Monday, April 14, 2025

दादाजी के संस्मरण(m) :-

बात उन दिनों की है जब मैं चौथा वर्ग में पढ़ता था । मैं एक रोज शाम के वक्त घर के सामने के तालाब में घाट पर हाथ-मुँह धो रहा था । घाट पर काफी अंधेरा था । अंधेरे में देखता हूँ कि कोई काला पाँच इंच का जीव घाट पर है । मैं एक सेकंड के लिए घबरा गया । लेकिन वह हिल-डुल नहीं रहा था । धीरे-धीरे नजदीक जाकर देखने पर पता चला कि यह एक पर्स है । मैंने पर्स को उठाकर अपने घर आ गया । किवाड़ बंद कर पर्स को खोलकर देखा तो नोटों से भरा पाया । चौथा वर्ग का अकिंचन छात्र एक साथ इतने रुपये को देखकर अचंभित हो गया । कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ । लालटेन जलाकर देखा तो शायद कहीं एक नाम नजर आया- 'आशेश्वर झा' । अब ईश्वर की प्रेरणा कहिए कि बिना सेकेंड की देरी किए दरबाजे पर दौड़ता हुआ गया । वहाँ पर घूर(कूड़ा-कचरा का ढेर लगाकर सुलगती आग) के पास पूरे टोले के लोग बैठे हुए आग ताप रहे थे । मेरे पिताजी स्व0 कामेश्वर झा, रामचन्द्र काका, बड़का बाबा, छोटका बाबा, राजेन्द्र काका, नथुनी भैया, गोकुल भैया, उग्रेश भैया.. आदि दस-पंद्रह लोग थे । मैंने सीधे आशे काका के हाथ में वह पर्स देते हुए कहा कि आपका ही है, न ? वे बहुत खुश हुए और अनेक आशीष देते हुए मुझे पुरस्कार देने के बारे मे बोलने लगे । वहाँ बैठे हुए सभी लोग मेरी प्रशंसा करने लगे कि एक नौ साल का लड़का इतना त्यागी हो, घोर आश्चर्य की बात है । मैं चुपचाप आँगन आकर पढ़ाई में लग गया । पिताजी साधारण किसान थे और हमेशा आर्थिक तंगी में रहते थे । उन्हें काफी दु:ख हुआ कि ईश्वर की कृपा से रास्ते में पाया हुआ बहुत सारा पैसा व्यर्थ में लौटा दिया गया । खाना खाने के समय उन्होंने अपना आक्रोश प्रकट कर ही दिया- " आप बुड़बक ही रह गए ! पाया हुआ पैसा कौन लौटाता है? आप चोरी थोड़े ही किए थे "। मैं चुपचाप सुनकर उठ गया । सिर्फ इतना कहा कि दूसरे का पैसा ढेला ही है । नथुनी भैया बहुत कंजूस थे । सूद पर पैसा लगाते थे । एक-एक पैसा के लिए मरते थे । सुबह में मेरे माथे पर हाथ रखकर आशीष देते हुए बोले कि आपके जैसा गाँव मे कोई नहीं है, एक दिन आप बहुत नाम कमाइएगा । आज जब उस घटना को सोचता हूँ तो आश्चर्य करता हूँ कि पूर्व जन्म के सुकृत और ईश्वर की प्रेरणा से ही सब कुछ हुआ, नहीं तो चौथा में अभाव के बीच पल रहा बालक कैसे इतना त्यागी हो सकता है ! जरूर मुझ पर ईश्वर की असीम कृपा थी जो बचपन से ही टेस्ट ले रही थी । नहीं तो ऐसा कैसे संभव होता कि गाँव के बड़े लोगों के पुत्र मुझसे पढ़ाई में बहुत पीछे रहते थे और मैं अनाथ(जब चार साल का था तो माँ मर गई थी, पिताजी निरक्षर थे जो अपना हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे) जिसको भोजन के भी लाले थे, गाँव का पहला इंजीनियर बन सका । शिक्षा :- 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ द मैन" । " जे नूनू से गर्भहि नूनू" ।" मॉर्निंग शोज द डे" ।

दादाजी के संस्मरण(l) :-

******************* साल 1917मे अमेरिका यात्रा मे भेल एकटा अपन अनुभव अहाँ सबहक संग शेयर कर' चाहै छी । हमसब ह्यूस्टन शहर में एकटा होटल मे अँटकल छलहुँ । भोरखन मॉर्निंग वाक मे एकटा बगले के सड़क पर टहलि रहल छलहुँ । हमरा मोबाइल मे टावर नै छलैक । तैयो घंटी बाज' लागल । हम कॉल रिसीव केलहुँ-" हेलो ! " दोसर दिस स' जवाब आयल-" ह्यूस्टन पुलिस स्पीकिंग । " हम डेराक' फोन के स्विच ऑफ केलहुँ आ जल्दी-जल्दी होटल एलहुँ । अपना बालक के सब बात कहलियन्हि । ओ चेक क' क' कहै छथि- "पापाजी, अहीं स' इमरजेंसी कॉल भेल छल । " --" हमरा मोबाइल मे टावर नै छैक तखन कोना कॉल भेलैक । " --" ऑफ लाइन मे सेहो इमरजेंसी कॉल होइ छै । " मोबाइल सब मे ' इमरजेंसी कॉल ओनली ' लीखल देखै छलिऐ, मुदा ई नै बूझल छल जे ई पुलिस के लागै छै । हम सोचै छलहुँ जे आफति-बिपति मे ऑफ़लाइन मे अपन लोक के कॉल करक लेल ई संदेश थिक । हमर बालक तुरत पुलिस के कॉल कएलखिन्ह आ सब बात साफ़-साफ़ कहि देलखिन्ह । पुलिस हुनकर पता आ हालचाल पुछलक । जखन आस्वस्त भ' गेल जे कोनो मर्जेंसी नै छन्हि तखन रखलक । बाद के दिन मे जखन नीक लोकक लेल अमेरिकी पुलिसक हेल्पिंग ऐटीच्यूड देखलौं त' भय समाप्त भ' गेल । कोनो तरहक दिक्कति मे घर मे मर्जेंसी बट्टम दबेबै कि सेकण्ड मे पुलिस के कॉल आयत आ जै तरहक मदति चाही से पाँच मिनट के भीतर पुलिस करत । कोनो बेमार व्यक्ति लेल डाक्टर आ एम्बुलेंस लेनहिएँ आयत, आगिक केस मे अग्निशामक गाड़ी लइए क' आयत । चोर-डकैत के लेल त' कोनो बाते नै, ओकरा सबके त' ओ काजे थिक ।

दादाजी के संस्मरण(k) :-

***************** स्विच ऑफ मोबाइल ******************** बात थोड़े पुरान थिक । तै समयमे हम राँचीमे रहैत छलहुँ । हम डोरंडामे छलहुँ आ हमर एकटा मित्र कडरूमे रहैत छलाह । ओ हरदम हमरा डेरा पर अबैत रहैत छलाह । चाह-पान-नश्ता हाहा-हीही खूब होइत छलैक । मुदा हमरा हुनका डेरा दिस जयबाक सुयोग नहि भेटल छल । एक दिन अशोकनगरमे काज छल तैं दुनू बेकती कडरू होइत गुजरि रहल छलहुँ । मित्र याद आबि गेलाह । फोन केलियन्हि तँ हुनक कनियाँ उठेली । कहलियन्हि जे लौटैत काल अहाँक डेरा पर आयब । अशोकनगरमे बहुत विलम्ब भ' गेल तैं घुरैत काल हुनका डेरा पर जयबामे मोन असकता रहल छल । अपन असमर्थता व्यक्त करबा लेल दोस्त के मोबाइल पर फोन लगेलहुँ मुदा नहि लागल । हुनकर कनियोंक मोबाइल पर नहि लागल । डेरा पर आबि अपसोच भेल जे दोस्त के नहि कहि सकलियनि, ओ व्यर्थमे बाट तकैत हेताह । श्रीमतीजी अनका मोनक बात जान'मे बड्ड आगाँ छथि । बाजि उठली- " कत' छी बमभोला बाबा! कियोने आहाँक बाट तकैत हेताह । एतबो ने बुझलियैक जे अहीं दुआरे दुनू मोबाइल स्विचऑफ छलैक!" हम अबाक!!!! ***********************

दादाजीक संस्मरण (j )

बात बहुत पुरान थीक । सिंदरीमे अभियांत्रिकीक द्वितीय बर्खक छात्र छलहुँ । गर्मी छुट्टीमे गाम आयल छलहुँ । श्रद्धेय स्व0 परम भैया सेहो मोतिहारीसँ गाम आयल छलाह । ओ मोतिहारीक हनुमान सुगरमिल परिसर स्थित हनुमान मंदिरक पुजेगरी छलाह । हुनका संगें हुनक एकटा पैघ मारवारी मित्र सहो आयल छलन्हि । नाम तँ याद नहि अछि, किछु काल लेल मानि लीय' "चौखानी" । हमरासँ तीन दिन पहिने परम भैया आ चौखानी आयल छलाह । तीन दिनमे चौखानी खूब लोकप्रिय भ' गेल छल । चौक-चौराहा, कलम गाछी सागरो घुमैत छल । ओकरा संगे हरदम दस-बीस टा लोक रहैत छलैक । चाह-पान, हाहा-हीही खूब होइत छलैक । हम एलहुँ तँ दरबज्जापर ओकरासँ भेट भेल। परिचय भेल आ हल्का-फुल्का बात भेल । हमरासँ भेट होइत देरी पता नै की जादू भेलैक जे ओ आब हमरा बिना कतहु जेबे ने करय । हमरा बुझाइछ जे यद्यपि ओ गामक लोकसबसँ घुलि-मिलि गेल छल तथापि ओकरा असुरक्षा बोध हरदम रहैत छलैक । ओकरा संग हरदम रह'बलामे सदानंद, महारुद्र, पवन, चन्द्रनाथ, नंदू .. आदि अनेक लोक छलथिन्ह । एहन-एहन अवधूत सबहक बीच ओ परदेशी सीधा-सादा चौखानी कृत्रिम प्रसन्नता देखबैत रहैत छल । हमरासँ भेट होइत देरी ओकरा जानमे जान एलैक । ओ एक दिन हमरा संग एकांतमे दोस्तीक बंधन जोड़लक आ एकटा हीरा जड़ित सोनाक औंठी आँगुरमे पहिरा देलक । भ' सकैत अछि ओकरा समाजमे अहिना दोस्ती लगेबाक प्रथा छल हेतैक, हम शुद्ध ग्रामीण मैथिल समाजमे पलल एकटा अकिंचन विप्र ऐ प्रथासँ साफे अनभिज्ञ अकचकायले रहि गेलहुँ । हमरो किछु देबाक चाही ई सोचबो नै केलहुँ । हँ, एकटा बात मोनमे आयल जे संभवतः हेरेबाक वा चोइर हेबाक डरे ओ हमरा लगमे अपन मूल्यवान धरोहर बिसबास क' क' राखि देलक अछि जे जयबाक काल तक सुरक्षित रहैक । आब चौखानीक मुखपर प्राकृतिक खुशी लौटि गेल छलैक । आब ओ निश्चिंत भ' डोकहर, कपलेसर, खजौली, सुक्खी, उचैठ, कलुआही, मधुबनी.. सौंसे घुमैत रहैत छल । ओ खूब नीक हरमुनियाँ बजाबय आ गीतो खूब नीके गबैत छल । आमक गाछीमे ओकर उन्मुक्त हँसी वर्णनातीत रहैत छल । एक मास ओ रहल, कोना ओ एक मास बीति गेल किछु नै बुझायल । ओ जखन बिदा भेल तँ हम धधहरा गाछीमे छलहुँ । हमरा दिमागमे छल जे ओ भोजनोपरांत बिदा होयत, मुदा ओ जलखै क' क' बिदा भ' गेल । पता चलल जे जाइतकाल ओ हमार खोज केने छल । हमर मोन छटपटा उठल । हम बिना जलखै केनहिं कलुआही लेल दौड़ि पड़लहुँ । बाबू मनो केलनि जे कत' ढोंर हाँक' जायब, ओ चलि गेल होयत । मुदा हमरा किछु नै सुनायल । दौड़ते-दौड़ते कलुआही पहुँचलहुँ । संजोग देखू जे बस लेट छलैक । चौखानी बसमे बैसि गेल छल । बस एक मिनटमे खुज'बला छलैक, सीटी द' देने छलैक । हम चौखानी लग जाक' उदास मोने ओकरासँ हाथ मिलेलहुँ आ आँगुरसँ औंठी निकालि ओकरा द' देलिऐक । ओ खुश भ'क' ल' लेलक आ हम तेजीसँ उतरि गेलहुँ । भगवान हमर इज्जति बचौलन्हि । पता नहि ओ हमरोलेल की की सोचैत छल होयत! गामपर आबि निसाँस छोडलहुँ । बाबू पुछलाह- "भेटल की नहि"? कहलियन्हि-"हँ, भेटि गेल" । मुदा,हुनका कहाँ बूझल छलन्हि जे हमरा माथक बड़का बोझ उतरि गेल छल!! ओ घटना एखनो ओहिना याद अछि । शिक्षा :-मित्र कितना ही अच्छा क्यों न हो, कभी भी लोभ वश उसके दिए सामान को न ले लें जब तक कि वह देने के लिए दुराग्रह पर न उतर आए ।

दादाजी के संस्मरण (i) :-

----------------------- बात सन् 1990 की है । उन दिनों मैं पुनाइचक पटना में भाड़े के एक दो रूम के फ्लैट मे रहता था । मेरे तीनों लड़के नीलूजी, दीपूजी और विमलजी क्रमशः नौ, सात और पाँच साल के थे । पटना में पुस्तक मेला लगा हुआ था । अपने अलविन पुष्पक स्कूटर पर तीनों बच्चों को बैठाकर मैं भी पुस्तक मेला घूमने गाँधी मैदान गया। उन दिनों इतनी कड़ाई से वाहनों की जाँच नहीं होती थी । तीन बच्चे थे लेकिन बिना डर के मैं सड़कों पर निकाल पड़ता था । सड़कों पर आज की तरह भीड़ नहीं रहती थी । 35 वर्षों में लगभग दूनी भीड़ हो गई है । पटना में सपरिवार रहने के उद्देश्य से पहली बार आया था । बिहार के एक छोटे से शहर बीरपुर से सीधा सबसे बड़े शहर एवं राजधानी मे आ गया था । शहर का आकर्षण मन को मोह रहा था । दिन मे हमेशा घर से बाहर ही रहता था । छुट्टी के दिन तो सुबह से शाम तक घूमता रहता था । मॉर्निंग वाक में चिड़िया खाना जरूर जाता था । सुबह में उन दिनों फ्री इंट्री थी, अतः फ्री का मजा लेना और आनंददायक था । लगभग 4.00 बजे अपराह्न में हमलोग गांधी मैदान पहुँचे । स्कूटर को फ्री पार्किंग में लगाकर पुस्तक मेला में घूमने लगे । शायद रविवार का दिन रहा होगा, अतः काफी भीड़ थी, लग रहा था पूरा पटना पुस्तक मेला घूमने आ गया है । चलते समय देह में देह का रगड़ा लगता था । कुछ ही देर टहले होंगे कि अचानक से विमलजी गायब हो गया । नीलूजी और दीपूजी को वहीं एक जगह खड़ा कर मैं विमलजी को खोजने लगा । लगभग आधा घंटा सर्वत्र खोजा लेकिन वह कहीं नहीं मिला । मैं निराश होकर हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ रुआँसा चेहरा लिए हुए पुरानी जगह पर आकर सर पर हाथ रखकर बैठ गया । एक क्षण के लिए चारों तरफ अंधेरा छा गया । उसी समय माइक से घोषणा हुई कि विमल नाम का एक बच्चा कार्यालय में है, जिनका बच्चा है ले जायँ । जान में जान आया । मैं दौड़ा हुआ कार्यालय पहुँचा । विमलजी रो रहा था। गोद में लेकर नीलू और दीपू के पास आया । तुरत बाहर आ गया । बच्चों को कुछ खिला-पिलाकर तुरत घर आ गया । नीलू की माँ सब वाकया सुनकर रोने लगी और भगवान के पास बैठकर बड़ी देर तक प्रार्थना करती रही । आज भी जब-जब उस घटना को याद करता हूँ तो मन रूआँसा हो जाता है

Tuesday, February 18, 2025

दादाजी के संस्मरण (h) :-

गया :- भारत के बिहार राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर और गया जिले का मुख्यालय है । यहाँ के लोग मगही बोलते हैं । यह अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थलों में से एक है । यहाँ विदेशी पर्यटक लाखों की संख्या में आते हैं । इस नगर का हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मों से गहरा ऐतिहासिक सम्बंध रहा है । गया का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी मिलता है । गया तीन ओर से छोटी व पथरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, शृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि है । नगर के पूरब में फल्गू नदी बहती है । वैदिक काल के कीकट प्रदेश के धर्मारण्य क्षेत्र में स्थापित नगरी है गया । वाराणसी की तरह धार्मिक नगरी के रूप मे गया की प्रसिद्धि है । पितृपक्ष मे पितरों को पिंडदान के लिए लाखों श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं । यहाँ का विष्णुपद मंदिर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है । पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के पाँव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है । हिन्दू धर्म में कहा जाता है कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुंठ की प्राप्ति होती है । मुक्तिधाम के रूप मे प्रसिद्ध गया तीर्थ को गया जी कहा जाता है । कहा जाता है कि भगवान विष्णु का परम भक्त गयासुर नामक दैत्य भगवान को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया कि मेरे यज्ञ करते समय मेरे दर्शन करनेवालों के सारे दोष क्षमा कर दिए जायँ । अनंत राक्षस लोग जिंदगी भर कुकर्म कर मृत्यु के समय उसके दर्शन कर मुक्त होने लगे । अतः भगवान विष्णु ने उसे धरती के भीतर यज्ञ करने को कहा और उसे धरती के भीतर अपने पैरों से भेज दिया । ऐसा करते समय भगवान के पैर के चिन्ह यहाँ पर पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते हैं । गया मौर्य काल में एक महत्वपूर्ण नगर था । खुदाई के समय सम्राट अशोक से संबंधित आदेश पत्र पाया गया है । 1787 में होल्कर वंश की (बुंदेलखंड) साम्राज्ञी महारानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था । मेगास्थनीज की इंडिका, फ़ाह्यान तथा व्हेनसांग के यात्रा वर्णन में गया को समृद्ध धर्म क्षेत्र के रूप में वर्णन किया गया है । ज्ञान की खोज मे करीब 500 ई0 पूर्व गोतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या करने बैठे । यहीं भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह स्थान बोधगया कहलाने लगा । बोधगया :- बिहार में गया से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया एक प्रमुख धार्मिक स्थल है जहाँ गौतम बुद्ध को 2500 वर्ष पूर्व बोधि वृक्ष के नीचे बोध की प्राप्ति हुई थी, इसीलिए उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा । यह बौद्ध धर्म का पवित्रतम स्थल है । यहाँ के महाबोधि मंदिर का धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय पहचान है । बोधगया, पूर्व मे मगध राज्य की राजधानी भी रह चुका है । यहाँ प्रतिवर्ष प्रबुद्ध सोसाइटी द्वारा ज्ञान एवं सम्मान समारोह किया जाता है । यह स्थान राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है । वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया । करीब 500 ई 0 पूर्व गौतम बुद्ध फल्गू नदी के तट पर पहुँचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या करने बैठे । तीन दिन और तीन रात की तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके बाद वे बुद्ध के नाम से जाने गए । उन्होंने वहाँ 7 हफ्ते अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जाकर धर्म का प्रचार शुरू किया । बुद्ध के अनुयायियों ने बैसाख पूर्णिमा के दिन उस स्थान पर जाना शुरू किया जिस दिन बुद्ध ने जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त की थी । धीरे-धीरे यह स्थान बोधगया के नाम से जाना गया और यह दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया । 528 ई 0 पूर्व कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया । वे ज्ञान प्राप्ति हेतु निरंजना नदी के तट पर भासे एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए । इसी गाँव मे एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे । एक दिन वे ध्यान में लीन थे तो गाँव की एक लड़की सुजाता एक कटोएर खीर तथा शहद लेकर आई । खीर, शहद खाने के बाद उन्हें और अच्छा ध्यान लगा । कुछ दिनों बाद अज्ञान का बादल छँट गया, उन्हे ज्ञान प्राप्त हो गया । अब वे बुद्ध थे। महाबोधि मंदिर में स्थापित मूर्ति का संबंध स्वयं भगवान बुद्ध से कहा जाता है । मंदिर निर्माण जब पूर्ण होने को था तो लोगों ने एक शिल्पकार को खोजना शुरू किया जो अच्छी मूर्ति बना सके । एक दिन एक शिल्पकार आया और बोला कि वह छह माह में मूर्ति निर्माण कर देगा लीकीन शर्त है कि समय के पहले कोई मंदिर का दरबाजा न खोले । व्यग्र ग्रामवासियों ने समय से चार दिन पहले ही मंदिर का दरबाजा खोल दिया । मंदिर के अंदर एक भव्य मूर्ति थी लेकिन छाती वाला भाग पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था । कुछ दिन बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर में रहने लगा । बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही इस मूर्ति का निर्माण किया था । बुद्ध की यह मूर्ति बोद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्ति है । नालंदा और विक्रमशिला के मंदिरों में इसी मूर्ति की प्रतिकृति स्थापित है । बोधगया को बुद्ध के समय उरुवेला के नाम से और फल्गू नदी निरंजना के नाम से जाना जाता था । हमलोग गाइडजी के साथ बोधगया के सभी स्थानों का भ्रमण किया । तिब्बतियन टेंपूल, थाइ टेंपूल, जैपनीज टेंपुल, भूटानी मंदिर/मठ, वियतनामी मंदिर .. आदि स्थापत्य कला के अनोखे नमूने हैं । सभी प्रमुख स्थानों को देखकर हमलोग ट्रेन से धनबाद आ गए, फिर मिनी बस से सिंदरी । इस ट्रिप को पर्यटन की दृष्टि से बहुत उत्तम मानता हूँ । अभी तक गया और बोधगया कई बार भ्रमण कर चुका हूँ लेकिन फिर सासाराम और इंद्रपुरी जाने का मौका नहीं मिला ।

Friday, February 14, 2025

दादाजी के संस्मरण (g) :-

फाइनल ईयर में असैनिक अभियंत्रण के छात्रों का एक जिऑलोजिकल टूर जिओलॉजी विभाग के तरफ से रखा गया । प्रोफेसर श्रीवास्तव जिओलॉजी के हेड थे, वे भी हमलोगों के साथ थे । हमलोग धनबाद से ट्रेन से सासाराम के डेहरीऑनसोन गए । वहाँ से इंद्रपुरी बराज देखने गए । इंद्रपुरी बराज :- सोन नदी पर निर्मित यह बराज सिंचाई की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है । इसकी लंबाई लगभग 1407 मीटर(4616') और फाटकों की संख्या 60 है जिसमे से केवल 9 से ही जल निकासन होते हैं । यह दुनियाँ का चौथा सबसे लंबा बैराज है (दुनियाँ का सबसे लंबा बैराज फरक्का बैराज हैजिसकी लंबाई 2253 मीटर है) । यह 1960 मे शुरू हुआ और 1968 में चालू किया गया । अंग्रेजों के समय में 1873-74 में देश की सबसे पुरानी सिंचाई प्रणालियों में से एक देहरी में सोन के पर एक एनीकट के साथ विकसित किया गया था । सोन से नदी के दोनों किनारों पर नहर प्रणाली से पानी और बड़े क्षेत्रों की सिंचाई की जाती है । एनीकट से 8 कि.मी. ऊपर इंद्रपुरी बैराज निर्मित है । इसके दो मुख्य कैनाल हैं- पूर्वी नहर 144 कि0मी0 और पश्चिमी 212 कि०मी० । इसकी 149 शाखा नहरें हैं और 1235 बितरितियाँ हैं । मुख्य उद्देश्य खेतों की सिंचाई और जलापूर्ति तथा बाढ़ नियंत्रण ही है लेकिन विजली उत्पादन से भी लोग लाभान्वित हो रहे हैं । इसका निर्माण हिंदुस्तान कन्सट्रक्सन कंपनी ने किया था, इसी कंपनी ने फरक्का बराज भी बनाया है । इंद्रपुरी बांध पर्यटकों को भी खूब आकर्षित करता है । हमलोगों को गेस्ट हाउस में अंटकाया गया था और शानदार भोजन का इंतजाम था । हमलोगों ने उसी जंगल मे मंगल मनाते हुए रात्रि-विश्राम किया । पुनः शुबह मे बराज, जलाशय और प्रकृति का आनंद लेते हुए हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन पहुँचे । वहाँ से सासाराम स्टेशन उतरकर शेरशाह का मकबरा देखने गए । शेरशाह का मकबरा :- बिहार के सासाराम स्थित शेरशाह सूरी के मकबरा निर्माण 16 अगस्त 1545 को पूरा हुआ । यह बिहार के पठान सम्राट शेरशाह सूरी की याद मे बनाया गया था । शेरशाह सूरी का जन्म 1486 में हुआ था । उसके जन्म का नाम फरीद खान था । भारत मे जन्मा इस पठान ने मुगल सम्राट हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य की स्थापना की । बाबर की सेना में एक साधारण सैनिक रहते हुए अपनी बहादुरी के बाल पर वह सेनापति बन गया और फिर बिहार का राज्यपाल बन गया । 1537 मे हुमायूँ जब सुदूर अभिया पर था तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश की स्थापना की । 1539 मे चौसा की लड़ाई मे हुमायूँ का सामान्य करना पड़ा और वह जीत गया । 1540 में पुनः हुमायूँ को हराकर उसे भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। शेरखान की उपाधि पाकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य हो गया । 1545 में कालिंजर की घेराबंदी के दौरान राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय द्वारा बेरहमी से मार डाला गया । शेरशाह के अनेक प्रशंसनीय जनकल्याण के कार्य हैं। रुपया उसी का चलाया हुआ है । विश्व प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड उसी का बनाया हुआ है । यह काबुल से लेकर चटगांव तक उसके द्वारा निर्मित है । सड़क की दोनों तरफ पेड़, मील के पत्थर, धर्मशाला, सौचालय, जलापूर्ति हेतु कुंए .. आदि कल्याणकारी कार्य उन्होंने कराए । अपने जीवनकाल में ही उसने अपने मकबरे का निर्माण शुरू करबाया । 13 मई 1545 को उसकी मृत्यु हुई और 16 अगस्त 1545 को मकबरे का निर्माण पूरा हो गया । अपने गृहनगर सासाराम मे उसका मकबरा कृत्रिम झील से घिरा हुआ है । यह हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना है । शेरशाह के मकबरा को भारत का दूसरा ताजमहल भी कहा जाता है । लगभग 52 एकड़ में फैले सरोवर के बीच में मकबरा करीब 122' ऊंचा है । यह मकबरा विश्व के ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है । इसके वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खान थे । इसका निर्माण रेड सैंड स्टोन से हुआ है । मकबरा वर्गाकार पत्थर के चबूतरे पर बना है । प्रत्येक कोने में गुंबददार खोखे हैं, छतरीस, इसके आगे पत्थर के किनारे और चबूतरे के चारों ओर सीढ़ीदार मूरिंग्स हैं, जो एक विस्तृत पत्थर के पुल के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ है । मुख्य मकबरा अष्टकोणीय है जिसके शीर्ष पर एक गुंबद है जो 22 मी0 ऊँचा है जिसके चारों ओर से सजावटी गुंबददार खोखे हैं जो कभी रंगीन चमकता हुआ टाइल के काम मे शामिल थे । मकबरे के चारों ओर की झील को सूर राजवंश द्वारा सुल्तान वास्तुकला के अफ़गान चरण में विकास के रूप मे देखा जाता है । मकबरा शेरशाह के साथ-साथ उसके बेटे इस्लाम शाह के शासनकाल के दौरान शेरशाह की मृत्यु के तीन माह बाद (16.08.1545) बनाया गया था । शेरशाह सूरी के पिता का नाम हसन शाह सूरी था । उसका भी मकबरा कुछ ही दूर पर है जिसे 'सूखा रौजा' कहा जाता है । हमलोगों ने पूरा कैंपस का भ्रमण किया । मैंने किसी से अकेले में पूछा था कि दूर में दिखाई देनेवाला मकबरा किसका है तो उसने कहा था कि वह शेरशाह के पिता का मकबरा है । जब हमलोग मकबरा पर ऊपरी मंजिल पर टहल रहे थे तो यही प्रश्न हमारे प्राध्यापक महोदय ने पूछ दिया कि बगल का मकबरा किसका है । मैंने कहा कि शेरशाह के पिता का है । उन्हें लगा कि यह मेरा मजाक उड़ा रहा है । वह मेरी ओर कुछ क्रोधित मुद्रा में देखते हुए आगे बढ़ गए । जब हमलोग टहलकर नीचे उतर रहे थे तो उन्होंने दूर जाकर चुपचाप किसी से वही प्रश्न किया । पर्यटक ने मेरा ही उत्तर दिया । अब उनका क्रोध शान्त हो गया था और वे तेजी से मेरे पास आकर मेरी पीठ थपथपाये- "मिस्टर झा, तुम ठीक बोले थे, वह शेरशाह के अब्बू का ही मकबरा है" । मुझे हँसी आ गई । हमलोग डेहरी-ऑन-सोन स्टेशन आकर धनबाद की गाड़ी में चढ़ गए । हमारा एक साथी था जरताब जाफ़र कुरेसी । वह मुजफ्फरपुर के एक प्रख्यात चिकित्सक का लड़का था । वह हमलोगोंके साथ बिहार सरकार में ज्वाइन किया था लेकिन कुछ वर्षों के बाद अमेरिका चला गया, आजकल लॉस-एंजिलिस में एक प्रमुख उद्योगपति है । वह भी उस टूर मे हमलोगों के साथ था । उसका बड़ा भाई गया मेडिकल कॉलेज में पढ़ता था और प्राइवेट लॉज मे रहता था । उसने गया मे घूमने का प्रोग्राम बनाया तो मेरा भी गया घूमने का मन हुआ । मैं, बरुनजी, सुरेन्द्र, ललनजी, जरताब, कृष्ण कुमार .. आदि लगभग आठ-नौ लड़के गया मे उतर गए । शाम में जरताब के भाई के लॉज पहुँचे । उसके भाई ने अपने मित्रों को बोलकर कई कमरों में हमलोगों के ठहरने का इंतजाम कर दिया । रात्रि विश्राम के बाद सुबह 7 बजे हमलोग बोधगया गए । बोधगया में ललनजी के बहनोई पर्यटन विभाग मे गाइड थे । वही हमलोगों को सभी पर्यटन स्थलों को घुमाने लगे । फ्री के गाइड का काम करने लगे । अब जरा मैं गया और बोधगया के बारे मे कुछ जानकारी देना उचित समझता हूँ ।