानी कृत्रिम प्रसन्नता देखबैत रहैत छल । हमरासँ भेट होइत देरी ओकरा जानमे जान एलैक । ओ एक दिन हमरा संग एकांतमे दोस्तीक बंधन जोड़लक आ एकटा हीरा जड़ित सोनाक औंठी आँगुरमे पहिरा देलक । भ' सकैत अछि ओकरा समाजमे अहिना दोस्ती लगेबाक प्रथा छल हेतैक, हम शुद्ध ग्रामीण मैथिल समाजमे पलल एकटा अकिंचन विप्र ऐ प्रथासँ साफे अनभिज्ञ अकचकायले रहि गेलहुँ । हमरो किछु देबाक चाही ई सोचबो नै केलहुँ । हँ, एकटा बात मोनमे आयल जे संभवतः हेरेबाक वा चोइर हेबाक डरे ओ हमरा लगमे अपन मूल्यवान धरोहर बिसबास क' क' राखि देलक अछि जे जयबाक काल तक सुरक्षित रहैक । आब चौखानीक मुखपर प्राकृतिक खुशी लौटि गेल छलैक । आब ओ निश्चिंत भ' डोकहर, कपलेसर, खजौली, सुक्खी, उचैठ, कलुआही, मधुबनी.. सौंसे घुमैत रहैत छल । ओ खूब नीक हरमुनियाँ बजाबय आ गीतो खूब नीके गबैत छल । आमक गाछीमे ओकर उन्मुक्त हँसी वर्णनातीत रहैत छल । एक मास ओ रहल, कोना ओ एक मास बीति गेल किछु नै बुझायल । ओ जखन बिदा भेल तँ हम धधहरा गाछीमे छलहुँ । हमरा दिमागमे छल जे ओ भोजनोपरांत बिदा होयत, मुदा ओ जलखै क' क' बिदा भ' गेल । पता चलल जे जाइतकाल ओ हमार खोज केने छल । हमर मोन छटपटा उठल । हम बिना जलखै केनहिं कलुआही लेल दौड़ि पड़लहुँ । बाबू मनो केलनि जे कत' ढोंर हाँक' जायब, ओ चलि गेल होयत । मुदा हमरा किछु नै सुनायल । दौड़ते-दौड़ते कलुआही पहुँचलहुँ । संजोग देखू जे बस लेट छलैक । चौखानी बसमे बैसि गेल छल । बस एक मिनटमे खुज'बला छलैक, सीटी द' देने छलैक । हम चौखानी लग जाक' उदास मोने ओकरासँ हाथ मिलेलहुँ आ आँगुरसँ औंठी निकालि ओकरा द' देलिऐक । ओ खुश भ'क' ल' लेलक आ हम तेजीसँ उतरि गेलहुँ । भगवान हमर इज्जति बचौलन्हि । पता नहि ओ हमरोलेल की की सोचैत छल होयत! गामपर आबि निसाँस छोडलहुँ । बाबू पुछलाह- "भेटल की नहि"? कहलियन्हि-"हँ, भेटि गेल" । मुदा,हुनका कहाँ बूझल छलन्हि जे हमरा माथक बड़का बोझ उतरि गेल छल!! ओ घटना एखनो ओहिना याद अछि । शिक्षा :-मित्र कितना ही अच्छा क्यों न हो, कभी भी लोभ वश उसके दिए सामान को न ले लें जब तक कि वह देने के लिए दुराग्रह पर न उतर आए ।

दादाजी के संस्मरण (i) :-

----------------------- बात सन् 1990 की है । उन दिनों मैं पुनाइचक पटना में भाड़े के एक दो रूम के फ्लैट मे रहता था । मेरे तीनों लड़के नीलूजी, दीपूजी और विमलजी क्रमशः नौ, सात और पाँच साल के थे । पटना में पुस्तक मेला लगा हुआ था । अपने अलविन पुष्पक स्कूटर पर तीनों बच्चों को बैठाकर मैं भी पुस्तक मेला घूमने गाँधी मैदान गया। उन दिनों इतनी कड़ाई से वाहनों की जाँच नहीं होती थी । तीन बच्चे थे लेकिन बिना डर के मैं सड़कों पर निकाल पड़ता था । सड़कों पर आज की तरह भीड़ नहीं रहती थी । 35 वर्षों में लगभग दूनी भीड़ हो गई है । पटना में सपरिवार रहने के उद्देश्य से पहली बार आया था । बिहार के एक छोटे से शहर बीरपुर से सीधा सबसे बड़े शहर एवं राजधानी मे आ गया था । शहर का आकर्षण मन को मोह रहा था । दिन मे हमेशा घर से बाहर ही रहता था । छुट्टी के दिन तो सुबह से शाम तक घूमता रहता था । मॉर्निंग वाक में चिड़िया खाना जरूर जाता था । सुबह में उन दिनों फ्री इंट्री थी, अतः फ्री का मजा लेना और आनंददायक था । लगभग 4.00 बजे अपराह्न में हमलोग गांधी मैदान पहुँचे । स्कूटर को फ्री पार्किंग में लगाकर पुस्तक मेला में घूमने लगे । शायद रविवार का दिन रहा होगा, अतः काफी भीड़ थी, लग रहा था पूरा पटना पुस्तक मेला घूमने आ गया है । चलते समय देह में देह का रगड़ा लगता था । कुछ ही देर टहले होंगे कि अचानक से विमलजी गायब हो गया । नीलूजी और दीपूजी को वहीं एक जगह खड़ा कर मैं विमलजी को खोजने लगा । लगभग आधा घंटा सर्वत्र खोजा लेकिन वह कहीं नहीं मिला । मैं निराश होकर हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ रुआँसा चेहरा लिए हुए पुरानी जगह पर आकर सर पर हाथ रखकर बैठ गया । एक क्षण के लिए चारों तरफ अंधेरा छा गया । उसी समय माइक से घोषणा हुई कि विमल नाम का एक बच्चा कार्यालय में है, जिनका बच्चा है ले जायँ । जान में जान आया । मैं दौड़ा हुआ कार्यालय पहुँचा । विमलजी रो रहा था। गोद में लेकर नीलू और दीपू के पास आया । तुरत बाहर आ गया । बच्चों को कुछ खिला-पिलाकर तुरत घर आ गया । नीलू की माँ सब वाकया सुनकर रोने लगी और भगवान के पास बैठकर बड़ी देर तक प्रार्थना करती रही । आज भी जब-जब उस घटना को याद करता हूँ तो मन रूआँसा हो जाता है