अहंता आ प्रेम एक्के-
वृक्ष के दू शाख होमय ।
प्रेम त्यागक लेल आतुर,
अहंता लेबाक सोचय ।।
अहंता लेबाक सोचय,
झुकाओल सबके करै अछि।
प्रेम तँ देबाक आकुल
सतत ओ नमले रहै अछि ।।
जे ने चिखलथि स्वाद प्रेमक
प्रेम रस की बूझि सकता ।
उर तकर रसहीन-उस्सर
जे सतत डूबल अहंता ।।
बसय सबमे एके ईश्वर,
प्रेम सबसँ करी सदिखन ।
बात ज्ञानक से की बुझता,
अहंमे डूबल जे सदिखन ।।
अहंमे डूबल जे सदिखन,
स्वार्थ पाछाँ रहय पागल ।
सुधा के की स्वाद बूझत,
गोबरक कीड़ा अभागल ।।
बात ई कहियो ने बिसरी,
ईश सबहक उर बसय ।
आन क्यो नहि छथि जगतमे,
एके ईश्वर सबमे बसय ।।
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