Thursday, July 2, 2020

प्रेम आ समर्पण


प्रेमके ब्रह्मास्त्र सँ तँ जीव केहनो बसमे आयत,
बिना प्रेमे ककर साहस हिंस्र पशु के छूबि पायत?
जखन एकटा चतुष्पादो प्रेमके सब भाव बूझय,
कृपानिधि सर्वज्ञ मोनक बात क्यै नै बूझि पायत!!
सुतल-जागल साँझ-भिनसर जे करै छथि प्रभुक सुमिरन,
बुझू निश्चय ईश्वरो सुमिरन करै छथि तनिक अनुखन ।
जीव सब लेल दया-प्रेमक जनिक उरमें भाव उमड़य,
बुझी नित बेचैन ईशो सतत हुनके लेल हुकड़य ।।
लोक सबके चाह उरमे ईश्वरक लेल होइछ जतबा,
प्रभुक सेहो चाह लोकक लेल उरमे होइछ ततबा ।
चाह यद्यपि होइछ सबके मुदा नै बिसबास सदिखन,
अनिच्छा आलस्य शंका अबिसबासे भरल हरदम ।।
डोलायब घंटी अछत-फूले के पूजा बुझय सब क्यो,
प्रभुक लेल सर्वस्व त्यागक लेल नहिं तैयार अछि क्यो ।
जखन कखनो जाइछ मन्दिर मात्र याचक भाव सबके,
प्रार्थना कष्टक निवारण हेतु केवल करय सब क्यो ।।
त्यागिक' सब मोह-ममता समर्पण सबकिछु जे करता,
तकर सबटा भार निश्चय ईश्वरे नित बहन करता ।
मात्र ईशक लेल आकुल जगत मे बिरले क्यो भेटय,
सतत जे प्रभु लेल ब्याकुल जगत मे बिरले क्यो भेटय ।।

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