Thursday, April 21, 2011

साधना

आध्यात्मिकता हमारी धरोहर है। जब दुनिया अज्ञान के अंधकार में भटक रही थी तो हमने ही अपने अवतारों के माध्यम से रोशनी दिखाई। विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाकर एक दूसरे से प्रेम करना सिखाया। त्याग का पाठ हमने ही पढ़ाया। जब लोग शरीर रक्षण को जीवन का लक्ष्य समझ रहे थे तो हमने ही परमात्म-ज्ञान का अमृत पिलाया। जो स्वार्थ में लिप्त हैं उन्हें परमार्थ के आनंद का अनुभव कैसे हो सकता है। व्यसनी को निद्रा, कलह और नशा से फुर्सत कहाँ कि काव्य शास्त्र के आनंद का अनुभव करे। फकीरी का आनंद घोर संसारी क्या जाने। वेद-पुराण के शव्द अकस्मात् एक दिन में नहीं आये हैं। हजारों-लाखों वर्षों की साधना के प्रतिफल के रूप में एक-आध शव्द प्राप्त होते थे। विना किशी साधना के उन शव्दों का अर्थ लगाना-समझना अनर्थ हो जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में श्रीमद-भागवत महापुराण, कृष्ण चरित्र, रास-पंचाध्यायी का अनर्थ करना स्वाभाविक है। विना साधना के इन महाकाव्यों को समझना असंभव है। विषयवस्तु के ज्ञान होने के वावजूद साधना के बल पर ही प्राप्य संभव है। बचपन से सिखाया जाता है कि परमात्मा ह्रदय में निवाश करते हैं। अगर मैं भी ह्रदय में निवाश करूं तो सदैव ईश्वर के पास रहूंगा। लेकिन विना साधना के क्या ह्रदय में रहना संभव है? लाखों-करोड़ों में कोई एक ह्रदय में रहता है। विना ईशकृपा केवल साधना से यह संभव भी नहीं है।- ओह्म नामोभाग्वाते श्री रमने.

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